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तारा महाविद्या katha tara mahavidha katha

तारा महाविद्या katha tara mahavidha katha

महाविद्यायों में द्वितीय स्थान पर विद्यमान 'तारा', मोक्ष दात्री।

ॐ प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासा परा
खड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा,
खर्वा नीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युता
जाड्यन्न्यस्य कपालिके त्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं

सर्व विघ्नों का नाश करने वाली महाविद्या तारा, स्वयं भगवान शिव को अपना स्तन दुग्ध पान करा, पीड़ा मुक्त करने वाली।

'आद्या शक्ति महा-काली' ने, हयग्रीव नमक दैत्य के वध हेतु नीला वर्ण धारण किया तथा वे उग्र तारा के नाम से जानी जाने लगी। ये शक्ति, प्रकाश बिंदु के रूप, आकाश के तारे की तरह स्वरूप में विद्यमान हैं, फलस्वरूप देवी तारा नाम से विख्यात हैं। आद्या शक्ति काली का ये स्वरूप सर्वदा मोक्ष प्रदान करने वाली तथा अपने भक्तों को समस्त प्रकार के घोर संकटो से मुक्ति प्रदान करने वाली हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध मुक्ति से हैं, फिर वो जीवन और मरण रूपी चक्र हो या अन्य किसी प्रकार के संकट मुक्ति हेतु। भगवान शिव द्वारा, समुद्र मंथन के समय हलाहल विष का पान करने पर, उनके शारीरिक पीड़ा (जलन) के निवारण हेतु, इन्हीं देवी 'तारा' ने माता के स्वरूप मैं शिव को अपना अमृतमय दुग्ध स्तन पान कराया। फलस्वरूप, भगवान शिव को समस्त प्रकार शारीरिक पीड़ा से मुक्ति मिली, ये जगत जननी माता के रूप में तथा घोर से घोर संकटो कि मुक्ति हेतु प्रसिद्ध हुई। देवी के भैरव, हलाहल विष का पान करने वाले अक्षोभ्य शिव हुए, जिनको उन्होंने अपना दुग्ध स्तन पान कराया। जिस प्रकार इन महा शक्ति ने, शिव के शारीरक कष्ट का निवारण किया, वैसे ही ये देवी अपने उपासको के घोर कष्टो और संकट का निवारण करने मैं समर्थ हैं तथा करती हैं। मुख्यतः देवी की आराधना, साधना मोक्ष प्राप्त करने हेतु, वीरा चार या तांत्रिक पद्धति से की जाती हैं। संपूर्ण ब्रह्माण्ड में, जितना भी ज्ञान इधर उधर फैला हुआ हैं, वे सब इन्हीं देवी का स्वरूप ही हैं। देवी का निवास स्थान घोर महा श्मशान हैं, जहाँ सर्वदा चिता जलती रहती हो तथा ज्वलंत चिता के ऊपर, देवी नग्न अवस्था या बाघाम्बर पहन कर खड़ी हैं। देवी, नर खप्परों तथा हड्डीओं के मालाओं से अलंकृत हैं तथा सर्पो को आभूषण के रूप में धारण करती हैं। तीन नेत्रों वाली देवी उग्र तारा स्वरूप से अत्यंत ही भयानक प्रतीत होती हैं।

देवी तारा अपने मुख्य तीन स्वरूप से विख्यात हैं, उग्र तारा, नील सरस्वती तथा एक-जटा।

प्रथम 'उग्र तारा', अपने उग्र तथा भयानक रूप से जनि जाती हैं। देवी का यह स्वरूप अत्यंत उग्र तथा भयानक हैं, ज्वलंत चिता के ऊपर, शव रूपी शिव या चेतना हीन शिव के ऊपर, देवी प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी हैं। उग्र तारा, तमो गुण सम्पन्न हैं। देवी उग्र तारा, अपने साधको, भक्तों को कठिन से कठिन परिस्थितियों में पथ प्रदर्शित तथा छुटकारा पाने में सहायता करती हैं।

द्वितीय 'नील सरस्वती, देवी इस स्वरुप में संपूर्ण ब्रह्माण्ड के समस्त ज्ञान कि ज्ञाता हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में, जो भी ज्ञान ईधर-उधर बिखरा हुआ पड़ा हैं, उन सब को एकत्रित करने पर जिस ज्ञान की उत्पत्ति होती हैं, वे ये देवी नील सरस्वती ही हैं। इस स्वरूप में देवी राजसिक या रजो गुण सम्पन्न हैं। देवी परम ज्ञानी हैं, अपने असाधारण ज्ञान के परिणाम स्वरूप, ज्वलंत चिता के शव को शिव स्वरूप में परिवर्तित करने में समर्थ हैं।
एकजटा, देवी तारा के तीसरे स्वरूप न नाम हैं, पिंगल जटा जुट वाली ये देवी सत्व गुण सम्पन्न हैं तथा अपने भक्त को मोक्ष प्रदान करती हैं मोक्ष दात्री हैं। ज्वलंत चिता मैं सर्वप्रथम देवी तारा, उग्र तारा के रूप में खड़ी हैं, द्वितीय नील सरस्वती देवी शव को जीवित शिव बनाने में सक्षम हैं तथा तीसरे स्वरूप में देवी एकजटा जीवित शिव को अपने पिंगल जटा में धारण करती हैं या मोक्ष प्रदान करती हैं। देवी अपने भक्तों को मृत्युपरांत, अपनी जटाओं में विराजित अक्षोभ्य शिव के साथ स्थान प्रदान करती हैं या कहे तो मोक्ष प्रदान करती हैं।

देवी अन्य आठ स्वरूपों में 'अष्ट तारा' समूह का निर्माण करती है तथा जानी जाती हैं,

१. तारा
२. उग्र तारा
३. महोग्र तारा
४. वज्र तारा
५. नील तारा
६. सरस्वती
७. कामेश्वरी
८. भद्र काली

सभी स्वरूप गुण तथा स्वभाव से भिन्न भिन्न है तथा भक्तों की समस्त प्रकार के मनोकामनाओ को पूर्ण करने में समर्थ तथा सक्षम हैं।

देवी उग्र तारा के स्वरुप वर्णन का वर्णन।

देवी तारा, प्रत्यालीढ़ मुद्रा (जैसे की एक वीर योद्धा, अपने दाहिने पैर आगे किये युद्ध लड़ने हेतु उद्धत हो) में, प्रेत या चेतना रहित शिव के आसन पर आरूढ़ हैं। देवी, मस्तक में पंच कपालो से सुसज्जित हैं, नील कमल के समान तीन नेत्रों से युक्त, उन्नत स्तन मंडल तथा नूतन मेघ के सामन कांति वाली, विकट दन्त पंक्ति तथा घोर अटृहास करने के कारण देवी का स्वरूप अत्यंत उग्र प्रतीत होता हैं। देवी का स्वरूप बहुत डरावना और भयंकर हैं, तथा वास्तविक रूप से देवी एक ज्वलंत चिता के ऊपर रखी हुई शव पर आरूढ़ हैं। देवी तारा ने अपना दाहिना पैर, शव रूपी शिव के छाती पर रखा हैं। देवी घोर नील वर्ण की हैं, महा-शंख (मानव खोपड़ियों) की माला धारण किये हुए हैं, वह छोटे कद की हैं तथा कही-कही देवी अपनी लज्जा निवारण हेतु बाघाम्बर धारण करती हैं। देवी की आभूषण तथा पवित्र यज्ञोपवीत सर्प हैं, रुद्राक्ष तथा हड्डीओं की बानी हुई आभूषणनों को भी, देवी धारण करती हैं। वह अपनी छोटी लपलपाती हुई जीभ मुँह से बाहर निकले हुए तथा अपने विकराल दन्त पंक्तियो से दबाये हुए हैं। देवी के शरीर से सर्प लिपटे, सिर के बाल चारों ओर उलझे हुए भयंकर प्रतीत होते हैं। देवी चार हाथो से युक्त हैं तथा नील कमल, खप्पर (मानव खोपड़ी से निर्मित कटोरी), कैंची और तलवार धारण करती हैं। देवी, सर्वदा ज्वलंत चिता या जहाँ सर्वदा ही चिता जलती रहती हैं, हड्डियाँ, खोपड़ी इत्यादि इधर उधर बिखरी पड़ी हुई श्मशान में निवास करती हैं।

देवी तारा के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा।

स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, देवी तारा की उत्पत्ति मेरु पर्वत के पश्चिम भाग में, चोलना नदी के तट पर हुई। हयग्रीव नाम के दैत्य के वध हेतु महा काली ने ही, नील वर्ण धारण किया। महाकाल संहिता के अनुसार, देवी चैत्र शुक्ल अष्टमी तारा अष्टमी कहलाती हैं, इस दिन देवी की उत्पत्ति हुई, चैत्र शुक्ल नवमी की रात्रि तारा-रात्रि कहलाती हैं।

एक और उत्पत्ति संदर्भ कथा तारा-रहस्य नमक तंत्र ग्रन्थ से प्राप्त होता हैं; भगवान विष्णु के अवतार, राम द्वारा लंका पति दानव राज दशानन रावण का वध हुआ।

सर्वप्रथम स्वर्ग-लोक के रत्नद्वीप में वैदक कल्पोक्त तथ्यों तथा वाक्यों को देवी काली के मुख से सुनकर, शिव जी अपनी पत्नी काली पर बहुत प्रसन्न हुए। शिव जी ने महाकाली से पूछा, आदि काल में अपने, भयंकर मुख वाले रावण का विनाश किया, तब आश्चर्य मय आप का वो रूप तारा नाम से विख्यात हुआ। समस्त देवताओं ने आप की स्तुति की थी, तथा आप अपने हाथों में खड़ग, नर मुंड, वार तथा अभय मुद्रा धारण की हुई थी, मुख से चंचल जिह्वा बहार कर आप भयंकर रुपवाली प्रतीत हो रही थी। आप का वो विकराल रूप देख सभी देवता भय से आतुर हो काँप रहे थे। देवी के विकराल भयंकर रुद्र रूप को देख, उन्हें शांत करने के निमित्त ब्रह्मा जी के पास गए। समस्त देवताओं को ब्रह्मा जी के साथ देख, देवी लज्जित हो अपने खड़ग से लज्जा निवारण की चेष्टा करने लगी। रुद्र रूप में देवी नग्न हो गए थी तथा लज्जा निवारण हेतु, ब्रह्मा जी ने उन्हें व्याघ्र चर्म प्रदान किया। इसी रूप में देवी लम्बोदरी के नाम से विख्यात हुई। इस कथा के अनुसार, भगवान राम केवल निमित्त मात्र ही थे, वास्तव में भगवान राम की विध्वंसक शक्ति देवी तारा ही थी, जिन्होंने लंका पति रावण का वध किया।

देवी तारा से सम्बंधित अन्य तथ्य।

सर्वप्रथम वसिष्ठ मुनि ने देवी तारा कि आराधना की, परिणाम स्वरूप देवी वसिष्ठाराधिता के नाम से भी जानी जाती हैं। सर्वप्रथम मुनिराज ने देवी तारा की उपासना वैदिक पद्धति से कि परन्तु, मुनि देवी की कृपा प्राप्त करने में सफल नहीं हो सके। अलौकिक शक्तिओ से उन्हें ज्ञात हुआ की देवी की आराधना का क्रम चीन देश में रहने वाले भगवान बुद्ध को ज्ञात हैं, उन के पास जाये तथा आराधना का सही क्रम जान कर देवी तारा की उपासना करे। तदनंतर वसिष्ठ मुनि ने चीन देश की यात्रा की तथा भगवान बुद्ध से आराधना का सही क्रम ज्ञात किया, जिसे चिनाचार पद्धति, वीर भाव या आगमोक्ता पद्धति (तंत्र) कहा गया। भगवान बुद्ध के आदेश अनुसार उन्होंने चिनाचार पद्धति से देवी की आराधना की तथा देवी कृपा लाभ में वो सफल हुऐ। बंगाल प्रान्त के बीरभूम जिले में वो स्थान आज भी विद्यमान हैं, जहाँ मुनिराज ने देवी की आराधना की थी, जिसे जगत जननी तारा माता के सिद्ध पीठ 'तारा पीठ' के नाम से जाना जाता हैं।

तारा नाम के रहस्य से ज्ञात होता हैं, ये तारने वाली हैं, मोक्ष प्रदाता हैं। जीवन तथा मृत्यु के चक्र से तारने हेतु, देवी के नाम रहस्य को उजागर करता हैं। महाविद्याओं में देवी दूसरे स्थान पर हैं तथा देवी अपने भक्तों को वाक्-शक्ति प्रदान करने में, भयंकर विपत्तिओ से अपने भक्तों की रक्षा करने में समर्थ हैं। शत्रु नाश, भोग तथा मोक्ष, वाक् शक्ति प्राप्ति हेतु देवी कि साधना विशेष लाभकारी सिद्ध होती हैं। तंत्रोक्त पद्धति से साधना करने पर ही देवी की कृपा प्राप्त की जा सकती हैं।

देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध तथा निवास स्थान श्मशान भूमि से हैं। साथ ही श्मशान से सम्बंधित समस्त वस्तुओं, तत्वों से भी सम्बन्ध हैं। मृत देह, हड्डी, चिता, चिता भस्म, भूत, प्रेत, कंकाल, खोपड़ी, उल्लू, कुत्ता, लोमड़ी से इन का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। देवी गुण तथा स्वभाव से बहुत कुछ महा काली से मिलती हुई हैं।

उग्र तारा रूप में देवी, अपने भक्तों के जीवन में व्याप्त हर कठिन परिस्थितियों से रक्षा करती हैं। देवी तारा के साधक, समस्त प्रकार के सिद्धियो के साथ, गद्ध-पद्ध-मयी वाणी साधक के मुख का कभी परित्याग नहीं करती हैं, त्रिलोक मोहन, सुवक्ता, विद्याधर, समस्त जगत को क्षुब्ध तथा हल-चल पैदा करने में साधक पूर्णतः समर्थ होता हैं। कुबेर के धन के समान धनवान्, निश्चल भाव से लक्ष्मी वास तथा काव्य-आगम आदि शास्त्रों में शुक तथा बृहस्पति के तुल्य हो जाते हैं, मूर्ख या जड़ भी बृहस्पति के समान हो जाता हैं। साधक ब्रह्म-वेत्ता होने का सामर्थ रखता हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव के की साम्यता को प्राप्त कर, समस्त पाशो से मुक्त हो, ब्रह्मरूप को प्राप्त करते हैं। पशु भय वाले संसार से मुक्त या अष्ट पाशों (घृणा, लज्जा, भय, शंका, जुगुप्सा, कुल, शील तथा जाति) में बंधे हुए पशु आचरण से मुक्त हो, मोक्ष (तारिणी पद) को प्राप्त करने में समर्थ होता हैं।

देवी काली तथा तारा में समानतायें।

देवी काली ही, नील वर्ण धारण करने के कारण तारा नाम से जानी जाती हैं तथा दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। जैसे दोनों शिव रूपी शव पर प्रत्यालीढ़ मुद्रा धारण किये हुए आरूढ़ हैं, दोनों का निवास स्थान श्मशान भूमि हैं, दोनों देविओ की जिह्वा मुँह से बाहर हैं, दोनों रक्त प्रिया हैं, भयानक तथा डरावने स्वरूप वाली हैं, भूत-प्रेतों से सम्बंधित हैं, दोनों देविओ का वर्ण गहरे रंग का हैं एक गहरे काले वर्ण की हैं तथा दूसरी गहरे नील वर्ण की। दोनों देवियाँ नग्न विचरण करने वाली हैं, कही कही देवी काली कटे हुई हाथों की करधनी धारण करती हैं, नर मुंडो की माला धारण करती हैं तो देवी तारा व्यग्र चर्म धारण करती हैं तथा नर खप्परों की माला धारण करती हैं। दोनों की साधना तंत्रानुसार पंच-मकार विधि से की जाती हैं, सामान्यतः दोनों एक ही हैं इनमें बहुत काम भिन्नताएं दिखते हैं। दोनों देविओ का वर्णन शास्त्रानुसार शिव पत्नी के रूप में किया गया हैं तथा दोनों के नाम भी एक जैसे ही हैं जैसे, हर-वल्लभा, हर-प्रिया, हर-पत्नी इत्यादि, 'हर' भगवान शिव का एक नाम हैं। परन्तु देवी तार ने ही, भगवान शिव को बालक रूप में परिवर्तित कर, अपना स्तन दुग्ध पान कराया था। समुद्र मंथन के समय, कालकूट विष का पान करने के परिणाम स्वरूप, भगवान शिव के शरीर में जलन होने लगी तथा वो तड़पने लगे, देवी ने उन के शारीरिक कष्ट को शांत करने हेतु अपने अमृतमय स्तन दुग्ध पान कराया। देवी काली के सामान ही देवी तारा का सम्बन्ध निम्न तत्वों से हैं।

श्मशान वासिनी या वासी :तामसिक, विध्वंसक प्रवृत्ति से सम्बंधित रखने वाले देवी देवता, मुख्यतः श्मशान भूमि में वास करते हैं। व्यवहारिक दृष्टि से श्मशान वो स्थान हैं, जहाँ शव के दाह का कार्य होता हैं। परन्तु आध्यात्मिक या दार्शनिक दृष्टि से श्मशान का अभिप्राय कुछ और ही हैं, ये वो स्थान हैं, जहाँ पंच या पञ्च महाभूत, चिद-ब्रह्म में विलीन होते हैं। आकाश, पृथ्वी, जल, वायु तथा अग्नि इन महा भूतो से, संसार के समस्त जीवो के देह का निर्माण होता हैं, तथा शरीर या देह इन्हीं पंच महाभूतों का मिश्रण हैं। श्मशान वो स्थान हैं जहाँ, पांचो भूतो के मिश्रण से निर्मित देह, अपने अपने तत्व में मिल जाते हैं। तामसी गुण से सम्बद्ध रखने वाले देवी-देवता, श्मशान भूमि को इसी कारण वश अपना निवास स्थान बनाते हैं। देवी काली, तारा, भैरवी इत्यादि देवियाँ श्मशान भूमि को अपना निवास स्थान बनती हैं, इसका एक और महत्त्वपूर्ण कारण हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से श्मशान विकार रहित ह्रदय या मन का प्रतिनिधित्व करता हैं। मानव देह कई प्रकार के विकारो का स्थान हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, स्वार्थ इत्यादि, अतः देवी उसी स्थान को अपना निवास स्थान बनती हैं जहाँ इन विकारो या व्यर्थ के आचरणों का दाह होता हैं। तथा मन या ह्रदय वो स्थान हैं जहाँ इन समस्त विकारो का दाह होता हैं अतः देवी काली अपने उपासको के विकार शून्य ह्रदय पर ही वास करती हैं।

चिता : मृत देह के दाह संस्कार हेतु, लकड़ियों के ढेर के ऊपर शव को रख कर जला देना, चिता कहलाता हैं। साधक को अपने श्मशान रूपी ह्रदय में सर्वदा ज्ञान रूपी अग्नि जलाये रखना चाहिए, ताकि अज्ञान रूपी अंधकार को दूर किया जा सके।

देवी का आसन : देवी शव रूपी शिव पर विराजमान हैं या कहे तो शव को अपना आसन बनाती हैं, जिसके परिणाम स्वरूप ही शव में चैतन्य का संचार होता हैं। बिना शक्ति के शिव, शव के ही सामान हैं, चैतन्य हीन हैं। देवी की कृपा लाभ से ही, देह पर प्राण रहते हैं।

करालवदना या घोररूपा : देवी काली का वर्ण घनघोर या अत्यंत काला हैं तथा स्वरूप से भयंकर तथा डरावना हैं। परन्तु देवी के साधक या देवी जिन के ह्रदय में स्थित हैं, उन्हें डरने के आवश्यकता नहीं हैं, स्वयं काल या यम भी देवी से भय-भीत रहते हैं।

पीनपयोधरा : देवी काली के स्तन बड़े तथा उन्नत हैं, यहाँ तात्पर्य हैं कि देवी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से तीनो लोको का पालन करती हैं। अपने अमृतमय दुग्ध को आहार रूप में दे कर देवी अपने साधक को कृतार्थ करती हैं।

प्रकटितरदना : देवी काली के विकराल दन्त पंक्ति बहार निकले हुए हैं तथा उन दाँतो से उन्होंने अपने जिह्वा को दबा रखा हैं। यहाँ देवी रजो तथा तमो गुण रूपी जिह्वा को, सत्व गुण के प्रतिक उज्वल दाँतो से दबाये हुऐ हैं।

मुक्तकेशी : देवी के बाल, घनघोर काले बादलो की तरह बिखरे हुए हैं और ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे कोई भयंकर आँधी आने वाली हो।
संक्षेप में देवी तारा से सम्बंधित मुख्य तथ्य।

मुख्य नाम : तारा।
अन्य नाम : उग्र तारा, नील सरस्वती, एकजटा।
भैरव : अक्षोभ्य शिव, बिना किसी क्षोभ के हल हल विष का पान करने वाले।
भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान राम।
कुल : काली कुल।
दिशा : पूर्व।
स्वभाव : सौम्य उग्र, तामसी गुण सम्पन्न।
वाहन : गीदड़।
तीर्थ स्थान या मंदिर : तारापीठ, रामपुरहाट, बीरभूम, पश्चिम बंगाल।
कार्य : मोक्ष दात्री, भव-सागर से तारने वाली, जन्म तथा मृत्यु रूपी चक्र से मुक्त करने वाली।
शारीरिक वर्ण : नीला।

द्वितीय महाविद्या तारा की कृपा से सभी शास्त्रों का पांडित्य, कवित्व प्राप्त होता हैं, बृहस्पति के समान ज्ञानी हो जाता हैं। वाक् सिद्धि प्रदान करने से ये नील सरस्वती कही जाती हैं, सुख तथा मोक्ष प्रदान करने के कारण तारा तथा उग्र आपत्ति हरण करने के कारण इन्हें उग्र तारा कहा जाता हैं।

देवी की साधना एकलिंग शिव मंदिर में (पाँच कोस क्षेत्र के मध्य एक शिव-लिंग, श्मशान भूमि में, शून्य गृह में, चौराहे, शवासन, मुंडों के आसन, गले तक जल में खड़े हो कर, वन में, तारिणी देवी की साधना का शास्त्रों में विधान हैं। इन स्थानों पर देवी की साधना शीघ्र फल प्रदायक होती हैं, विशेषकर सर्व शास्त्र वेत्ता होकर परमोक में ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करता हैं।

लक्ष्मी, सरस्वती, रति, प्रीति, कीर्ति, शांति, तुष्टि, पुष्टि रूपी आठ शक्तियां नील सरस्वती की पीठ शक्ति मानी जाती हैं, देवी का वाहन शव हैं।

ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर, सदाशिव तथा परमशिव को षट्-शिव (६ शिव) कहा जाता हैं।

तारा, उग्रा, महोग्रा, वज्रा, काली, सरस्वती, कामेश्वरी तथा चामुंडा ये अष्ट तारा नाम से विख्यात हैं। देवी के मस्तक में स्थित अक्षोभ्य शिव अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

महा शंख माला जो मनुष्य के ललाट के हड्डियों की माला से निर्मित होती हैं तथा जिस में ५० मणियाँ होती हैं। कान तथा नेत्र के बीज के भाग को या ललाट का भाग महाशंख कहलाता हैं, इस माला का स्पर्श तुलसी, गोबर, गंगा-जल तथा शालग्राम से कभी नहीं करना चाहिये।

उग्र तारा, जगत जननी माता से सम्बन्धित तंत्र शक्तिपीठ, तारापीठ।

ॐ प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासा परा
खड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा,
खर्वा नीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युता
जाड्यन्न्यस्य कपालिके त्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं

भव-सागर से तारने वाली,
जन्म तथा मृत्यु के बंधन से मुक्त कर,
मोक्ष प्रदान करने वाली देवी से सम्बद्ध शक्तिपीठ "तारापीठ"।

भगवती काली, नीली स्वरूप में तारा नाम विख्यात हैं, 'तारा' अर्थात भव सागर से तारने वाली, जन्म तथा मृत्यु के बंधन से मुक्त कर, मोक्ष प्रदान करने वाली। विषम परिस्थितियों में भय मुक्त करने वाली, भक्तों की रक्षा कर समस्त सांसारिक चिंताओं से मुक्ति देने वाली, 'उग्रतारा' के नाम से विख्यात हैं। भगवती तारा, अत्यंत उज्ज्वल प्रकाश बिंदु रुप में, आकाश के तारे के सामान, संपूर्ण ब्रह्मांड मे व्याप्त हैं। तथा ब्रह्मांड में व्याप्त सभी प्रकार के ज्ञान के रुप में, देवी नील सरस्वती नाम से जानी जाती हैं। इन्हीं, भव-सागर से तारने वाली जगत जननी देवी तारा से सम्बद्ध शक्ति पीठ, तारापीठ के नाम से विख्यात हैं। यहाँ देवी, से सम्बंधित एक भव्य मंदिर तथा महा श्मशान हैं तथा बंगाल के बीरभूम जिले में यह सिद्ध पीठ विद्यमान हैं। मान्यता हैं, कि तारापीठ का सम्बन्ध, भगवान शिव की प्रथम पत्नी सती, के अपने पिता के यज्ञ आयोजन में देह त्याग के पश्चात्, शिव द्वारा सती के शव को कंधे पर रख तांडव नृत्य करने पर तीनो लोको के विध्वंस देख, भगवान विष्णु द्वारा अपने सुदर्शन चक्र से सती के मृत देह के टुकड़े करने से हैं। इस स्थान पर देवी का तीसरा नेत्र पतित हुआ था, जो क्रोधित होने या उग्र रूप का प्रतिक हैं। समुद्र मंथन के समय जब "कालकूट विष" निकला, उसे बिना किसी क्षोभ या शंका के, उस हलाहल विष को पीने वाले भगवान शिव ही 'अक्षोभ्य' के नाम से जाने जाते हैं और उनके साथ देवी तारा विराजमान हैं। शिव शक्ति संगम तंत्र में अक्षोभ्य शब्द का अर्थ महादेव को कहा गया हैं। अक्षोभ्य को दृष्टा ऋषि शिव कहा गया है। अक्षोभ्य शिव या ऋषि को मस्तक पर धारण करने वाली देवी तारा, तारिणी अर्थात भव बंधन तथा समस्त प्रकार के समस्याओं से तारने वाली हैं। उनके मस्तक पर स्थित पिंगल वर्ण, उग्र जटा का भी अद्भुत रहस्य हैं। फैली हुई उग्र पीली जटाएं सूर्य की किरणों की प्रतिरूपा हैं, देवी का यह स्वरूप एकजटा के नाम से विख्यात हैं। इस प्रकार अक्षोभ्य यानी भगवान शिव एवं पिंगोगै्रक जटा धारिणी उग्र तारा, "एकजटा" के रूप में जानी जाती हैं। वे ही उग्र तारा शव के हृदय पर चरण रखकर उस शव को शिव मैं परिवर्तित करने वाली "नील सरस्वती" हो जाती हैं। तारा मां श्मशान वासिनि तथा अत्यन्त ही भयंकर स्वरूप वाली हैं, जलते हुऐ चिता, पर देवी प्रत्यालिङ मुद्रा (जैसे एक वीर योद्धा युद्ध के लिये दाहिने पैर आगे बढ़ाये हुऐ) पर खङी हुई हैं। मां तारा अज्ञान रूपी शव पर प्रत्यालिङ मुद्रा में विराजमान हैं और उस शव को ज्ञान रूपी शिव में परिवर्तित कर अपने मस्तक पर धारण किए हुए हैं जिन्हें अक्ष्योभ शिव या ऋषि के नाम से जाना जाता हैं। ऐसी असदाहरण शक्ति और विद्या कि ज्ञाता हैं, देवी तारा। मां की अराधना विशेषतः मोक्ष पाने के लिए कि जाती हैं, देवी मां मोक्ष दायिनी हैं। देवी मां भोग और मोक्ष एक साथ भक्त को प्रदान करती हैं। परन्तु व्यवहारिक दृष्टि से मां का स्वरूप अत्यन्त ही भयंकर होते हुऐ भी, स्वाभाव अत्यंत ही कोमल ऐव्मं सरल हैं। ऐसा इस संसार में कुछ भी नहीं हैं जो मां अपने भक्तों या साधको को प्रदान करने में असमर्थ हैं। तारा कुल कि तिन देवीयों में, नील सरस्वती, अनेको सरस्वती कि जननी हैं, ब्रह्माण्ड में जो भी ज्ञान ईधर-उधर बटा हुआ हैं, उसे एक जगह संयुक्त करने पर मां नील सरस्वती की उत्पत्ति होती हैं, देवी मां अपने अन्दर सम्पूर्ण ज्ञान समाये हुए हैं, फलस्वरूप देवी मां का भक्त प्ररम ज्ञानी हो जाता हैं, मूर्ख या जड़ भी वाचस्पति हो जाता हैं।

वसिष्ठ मुनि द्वारा चीन देश की यात्रा तथा भगवान बुद्ध द्वारा मुनि को, तारा साधना हेतु मार्गदर्शन।

सत्य युग में ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र वशिष्ठ को तारा मन्त्र कि दिक्षा दी तथा मंत्र सिद्ध कर, देवी तारा कृपा लाभ प्राप्त करने की आज्ञा दी। पिता के अज्ञा अनुसार वशिष्ठ निलान्चल पर्वत (कामाख्या) पर आये और माँ तारा कि साधना करने लगे, सर्वप्रथम महर्षि वशिष्ठ ने भगवती तारा की वैदिक रीति से आराधना की, परन्तु वो सफल नहीं हो पाये। बार बार असफलता के कारण विरक्त हो, उन्होंने तारा मंत्र को श्रापित कर दिया। तदनंतर आकाश-वाणी हुई कि, “वशिष्ठ तुम मेरे साधना के स्वरूप को नहीं जानते हो, चिन देश जाओ, वहाँ बुद्ध मुनि होंगे, उन से मेरे सधना का सही और उपयुक्त क्रम जान कर, मेरी अराधना करो”। उस समय केवल भगवान बुद्ध ही इस विद्या के आचार्य माने जाते थे। वशिष्ठ मुनि ने चिन देश कि यात्रा की, वहाँ जा कर मुनि ने देखा कि बुद्ध मुनि, मदिरा, माँस, मत्स्य, नृत्य करती हुई नर्तकियो में आसक्त हैं, यह सब देख वो वहाँ से वापस लौटने लगे। लौटते हुऐ मुनि को देख, भगवान बुद्ध ने उन्हें रुकने के लिये कहा तथा पीछे मुड़ जब वशिष्ठ मुनि ने देखा, तो वे चकित रह गये। बुद्ध मुनि शान्त ध्यान योग में, आसन लगा कर बैठे थे, उसी तरह नर्तकियां भी योग आसन लगा कर बैठी थीं, मदिरा, माँस, मत्स्य आदी सभी सामग्री, पूजन सामग्री में परिवर्तित हो गयी थी।

बुद्ध मुनि अन्तर्यामि थे, उन्होंने वशिष्ठ मुनि को उपदेश दिया, बैधनाथ धाम के १० जोजन पूर्व, वक्रेश्वर के ४ जोजन ईशान, जहन्वी के ४ जोजन पश्चिम, उत्तर वाहिनी द्वारका नदी के पूर्व, देवी सति का उर्ध नयन तारा (ज्ञान रूपी नेत्र) स्थापित हैं, जहाँ पन्च मुण्डी आसन (आकाल मृत्यु को प्रप्त हुऐ मनुष्य, कृष्ण सर्प, लंगुर, हाथी और उल्लू की खोपड़ी से बना हुअ आसन) बना, उस स्थान पर मां के मन्त्र का ३ लाख जप करो,

वशिष्ठ मुनि ने बुद्ध मुनि के क्रम अनुसार मां कि पूजा, अराधना, साधना की, साथ श्वेत शेमल वृक्ष के नीचे पन्च मुण्डी आसन का निर्माण कर, ३ लाख मन्त्रो का जाप किया। फ़लस्वरुप उन्हें देवी मां ने एक ज्योति के रुप में दर्शन दिया और कहा तुम किस रुप में मेरी दर्शन करना चाहते हो, वशिष्ठ मुनि ने कहा, आप जगत जननी है, में अप के जगत जननी के रुप में हि दर्शन चाहता हुँ। देवी मां ने वशिष्ठ मुनि को, भगवान शिव को बालक रुप में, अपना दुग्ध स्तन पान करते हुए दर्शन दिये। (समुद्र मंथन के समय जब कालकूट विष निकला तो बिना किसी क्षोभ के उस हलाहल विष का पान भगवान शिव ने किया, परिणामस्वरूप शिव के पूरे शरीर में असहनीय जलन होने लगी। तदनंतर इन्हीं तारा मां ने जगत जननी का परिचय देते हुए, भगवान शिव को बालक बना दिया और अपना दुग्ध स्तन पान कराया, जिस से शिव के शरीर की जलन शांत हुई।) मां ने वशिष्ठ मुनि से वर मांगने के लिये कहा, वशिष्ठ मुनि ने उत्तर दिया आप के दर्शन हि मेरे लिये सर्वोपरि हैं, आप अगर कुछ देना हि चाहती हैं, तो ये वर दे, कि आज के बाद इस आसन पर कोई भी साधक, आप के मन्त्रो का ३ लाख जप कर सिद्धि प्राप्त कर सके। तत्पश्चात् मां ने वशिष्ठ को इच्छानुसार वर प्रदान किया और अपने स्वरूप को, जिस में देवी भगवान शिव को बालक रुप में, अपना दुग्ध स्तन पान करा रही हैं शिला या पाषण में परिवर्तित कर दिया। तारापीठ महाश्मशान के पञ्च मुंडी आसन पर बैठ जो योगी ३ लाख तारा मंत्र का जप करता हैं, देवी माँ उसे दर्शन देने को वध्य हैं।

देवी तारा माँ से सम्बद्ध अलौकिक शक्तिओ से युक्त महा-श्मशान।

देवी तारा माँ से सम्बद्ध अलौकिक शक्तिओ से युक्त महा-श्मशान, तारापीठ मंदिर के संग ही हैं। देवी माँ तारा श्मशान वासिनि हैं, श्मशान को ही उन्होंने अपना निवास स्थान बनाया तथा आदि काल से हि द्वारका नदी के पूर्वी तट के महाश्मशान में वो वास करती हैं। तारापीठ महा श्मशान बहुत प्रकार के अलौकिक शक्तिओ से युक्त हैं, परिणामस्वरूप यहाँ पर हर प्रकार के तांत्रिक प्रयोग सफल एवं सिद्ध होते हैं। श्वेत सेमल का वृक्ष, जिस के नीचे पञ्च-मुंडी आसन बना कर वसिष्ठ मुनि ने तपस्या कि थी, विद्यमान नहीं हैं, परन्तु उस स्थान या पञ्च मुंडी आसन देवी के कल युग में अवतार धारण करने वाले महा संत 'बामा खेपा' कि समाधी हैं। जैसे आदि काल से बहुत से साधको ने इस आसन पर बैठ तपस्या की, वैसे ही 'बामा खेपा' ने भी यही बैठ माँ तारा की आराधना की तथा दैवी कृपा लाभ की। अपने अंतकाल में उन्होंने इसी आसन पर बैठ महा समाधी ली, आज वहाँ 'बामा खेपा' की समाधी मंदिर व्याप्त हैं। वसिष्ठ मुनि के आराधना काल में देवी माँ अक्सर नृत्य करते हुए, जो वशिष्ठ मुनि को साधना में भ्रमित करती थीं, वह प्रकट होती थी। मुनि के कथनानुसार, नृत्य करती हुए देवी माँ के पैर शिला रुप में आज भी इस महा-श्मशान पर, पन्च मुण्डी आसन के दाहिने ओर विद्यमान है। वशिष्ठ मुनि द्वारा माँ से प्राप्त आशीर्वाद से, कोई भी साधक इस महा-श्मशान में, श्वेत सेमल वृक्ष तले पञ्च-मुंडी आसन पर ३ लाख तारा मंत्र का जप करने वाला, सिद्धि को प्राप्त होता हैं साथ ही माँ तारा के दिव्य दर्शन भी। तंत्र का अनुसरण करने वाले बहुत से साधको ने इस महा-श्मशान में आकर, साधना की तथा सिद्धि प्राप्ति भी, माँ के साक्षात् दर्शन किये और मोक्ष को प्राप्त किया। तंत्र साधनाओ के लिए जिस प्रकार के स्थान कि आवश्यकता होती हैं वो इस महा श्मशान में व्याप्त हैं। आज भी सामान्य भक्ति गण, संन्यासी और पुरोहित समाज विभिन्न प्रकार कि कामनाओ हेतु तांत्रिक क्रिया कर्मा, यज्ञ, अनुष्ठान यहाँ करते रहते हैं तथा माँ के कृपा से सफल होते हैं, सब प्रकार कि मनोकामनायें पूरी होती हैं।

एक समय बंगाल के लोग बहुत दरिद्र थे, अपने प्रिय जनो के मृत्यु के पश्चात्, उनके दाह संस्कार हेतु उपयुक्त धन नहीं हो पाता था, केवल मुखाग्नि क्रिया के पश्चात् शव को माटी में दबा देते थे। इस कारण श्मशान बहुत फैल गया, साथ हि डरावना ताथ भयन्कर हो गया था। यत्र तत्र माटी में दबाये हुऐ शवो से कुत्तो, सियरो द्वारा निकाल कर खाये हुए विक्षत मृत देह के अंश, हड्डियाँ तथा खोपडियाँ पड़ी रहती थी। बिज्जू मां तारा का और कुत्ता भैरव का वाहन होने के कारण भी, महा श्मशान में ये बहुत अधिक मात्रा में रहते थे। सामान्य जन साधारण यहाँ दिन में आने से भय खाता था, परन्तु तान्त्रिको, तपस्वियों, के लिये ये स्थल महान सिद्धि दायक थी और आज भी हैं। आदि कल से ही यह, शैव और वैष्णव संप्रदाय का अनुसरण करने वाले साधु-संन्यासियों कि समाधी स्थली हैं। यह पवित्र श्मशान अनगिनत महान साधु संन्यासियों कि समाधी स्थली भी हैं,यहाँ शैव और वैष्णव संप्रदाय के समाधी स्थल अलग अलग हैं। कल युग के तारापीठ भैरव बाबा 'बामा खेपा' कि समाधी भी इसी श्मशान में हैं, उन्होंने पञ्च-मुंडी आसन में मोक्ष प्राप्त किया था, माँ तारा कि शिला रूपी चरण पद्म के बाई ओर उन कि समाधी हैं। साथ ही उनके गुरु और मानस पुत्र कि भी समाधी हैं।

आज महाश्मशान का स्वरूप विकराल और भयानक नहीं है और ना ही निर्जनता, जैसा कि आदि कल में हुआ करता था। प्राय २४ घंटे, यहाँ यत्र-तत्र भ्रमण करते हुऐ आगंतुक देखे जा सकते हैं, जो कि यहाँ माँ तारा के दर्शन तथा पूजा हेतु आते हैं। बहुत से संन्यासी यही पर छोटी-छोटी कुटिया बना कर रहते हैं। अब यहाँ भयानक और डरावना कुछ भी विद्यमान नहीं हैं जैसा कि आदि कल में था, न ही भयानक जंगल हैं और न ही डरावने पशु पक्षियां।

जय दत्त नाम के वनिक द्वारा तारा तारिणी पीठ की खोज।

लगभग ४०० साल पूर्व देवी मां के इस पवित्र पीठ या स्थल की पहचान, रत्नागर जय दत्त नाम के एक वणिक ने कि थी। जय दत्त अपने पुत्र और साथियों के साथ द्वारका नदी के जल पथ से वणिज्य कर लौट रहे थे। खाने-पिने का सामान लेने तथा विश्राम हेतु, उन्होंने द्वारका नदी किनारे पड़ाव डाला। जिस स्थान पर उन्होंने पड़ाव डाला, वो कोई ओर स्थान नहीं, बल्कि देवी मां तारा जहाँ निवास करती थी, वो नदी का तट था। यहाँ जय-दत्त के साथ एक अचंभित कर देने वाली घटना घटि, नदी किनारे वन में एक वृद्ध महिला ने जय-दत्त से पूजा, कि तुम्हारे नाव में क्या भरा हैं ? वो कुछ मांग न ले इस कारण जय-दत्त ने कहाँ की नाव में भस्म भरा हुआ हैं और ऐसा ही हुआ, अब जय-दत्त नाव में आया तो क्रय-विक्रय से अर्जित समस्त धन तथा सामग्री भस्म में परिवर्तित हो गई थी। खाने-पिने का सामान लेते हुए, जय दत्त के पुत्र को साप ने काट लिया और उसकी मृत्यु हो गई। जय दत्त, पुत्र के शव को नाव पर ले, शोक ग्रस्त हो गया। इधर अन्य साथियों ने मछली पकड़ने के लिये पास के हि एक तालाब में जाल फेंका तथा जाल में एक शोल या शाल मछली आई। उन्होंने उसे काट कर, साफ किया तथा कटी हुई मछली ले वो सभी तालाब किनारे, धोने हेतु गए। जैसे ही उन्होंने कटी हुई मछली के टुकड़ो को टोकरी में रख, तालाब में धोने हेतु डुबोया, मरी-कटी हुई मछली, आपस में जुड़ी तथा जीवित हो, छलाँग लगा कर पानी में चली गई। ये देख सभी चकित हो गये कि, कैसे कटी हुई मछली, अपने आप जुड़ी, जीवित हुई और छलाँग लगा कर भाग गई।

सभी ने अपने मालिक, जय दत्त को जा कर ये आश्चर्य चकित कर देने वाली घटना कही, तब सभी ने सोचा की, क्यों ना हम अपने राजकुमार को भी इसी तालाब में डूबा कर देखें ? संभावित वो जीवित हो जाये ? और ऐसा हि हुआ, राजकुमार को तालाब में डुबोते ही राजकुमार जीवित हो गये। उसी रात जय-दत्त को स्वप्न आदेश मिला, उस स्थान पर उपस्थित शक्ति ने उन्हें सपने में दर्शन दिए और कहा, मैं तारिणी तारा हूँ तथा इस स्थान पर आदि काल से निवास कर रही हूँ। मैंने ही तुम्हारें पुत्र को जीवनदान दिया हैं, में ही तुम्हें वृद्ध महिला के रूप में मिली थी तथा मैंने ही तुम्हारें नाव की सभी वस्तुओं को भस्म कर दिया हैं। श्मशान में जहाँ श्वेत सेमल का वृक्ष हैं, वहाँ मृत्तिका गर्भ में हूँ, तुम मेरा वहाँ से उद्धार करो। तदनंतर, जय-दत्त ने माँ के आदेशानुसार श्वेत सेमल के वृक्ष तले खुदाई करवाई तथा माँ की शिला मूर्ति मिली, इसी स्वरूप में माँ ने वशिष्ठ मुनि को दर्शन दिया था तथा शिला रूप में परिवर्तित हो गई थी। जय-दत्त ने माँ तारिणी तारा की शिला मूर्ति का वहाँ से उद्धार किया, नाव का भस्म पुनः अपने पुराने रूप में परिवर्तित हो गया।
मयूरेश्वर, मालारपुर के जमींदार द्वारा तारापीठ मंदिर का जीर्णोधार या पुनः निर्माण।

जय दत्त ने ४०० साल पूर्व, श्मशान पूर्व दिशा में अपना निवास स्थल बनाया तथा श्मशान के पूर्व दिशा में ही माँ के लिये एक छोटे से मंदिर का निर्माण करवाया तथा माँ तारा की शिला मूर्ति की धूम धाम से प्रतिष्ठा की तथा भविष्य में मंदिर के सञ्चालन जैसे नित्य पुजा, बलिदान, भोग इत्यादि। केवल मात्र मंदिर की एक समस्या थी, वर्षा ऋतु में बाढ़ का जल मंदिर में आ जाता था। कालांतर में भक्तों का मंदिर में आना-जाना भी कम हो गया, बाढ़ के कारण मंदिर जर-जर हो गया था। लगभग १५० साल पहले, माँ तारा ने मल्लारपुर के जमींदार जगन्नाथ रॉय को स्वप्न में दर्शन दिए, तथा आदेश दिया कि, माँ की सेवा पूजा मंदिर में नहीं हो पा रही हैं, वो माँ तारा के लिये एक मंदिर बनवाये। जगन्नाथ ने माँ से निवेदन किया, उन का कोष अभी खली हैं, धन का अभाव हैं, वो कैसे मंदिर का निर्माण करे। माँ तारा ने जगन्नाथ से कहा, तुम्हारे घर के निकट जो श्मशान हैं, उसके ईशान कोण में एक बेल वृक्ष हैं तथा उस के नीचे सोने के मोहरे हैं, उसे निकाल कर मंदिर का निर्माण करवाए। जगन्नाथ रॉय को उस स्थान से ९ कलश सोने की मोहरे मिली तथा १८१२ में मंदिर बनवाने का कार्य प्रारंभ किया गया तथा १८१८ में मंदिर निर्माण कर कार्य सम्पूर्ण हुआ। माँ के पुराने मंदिर में बाढ़ का पानी आ जाता था, तभी नये मंदिर का निर्माण जीवित कुंड के पास ही ऊँचा स्थान देख कर किया गया, जहाँ अभी वर्तमान तारापीठ का मंदिर स्थापित हैं।

श्मशान के पूर्वी भाग में बने छोटे से मंदिर से ही माँ की शिला मूर्ति ले कर नये मंदिर में स्थापित की गई, जिसमें माँ तारणी तारा शिव को बालक रूप में अपना स्तन पान कराती हुई दिखाई देती हैं। माँ तारा के आदेशानुसार ही, शिला मूर्ति दर्शन निषेध हैं, जय दत्त को माँ से आज्ञा प्राप्त हुए थी कि इस रूप में वो सभी के लिये दर्शनीय नहीं होगी।
नाटोर की महारानी भवानी द्वारा तारापीठ मंदिर का भर लेना।

कुछ समय पश्चात्, नाटोर स्टेट जो अज बांग्लादेश का एक जिला हैं, की महारानी भवानी जो तारा मंत्र से दीक्षित थी। उनको ज्ञात हुआ की चंडीपुर के श्मशान में माँ तारा के मंदिर का निर्माण हुआ हैं जहाँ वशिष्ठ मुनि ने तपस्या कर माँ की कृपा प्राप्त की थी और वो माँ तारा तारिणी के मंदिर में दर्शनों हेतु आई। उस समय चंडीपुर, मुस्लिम जमींदार के पास था, रानी माँ ने चंडीपुर के बदले अपने जमींदारी का अच्छा खासा राजस्व देने वाले भाग को दे कर, चंडीपुर अपने अधीन ले लिया। रानी भवानी ने मंदिर के समस्त व्यवस्था जैसे दैनिक पूजा, भोग, बलिदान इत्यादि के व्यवस्था अपने हाथों में ले ली। चंडीपुर के प्रजा से जो धन राजस्व प्राप्त होता था, वह तारा माँ के मंदिर के सञ्चालन हेतु निर्धारित कर दी गई तथा मंदिर परिचालकों को आवश्यकता पड़ने पर नाटोर रज कोष से धन मांगने को कहाँ गया।
तारापीठ के दर्शनीय स्थल; तारा माँ का मंदिर, महाश्मशान, महाश्मशान में विद्यमान देवी माँ के चरण चिह्न (पाद पद्म) साथ ही 'बामा खेपा' की समाधी मंदिर जो पञ्च मुंडी आसन पर निर्मित हैं, जीवित कुण्ड तथा मुंड मालिनी तला, जहाँ देवी तारा अपनी मुंड माला रख कर स्नान करने हेतु द्वारका नदी में जाती थी।

तारापीठ जाने का मार्ग

देवी माँ उग्र तारा से सम्बद्ध पीठ, पश्चिम बंगाल के चण्डिपुर गांव, बिरभुम जिले में स्थापित हैं। कोलकाता से २२० कि. मी. रेल पथ की दुरी पर रामपुरहाट रेल-स्टेशन हैं, जहाँ से ७ कि. मी. सड़क मार्ग की दूरी पर देवी माँ का भव्य तथा अलौकिक मन्दिर विद्यमान है। सड़क मार्ग से बड़ी सुगमता से तारापीठ पहुँचा जा सकता है। रेलवे स्टेशन से २४ घंटे मंदिर जाने हेतु सड़क मार्ग द्वारा वाहन उपलब्ध हैं। देवी शक्ति पीठो से सम्बंधित अन्य चार शक्ति पीठ, तारापीठ के आस पास ही विद्यमान हैं। देवी नलहटेश्वरि, नलहाटी में, देवी नन्दिकेश्वरी, सैंथिया, देवी फुल्लौरा, लाभपुर तथा देवी कंकाली, कंकालीतला, ये शक्ति पीठ तारापीठ से आस पास ही अवस्थित हैं।


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