गायत्री- साधना से पापमुक्ति गायत्री की अनन्त कृपा से पतितों को उच्चता मिलती है और पापियों के पाप नाश होते हैं.इस तथ्य पर विचार करते हुए हमें यह बात भली प्रकार समझ लेनी चाहिए
कि आत्मा सर्वथा, स्वच्छ, निर्मल, पवित्र, शुद्ध बुद्ध और निर्लिप्त है.
मै यही चाहता हू जीवन मे पवित्रता हो और सभी पापो का नाश हो,ताकी जीवन मे एक नया उद्देश्य जन्म ले और आनेवाली पीढी को सहजता से हमारे संस्कृति का ग्यान प्राप्त हो.
मै इतना बडा उपासक तो नही हू परंतु माँ गायत्री उपासना पर कुछ लिखने की इच्छा रखता हू इसलिये जो कुछ ग्यान है वह शब्दो के स्वरुप मे आपके सामने रखने की एक कोशिश कर रहा हू.
मै जब 10 वर्ष का था तक मेरे सभी ब्राम्हण मित्रो के यहा मुंज की जाति थी जिसमे उन्हे उच्चकोटि के ब्राम्हण देवता से गायत्री मंत्र प्राप्त होता था.मैने भी ब्राम्हण देवता के समक्ष अपनी इच्छा प्रगट की थी और उन्हे गायत्री मंत्र देने का प्रार्थना किया था परंतु मुझे "मै ब्राहण न होने के कारण,उन्होने मना कर दिया",एक दिन येसा आया माँ भगवती देवि शर्मा जी नागपुर आयी थी,उनके सानिध्य मे अश्वमेध हवन संपन्न हुआ और येसे पावन अवसर पर मुझे गायत्री मंत्र दीक्षा प्राप्त हुयी.उस समय से जो विधि-विधान संपन्न कर रहा हू वही सब आपको देना चाहता हू.आज भी यह लिखते समय आंखो मे आसू आते है के मुझे बहोत मेहनत करनी पडी गायत्री मंत्र प्राप्त करने मे.अगर इस जीवन मे मुझे गायत्री मंत्र नही मिलता तो मुझे गुरू और सदगुरू नही मिलते.आचार्य चाणक्य कहेते है "मंत्रो मे मंत्र सबसे बडा महामंत्र गायत्री मंत्र है" और "सदगुरुदेव निखिल जी कहेते है-गायत्री मंत्र ही सर्वप्रथम गुरूमंत्र है".आज मेरे दस गुरू है जिन्होने गायत्री मंत्र साधना से बढकर कोई साधना नही यही मुझे ग्यान प्रदान किया है.लिखने मे कुछ भुल हुयी हो तो क्षमाप्रार्थना स्वीकार करे.
ब्रह्मसन्ध्या- जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिए की जाती है। इसके अन्तर्गत निम्नांकित कृत्य करने पड़ते हैं।
पवित्रीकरण
बाएं हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढक लें एवं मन्त्रोच्चारण के साथ जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें। पवित्रता की भावना करें।
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपिवा ।।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्यभ्यन्तरः शुचिः ॥
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।।
आचमन
तीन बार वाणी, मन व अंतः करण की शुद्धि के लिए चम्मच से जल का आचमन करें। हर मंत्र के साथ एक आचमन किया जाय ।।
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ॥ १॥
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा ॥ २॥
ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा ॥ ३॥
शिखा स्पर्श एवं वंदन
शिखा के स्थान को स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सद्विचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे। निम्न मंत्र का उच्चारण करें
ॐ चिद्रूपिणी महामाये दिव्यतेजः समन्विते ।।
तिष्ठ देवि शिखामध्ये तेजोवृद्धिं कुरूष्व मे ॥
प्राणायामः
श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम कृत्य में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति और श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अंदर खींची जा रही है। छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं। प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के बाद किया जाय।
ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम् ।। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।। ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतंब्रह्मभूर्भुवः स्वः ॐ ।।
अघमर्षण
अघमर्षण क्रिया में जल को हथेली पर भरते समय ‘ॐ भूर्भुवः स्वः, दाहिने नथुने से सांस खींचते समय ‘ तत्सवितुर्वरेण्यं, इतना मंत्र भाग जपना चाहिए और बायें नथुने से सांस छोड़ते समय ‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ और जल पटकते समय ‘धियो योनः प्रचोदयात्’ इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। यह क्रिया तीन बार करनी चाहिए जिससे काया के, वाणी के और मन के त्रिविधि पापों का संहार हो सके ।।
न्यास
इसका प्रयोजन है शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि देवपूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बायें हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें ।।
ॐ वाङ्मे आस्येऽस्तु ।। (मुख को)
ॐ नसोर्मेप्राणोऽस्तु ।। नासिका के दोनों छिद्रों को
ॐ अक्ष्णोर्मेचक्षुरस्तु ।। (दोनों नेत्रों को)
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ।। (दोनों कानों को)
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु ।। (दोनों बाहों को)
ॐ ऊर्वोर्मेओजोऽस्तु ।। (दोनों जंघाओं को)
ॐ अरिष्टानिमेऽअङ्गानि तनूस्तान्वा में सह सन्तु
- (समस्त शरीर को)
पृथ्वी पूजनम्
धरती माता का पंचोपचार विधि से मंत्रोच्चार के साथ पूजन करें ।।
ॐ पृथ्वीतया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृताः ।।
त्वं च धारण मां देवि पवित्रं कुरू चासनम् ॥
आत्मशोधन की ब्रह्मसंध्या के उपर्युक्त षट् कर्मों का भाव यह है कि साधक में पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि हो तथा मलिनता, अवांछनीयता की निवृत्ति हो। पवित्र- प्रखर व्यक्ति ही भगवान के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते हैं।
देव पूजन
गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा- ऋतम्भरा गायत्री है। उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मंत्र के माध्यम से आह्वान करें। भावना करें कि साधक की भावना के अनुरूप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो स्थापित हो रही है।
आयातु वरदे देवि अक्षरे ब्रह्मवादिनी ।।
गायत्रिच्छन्दसां माता ब्रह्मयोनिर्नमोऽस्तुते ॥३॥
ॐ श्रीगायत्र्यै नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि
ध्यायामि ।। ततो नमस्कारं करोमि ।।
जिन्हें जैसी सुविधा हो उपयुक्त मंत्र से अथवा गायत्री मंत्र से आवाहन कर लें ।।
आवाहन की हुई गायत्री माता का पूजन करना चाहिए। पूजन में साधारणतया (१) जल (२) धूपबत्ती (३) दीपक (४) अक्षत (५) चन्दन (६) पुष्प (७) नैवेद्य ।।
इन सात वस्तुओं से काम चल सकता है। एक छोटी तश्तरी चित्र के सामने रखकर उसमें यह वस्तुएँ
गायत्री मंत्र बोलते हुए समर्पित की जानी चाहिए। तत्पश्चात् उन्हें प्रणाम करना चाहिए। यह सामान्य पूजन हुआ।
जिन्हें सुविधा हो वे सोलह वस्तुओं से षोडशोपचार पूजन श्री सूक्त के सोलह मन्त्रों से कर सकते हैं। सोलह वस्तुओं में से जो वस्तु न हों उनके स्थान पर जल या अक्षत समर्पित किये जा सकते हैं। श्री सूक्त के सोलह मंत्र तथा उन्हें किस प्रयोजन के लिए प्रयोग करना है, यह क्रम निम्नलिखित है-
लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री तथा इसी तरह अन्य देवियों का षोडशोपचार पूजन श्री सूक्त से किया जाता है। श्री सूक्त के प्रत्येक मंत्र उच्चारण के साथ उससे सम्बन्धित वस्तुएं देवी को समर्पित करनी चाहिये।
१.आवाहन
ॐ हिरण्यवर्णा हरिणों सुवर्णरजतस्रजाम् ।।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥
२. आसन
ॐ तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।।
यस्तां हिरण्यं विन्देय गामश्वं पुरूषानहम् ॥
३. पाद्य
ॐ अश्वपूर्वा रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् ।।
श्रियं देवी मुपह्वये श्रीर्मा देवीजुषताम् ॥
४.अर्घ्य
ॐ कां सोऽस्मि तां हिरण्यप्राकारामार्दा
ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। पद्मे स्थितां
पद्मवर्णा तामिहोपह्वये श्रियम् ॥
५. आचमन
ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्घलन्तीं श्रिय लोके
देवजुष्टामुदाराम् ।। तां पद्मनेमिशरणमह
प्रपद्येऽअलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ॥
६. स्नान
ॐ आदित्यवर्णे तपसोऽधिणातौ वनस्पतिस्तव
वृक्षेऽयबिल्वः ।। तस्य फलानि मपसा
नुदन्तु तायान्तरायश्च बाह्याऽअलक्ष्मीः ॥
७. वस्त्र
ॐ उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह ।।
प्रादुर्भूतो सुराष्ट्रऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥
८. यज्ञोपवीत
ॐ क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठःमलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् ।।
अभूतिसमृद्धिं च सर्वा निर्णद मे गुहात् ॥
९.गन्ध
ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥
१०. पुष्प
ॐ मनसः काममाकूर्ति वाचः सत्यमशीमहि ।।
पशूनांरूपप नस्य मयि श्रीः श्रयता यशः ॥
११. धूप
ॐ कर्दमेन प्रजा भूतामयि सम्भव कर्द्दम ।।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥
१२. दीपक
ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिल्कीत वस मे गृहे ।।
न च देवीं मातरं श्रिय वासय मे कुले ॥
१३. नैवेद्य
ॐ आर्द्रापुष्करिणीं पुष्टि पिगलां पद्ममालिनीम् ।।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥
१४. ताम्बूल- पुंगीफल
ॐ आर्द्रा यः करिणीं यष्टि सुवर्णा हेममालिनीम्।
सूर्या हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥
१५. दक्षिणा
ॐ तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।।
यस्या हिरण्यं प्रभूतिं गावो दास्योऽश्वान्विन्देयं पुरूषानहम् ॥
१६. पुष्पांजलि
ॐ यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् ।।
सूक्तं पंचदशर्च श्रीकामः सततं जपेत् ॥
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलें-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
गायत्री को त्रिपदा कहते हैं। त्रिपदा का अर्थ है-तीन चरण वाली, तीन टाँग वाली। तीन टुकड़े इसके हैं, जिनको समझ करके हम गायत्री के ज्ञान और विज्ञान की आधारशिला को ठीक तरीके से जान सकते हैं। इसका एक भाग है विज्ञान वाला पहलू। विज्ञान वाले पहलू में आते हैं- तत्त्वदर्शन, तप, साधना, योगाभ्यास, अनुष्ठान, जप, ध्यान आदि। यह विज्ञान वाला पक्ष है। इससे शक्ति पैदा होती है। गायत्री मंत्र का जप करने से, उपासना और ध्यान करने से उसके जो माहात्म्य बताए गए हैं कि इससे यह लाभ होता है, अमुक लाभ होते हैं, अमुक कामनाएँ पूरी होती हैं। अब यह देखा जाए कि यह कैसे पूरी होती हैं और कैसे पूरी नहीं होती? कब यह सफलता मिलती है और कब नहीं मिलती? किसी भी बीज को पैदा करने के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है। भूमि उसके पास होनी चाहिए। भूमि के अलावा खाद और पानी का इंतजाम होना चाहिए। अगर ये तीनों चीजें उसके पास न होंगी तब फिर मुश्किल है। तब फिर वह बीज पल्लवित होगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। गायत्री मंत्र के बारे में भी यही तीन बातें हैं कि यदि गायत्री मंत्र के साथ तीन चीजें मिला दी जाएँ या किसी भी आध्यात्मिक उपासना के साथ मिला दी जाएँ तो उसके ठीक परिणाम होने संभव हैं। अगर यह तीन चीजें नहीं मिलाई जाएँगी, तब फिर यही कहना पड़ेगा कि इसमें सफलता की आशा कम है।
गायत्री उपासना के संबंध में हमारा लंबे समय का जो अनुभव है वह यह है कि जप करने की विधियाँ और कर्मकाण्ड तो वही हैं जो सामान्य पुस्तकों में लिखे हुए हैं या बड़े से लेकर छोटे लोगों ने किए हैं। किसी को फलित होने और किसी को न फलित होने का मूल कारण यह है कि उन तीन तत्त्वों का समावेश करना लोग भूल जाते हैं जो किसी भी उपासना का प्राण हैं। उपासना के साथ एक तथ्य यह जुड़ा हुआ है कि अटूट श्रद्धा होनी चाहिए। श्रद्धा की एक अपने आप में शक्ति है। बहुत सारी शक्तियाँ हैं-जैसे बिजली की शक्ति है, भाप की शक्ति है, आग की शक्ति है, उसी तरीके से श्रद्धा की भी एक शक्ति है। पत्थर में से देवता पैदा हो जाते हैं, झाड़ी में से भूत पैदा हो जाता है, रस्सी में से साँप हो जाता है और न जाने क्या-क्या हो जाता है श्रद्धा के आधार पर। अगर हमारा और आपका किसी मंत्र के ऊपर, जप उपासना के ऊपर अटूट विश्वास है, प्रगाढ़ निष्ठा और श्रद्धा है तो मेरा अब तक का अनुभव यह है कि उसको चमत्कार मिलना चाहिए और उसके लाभ सामने आने चाहिए। जिन लोगों ने श्रद्धा से विहीन उपासनाएँ की हैं, श्रद्धा से रहित केवल मात्र कर्मकाण्ड संपन्न किए हैं, केवल जीभ की नोक से जप किए हैं और उँगलियों की सहायता से मालाएँ घुमाई हैं, लेकिन मन मैं वह श्रद्धा न उत्पन्न कर सके, विश्वास उत्पन्न न कर सके, ऐसे लोग खाली रहेंगे। बहुत सारा जप करते हुए भी अगर अटूट श्रद्धा और विश्वास के साथ उपासनाएँ की जाएँ तो यह एक ही पहलू ऐसा है जिसके आधार पर हम यह आशा कर सकते हैं कि हमारे अच्छे परिणाम निकलने चाहिए और उपासना को पूरा पूरा लाभ देना चाहिए। यह एक पक्ष हुआ।
दूसरा, उपासना को सफल बनाने के लिए परिष्कृत व्यक्तित्व का होना नितांत आवश्यक है। परिष्कृत व्यक्तित्व का मतलब यह है कि आदमी चरित्रवान हो, लोकसेवी हो, सदाचारी हो, संयमी हो, अपने व्यक्तिगत जीवन को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाने वाला हो। अब तक ऐसे ही लोगों को सफलताएँ मिली हैं। अध्यात्म का लाभ स्वयं पाने और दूसरों को दे सकने में केवल वही साधक सफल हुए हैं जिन्होंने कि जप, उपासना के कर्मकाण्डों के सिवाय अपने व्यक्तिगत जीवन को शालीन, समुन्नत, श्रेष्ठ और परिष्कृत बनाने का प्रयत्न किया है। संयमी व्यक्ति, सदाचारी व्यक्ति जो भी जप करते हैं,उपासना करते हैं उनकी प्रत्येक उपासना सफल हो जाती है। दुराचारी आदमी, दुष्ट आदमी, नीच पापी और पतित आदमी भगवान का नाम लेकर यदि चाहें तो पार नहीं हो सकते। भगवान का नाम लेने का परिणाम यह होना चाहिए कि आदमी का व्यक्तित्व सही हो और वह शुद्ध बने। अगर व्यक्ति को शुद्ध और समुन्नत बनाने में रामनाम सफल नहीं हुआ तो जानना चाहिए कि उपासना की विधि में बहुत भारी भूल रह गई और नाम के साथ में काम करने वाली बात को भुला दिया गया। परिष्कृत व्यक्तित्व उपासना का दूसरा वाला पहलू है, गायत्री उपासना के संबंध में अथवा अन्यान्य उपासनाओं के संबंध में।
तीसरा, हमारा अब तक का अनुभव यह है कि उच्चस्तरीय जप और उपासनाएँ तब सफल होती हैं जबकि आदमी का दृष्टिकोण और महत्त्वाकांक्षाएँ भी ऊँची हों। घटिया उद्देश्य लेकर के, निकृष्ट कामनाएँ और वासनाएँ लेकर के अगर भगवान की उपासना की जाए और देवताओं का द्वार खटखटाया जाए, तो देवता सबसे पहले कर्मकाण्डों की विधि और विधानों को देखने की अपेक्षा यह मालूम करने की कोशिश करते हैं कि उसकी उपासना का उद्देश्य क्या है? किस काम के लिए करना चाहता है? अगर उन्हीं कामों के लिए जिसमें कि आदमी को अपनी मेहनत और परिश्रम के द्वारा कमाई करनी चाहिए, उसको सरल और सस्ते तरीके से पूरा कराने के लिए देवताओं का पल्ला खटखटाता है तो वे उसके व्यक्तित्व के बारे में समझ जाते हैं कि यह कोई घटिया आदमी है और घटिया काम के लिए हमारी सहायता चाहता है। देवता भी बहुत व्यस्त हैं। देवता सहायता तो करना चाहते हैं, लेकिन सहायता करने से पहले यह तलाश करना चाहते हैं कि हमारा उपयोग कहाँ किया जाएगा? किस काम के लिए किया जाएगा? यदि घटिया काम के लिए उसका उपयोग किया जाने वाला है, तो वे कदाचित ही कभी किसी के साथ सहायता करने को तैयार होते हैं। ऊँचे उद्देश्यों के लिए देवताओं ने हमेशा सहायता की है।
मंत्रशक्ति और भगवान की शक्ति केवल उन्हीं लोगों के लिए सुरक्षित रही है जिनका दृष्टिकोण ऊँचा रहा है। जिन्होंने किसी अच्छे काम के लिए, ऊँचे काम के लिए भगवान की सेवा और सहायता चाही है, उनको बराबर सेवा और सहायता मिली है। इन तीनों बातों को हमने प्राणपण से प्रयत्न किया और हमारी गायत्री उपासना में प्राण संचार होता चला गया। प्राण संचार अगर होगा तो हर चीज प्राणवान और चमत्कारी होती चली जाती है और सफल होती जाती है। हमने अपने व्यक्तिगत जीवन में चौबीस लाख के चौबीस साल में चौबीस महापुरश्चरण किए। जप और अनुष्ठानों की विधियों को संपन्न किया। सभी के साथ जो नियमोपनियम थे, उनका पालन किया। यह भी सही है, लेकिन हर एक को यह ध्यान रहना चाहिए कि हमारी उपासना में कर्मकाण्डों का, विधि-विधानों का जितना ज्यादा स्थान ही उससे कहीं ज्यादा स्थान इस बात के ऊपर है कि हमने उन तीन बातों को जो आध्यात्मिकता की प्राण समझी जाती हैं, उन्हें पूरा करने की कोशिश की है। अटूट श्रद्धा और अडिग विश्वास गायत्री माता के प्रति रख-करके और उसकी उपासना के संबंध में अपनी मान्यता और भावना रख करके प्रयत्न किया है और उसका परिणाम पाया हैं। व्यक्तित्व को भी जहाँ तक संभव हुआ है परिष्कृत करने के लिए पूरी कोशिश की है। एक ब्राह्मण को और एक भगवान के भक्त को जैसा जीवन जीना चाहिए, हमने भरसक प्रयत्न किया है कि उसमें किसी तरह से कमी न आने पाए। उसमें पूरी पूरी सावधानी हम बरतते रहे हैं। अपने आप को धोबी के तरीके से धोने में और धुनिये के तरीके से धुनने में हमने आगा पीछा नहीं किया है। यह हमारी उपासना को फलित और चमत्कृत बनाने का एक बहुत बड़ा कारण रहा है। उद्देश्य हमेशा से ऊँचा रहे। उपासना हम किस काम के लिए करते हैं, हमेशा यह ध्यान बना रहा। पीड़ित मानवता को ऊँचा उठाने के लिए, देश, धर्म, समाज और संस्कृति को समुन्नत बनाने के लिए हम उपासना करते हैं, अनुष्ठान करते हैं। भगवान की प्रार्थना करते हैं। भगवान ने देखा कि किस नीयत से यह आदमी कर रहा है-भगीरथ की नीयत को देखकर के गंगा जी स्वर्ग से पृथ्वी पर आने के लिए तैयार हो गई थीं और शंकर भगवान उनकी सहायता करने के लिए तैयार हो गए थे। हमारे संबंध में भी ऐसा ही हुआ। ऊँचे उद्देश्यों को सामने रख करके चले तो दैवी शक्तियों की भरपूर सहायता मिली। हमारा अनुरोध यह है कि जो कोई भी आदमी यह चाहते हों कि हमको अपनी उपासना को सार्थक बनाना है तो उन्हें इन तीनों बातों को बराबर ध्यान में रखना चाहिए।
हम देखते हैं कि अकेला बीज बोना सार्थक नहीं हो सकता। उससे फसल नहीं आ सकती। फसल कमाने के लिए बीज-एक, भूमि-दो और खाद-पानी तीन, इन तीनों चीजों की जरूरत है। निशाना लगाने के लिए बंदूक-एक, कारतूस-दो और निशाना लगा ने वाले का अध्यास तीन ये तीनों होंगी तब बात बने मूर्ति बनाने के एक पत्थर एक, छेनी हथौड़ा दो और मूर्ति बनाने की कलाकारिता तीन। लेखन कार्य के लिए कागज, स्याही और शिक्षा तीनों चीजों की जरूरत है ।मोटर चलाने के लिए मोटर की मशीन तेल और ड्राइवर तीनों चीजों की जरूरत है। इसी तरीके से उपासना के चमत्कार अगर किन्हीं को देखने हों, उपासना को सार्थकता की परख करनी हो तो इन तीनों बातों को ध्यान में रखना पड़ेगा जो हमने अभी निवेदन क्रिया उच्चस्तरीय दृष्टिकोण, परिष्कृत व्यक्तित्व और अटूट श्रद्धा विश्वास। इन तीनों को मिलाकर के जो कोई भी आदमी उपासना करेगा निश्चयपूर्वक और विश्वासपूर्वक हम कह सकते हैं कि आध्यात्मिकता के तत्त्वज्ञान का जो कुछ भी माहात्म्य बताया गया है-कि आदमी स्वयं लाभान्वित होता है, समर्थ बनता है, शक्तिशाली बनता है, शांति पाता है स्वर्ग मुक्ति जैसा लाभ प्राप्त करता है और दूसरों की सेवा सहायता करने में समर्थ होता है सही है।
गायत्री मंत्र के संबंध में हम यही प्रयोग और परीक्षण आजीवन करते रहे और पाया कि गायत्री मंत्र सही है, शक्तिमान है। सब कुछ उसके भीतर है, लेकिन है तभी जब गायत्री मंत्र के बीज को तीनों चीजों से समन्वित किया जाए। उच्चस्तरीय दृष्टिकोण, अटूट श्रद्धा-विश्वास और परिष्कृत व्यक्तित्व यह जो करेगा पूरी सफलता पाएगा। हमारे अब तक के गायत्री उपासना संबंधी अनुभव यही हैं कि गायत्री मंत्र के बारे जो तीनों बातें कही जाती हैं पूर्णतः: सही हैं। गायत्री को कामधेनु कहा जाता है, यह सही है। गायत्री को कल्पवृक्ष कहा जाता है, यह सही है। गायत्री को पारस कहा जाता है, इसको छूकर के लोहा सोना बन जाता है, यह सही है। गायत्री को अमृत कहा जाता है, जिसको पीकर के अजर और अमर हो जाते हैं, यह भी सही है। यह सब कुछ सही उसी हालत में है जबकि गायत्री रूपी कामधेनु को चारा भी खिलाया जाए, पानी पिलाया जाए, उसकी रखवाली भी की जाए। गाय को चारा आप खिलाएँ नहीं और दूध पीना चाहें तो यह कैसे संभव होगा? पानी पिलाएँ नहीं ठंड से उसका बचाव करें नहीं, तो कैसे संभव होगा? गाय दूध देती है, यह सही है, लेकिन साथ-साथ में यह भी सही है कि इसको परिपुष्ट करने के लिए, दूध पाने के लिए उन तीन चीजों की जरूरत है जो कि मैंने अभी आप से निवेदन किया। यह विज्ञान पक्ष की बात हुई। अब ज्ञानपक्ष की बात आती है। यह मेरा ७० वर्ष का अनुभव है कि गायत्री के तीन पाद तीन चरण में तीन शिक्षाएँ भरी हैं और ये तीनों शिक्षाएँ ऐसी हैं कि अगर उन्हें मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन में समाविष्ट कर सके तो धर्म और अध्यात्म का सारे का सारा रहस्य और तत्त्वज्ञान का उसके जीवन में समाविष्ट होना संभव है। तीन पक्ष त्रिपदा गायत्री हैं-(१) आस्तिकता, (२) आध्यात्मिकता, (३) धार्मिकता। इन तीनों को मिला करके त्रिवेणी संगम बन जाता है। ये क्या हैं तीनों?
पहला है आस्तिकता। आस्तिकता का अर्थ है-ईश्वर का विश्वास। भजन-पूजन तो कई आदमी कर लेते हैं, पर ईश्वर-विश्वास का अर्थ यह है कि सर्वत्र जो भगवान समाया हुआ है, उसके संबंध में यह दृष्टि रखें कि उसका न्याय का पक्ष, कर्म का फल देने वाला पक्ष इतना समर्थ है कि उसका कोई बीच-बचाव नहीं हो सकता। भगवान सर्वव्यापी है, सर्वत्र है, सबको देखता है, अगर यह विश्वास हमारे भीतर हो तो हमारे लिए पाप कर्म करना संभव नहीं होगा। हम हर जगह भगवान को देखेंगे और समझेंगे कि उसकी न्याय, निष्पक्षता हमेशा अक्षुण्ण रही है। उससे हम अपने आपका बचाव नहीं कर सकते। इसलिए आस्तिक का, ईश्वर विश्वासी का पहला क्रिया-कलाप यह होना चाहिए कि हमको कर्मफल मिलेगा, इसलिए हम भगवान से डरें। जो भगवान से डरता है उसको संसार में और किसी से डरने की जरूरत नहीं होती। आस्तिकता, चरित्रनिष्ठा और समाजनिष्ठा का मूल है। आदमी इतना धूर्त है कि वह सरकार को झुठला सकता है, कानूनों को झुठला सकता है, लेकिन अगर ईश्वर का विश्वास उसके अंत:करण में जमा हुआ है तो वह बराबर ध्यान रखेगा। हाथी के ऊपर अंकुश जैसे लगा रहता है, आस्तिकता का अंकुश हर आदमी को ईमानदार बनने के लिए, अच्छा बनने के लिए प्रेरणा करता है, प्रकाश देता है।
ईश्वर की उपासना का अर्थ है-जैसा ईश्वर महान है वैसे ही महान बनने के लिए हम कोशिश करें। हम अपने आप को भगवान में मिलाएँ। यह विराट विश्व भगवान का रूप है और हम इसकी सेवा करें, सहायता करें और इस विश्व उद्यान को समुन्नत बनाने की कोशिश करें, क्योंकि हर जगह भगवान समाया हुआ है। सर्वत्र भगवान विद्यमान है यह भावना रखने से ''आत्मवत् सर्वभूतेषु'' की भावना मन में पैदा होती है। गंगा जिस तरीके से अपना समर्पण करने के लिए समुद्र की ओर चल पड़ती है, आस्तिक व्यक्ति, ईश्वर का विश्वासी व्यक्ति भी अपने आप को भगवान में समर्पित करने के लिए चल पड़ता है। इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान की इच्छा? मुख्य हो जाती हैं। व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएँ, व्यक्तिगत कामनाएँ भगवान की भक्ति समाप्त कराती हैं और यह सिखाती हैं कि ईश्वर के संदेश, ईश्वर की आज्ञाएँ ही हमारे लिए सब कुछ होनी चाहिए। हमें अपनी इच्छा भगवान पर थोपने की अपेक्षा, भगवान की इच्छा को अपने जीवन में धारण करना चाहिए। आस्तिकता के ये बीज हमारे अंदर जमे हुए हों, तो जिस तरीके से वृक्ष से लिपटकर बेल उतनी ही ऊँची हो जाती है जितना कि ऊँचा वृक्ष है। उसी प्रकार से हम भगवान की ऊँचाई के बराबर ऊँचे चढ़ सकते हैं। जिस तरीके से पतंग अपनी डोरी बच्चे के हाथ में थमाकर आसमान में ऊँचे उड़ती चली जाती है। जिस तरीके से कठपुतली के धागे बाजीगर के हाथ में बँधे रहने से कठपुतली अच्छे से अच्छा नाच-तमाशा दिखाती है। उसी तरीके से ईश्वर का विश्वास, ईश्वर की आस्था अगर हम स्वीकार करें, हृदयंगम करें और अपने जीवन की दिशाधाराएँ भगवान के हाथ में सौंप दें अर्थात भगवान के निर्देशों को ही अपनी आकांक्षाएँ मान लें तो हमारा उच्चस्तरीय जीवन बन सकता है, और हम इस लोक में शांति और परलोक में सद्गति प्राप्त करने के अधिकारी बन सकते हैं।
आस्तिकता गायत्री मंत्र की शिक्षा का पहला वाला चरण है। इसका दूसरा वाला चरण है आध्यात्मिकता। अध्यात्मिकता का अर्थ होता है-आत्मावलम्बन, अपने आप को जानना, आत्मबोध।'आत्माऽवारेज्ञातव्य' अर्थात अपने आप को जानना। अपने आप को न जानने से-हम बाहर-बाहर भटकते रहते हैं। कई अच्छी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए, अपने दुःखों का कारण बाहर तलाश करते फिरते रहते हैं। जानते नहीं किं हमारी मन स्थिति के कारण ही हमारी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। अगर हम यह जान पाएँ, तब फिर अपने आप को सुधारने के लिए कोशिश करें। स्वर्ग और नरक हमारे ही भीतर हैं। हम अपने ही भीतर स्वर्ग दबाए हुए हैं अपने ही भीतर नरक दबाए हुए हैं। हमारी मन की स्थिति के आधार पर ही परिस्थितियाँ बनती हैं। कस्तूरी का हिरण चारों तरफ खुशबू की तलाश करता फिरता था, लेकिन जब उसको पता चला कि वह तो नाभि में ही है, तब उसने इधर-उधर भटकना त्याग दिया और अपने भीतर ही ढूँढ़ने लगा। फूल जब खिलता है तब भरि आते ही हैं,तितलियों आती हैं। बादल बरसते तो हैं लेकिन जिसके आँगन में जितना पात्र होता है, उतना ही पानी देकर के जाते हैं। चट्टानों के ऊपर बादल बरसते रहते हैं, लेकिन घास का एक तिनका भी पैदा नहीं होता। छात्रवृत्ति उन्हीं को मिलती है जो अच्छे नंबर से पास होते हैं। संसार में सौंदर्य तो बहुत हैं पर हमारी आँख न हो तो उसका क्या मतलब? संसार में संगीत गायन तो बहुत हैं, शब्द बहुत हैं, पर हमारे कान न हों, तो उन शब्दों का क्या मतलब? संसार में ज्ञान-विज्ञान तो बहुत हैं, पर हमारा मस्तिष्क न हो तो उसका क्या मतलब ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं। इसलिए आध्यात्मिकता का संदेश यह है कि हर आदमी को अपने आप को देखना, समझना, सुधारने के लिए भरपूर प्रयत्न करना चाहिए। अपने आपको हम जितना सुधार लेते हैं,उतनी ही परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल बनती चली जाती हैं। यह सिद्धांत गायत्री मंत्र का दूसरा वाला चरण है।
तीसरा वाला चरण गायत्री मंत्र का है धार्मिकता। धार्मिकता का अर्थ होता है-कर्तव्यपरायणता, कर्तव्यों का पालन। कर्तृत्व, कर्म और धर्म लगभग एक ही चीज हैं। मनुष्य में और पशु में सिर्फ इतना ही अंतर है कि पशु किसी मर्यादा से बँधा हुआ नहीं है। मनुष्य के ऊपर हजारों मर्यादाएँ और नैतिक नियम बाँधे गए हैं और जिम्मेदारियाँ लादी गई हैं। जिम्मेदारियों को और कर्तव्यों को पूरा करना मनुष्य का कर्तव्य है। शरीर के प्रति हमारा कर्तव्य है कि इसको हम नीरोग रखें। मस्तिष्क के प्रति हमारा कर्तव्य है कि इसमें अवांछनीय विचारों को न आने दें। परिवार के प्रति हमारा कर्तव्य है कि उनको सद्गुणी बनाएँ। देश, धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हमारा कर्तव्य है कि उन्हें भी समुन्नत बनाने के लिए भरपूर ध्यान रखें। लोभ और मोह के पास से अपने आप को छुड़ा करके अपनी जीवात्मा का उद्धार करना, यह भी हमारा कर्तव्य है और भगवान ने जिस काम के लिए हमको इस संसार में भेजा है, जिस काम के लिए मनुष्य योनि में जन्म दिया है, उस काम को पूरा करना भी हमारा कर्तव्य है। इन सारे के सारे कर्तव्यों को अगर हम ठीक तरीके से पूरा न कर सके तो हम धार्मिक कैसे कहला सकेंगे?
धार्मिकता का अर्थ होता है-कर्तव्यों का पालना। हमने सारे जीवन में गायत्री मंत्र के बारे में जितना भी विचार किया, शास्त्रों को पढ़ा, सत्संग किया, चिंतन-मनन किया, उसका सारांश यह निकला कि बहुत सारा विस्तार ज्ञान का है, बहुत सारा विस्तार धर्म और अध्यात्म का है, लेकिन इसके सार में तीन चीजें समाई हुई हैं-(१) आस्तिकता अर्थात ईश्वर का विश्वास, (२) आध्यात्मिकता अर्थात स्वावलंबन, आत्मबोध और अपने आप को परिष्कृत करना, अपनी जिम्मेदारियों को स्वीकार करना और (३) धार्मिकता अर्थात कर्तव्यपरायणता। कर्तव्य परायण, स्वावलंबी और ईश्वरपरायण कोई भी व्यक्ति गायत्री मंत्र का उपासक कहा जा सकता है और गायत्री मंत्र के ज्ञानपक्ष के द्वारा जो शांति और सद्गति मिलनी चाहिए उसका अधिकारी बन सकता है। हमारे जीवन के यही निष्कर्ष हैं विज्ञान पक्ष में तीन धाराएँ और ज्ञानपक्ष में तीन धाराएँ, इनको जो कोई प्राप्त कर सकता हो, गायत्री मंत्र की कृपा से निहाल बन सकता है और ऊँची से ऊँची स्थिति प्राप्त करके इसी लोक में स्वर्ग और मुक्ति का अधिकारी बन सकता है। ऐसा हमारा अनुभव, ऐसा हमारा विचार और ऐसा हमारा विश्वास है।