तब क्या फायदा होय जब चिड़िया चुग गई खेत...
लेकिन ये तो ना भूले की गुरु बिना गतिर्नास्ती... गुरु हे तो सब है नहीं तो कुछ नहीं...
जीवन बहुत ही आसान हो जाता है जब आप उन अनगिनत विचारों के भंवर में से खास कर उस विचार कों चुन ले जो आपको अपने लक्ष्य की तरफ बढाता हो. हर बार फसने पर यही तो करना है..लेकिन ठीक उसी समय तो हमारी बुद्धि मति मारी जाती है और हम उसके विपरीत ही कर बैठते है.. सोचिये हम दिन भर तो काम करते रहते है परन्तु उस काम कों करते वक्त कितना उसमे डूबे रहते है ये सच केवल हम और केवल हम ही जानते है. और दूसरा गुरु..
ध्यान से सोचे जब हम कोई कार्य हाथ में लेते हे उसे पूर्ण करने के लिए क्या हम उसे उसी अनुरूप न्याय दे पाते है? नहीं ना? तभी असफलता हाथ लगती हे... हर सफलता कीमत मांगती है. जब तक हम काम करते हुए अपने अनंत विचारों कों एकत्रत कर उस एक चिंतन में नहीं डुबो देते तब तक कहा भला उस कार्य में हमें यश मिलता है..
ठीक वेसा ही तो हे गुरु स्मरण गुरु चिंतन और साधना में.. जब तक हम हर उस पहले विचार कों जो हमें गूरू की तरफ ही ले जाता हे उसको उपेक्षित कर दूसरे विचार कों सुनते रहेंगे तब तक यही स्थिति कायम रहेगी..और यकीन मानिए इस बात की गेरेंटी हे की चाहे कितनी भी साधना और मंत्र जप करले कोई खास फर्क नहीं आने वाला..साधना मतलब ही तो खुद कों हर तरह से साध लेना है...
हम कितनी साधनाए रोज पढते हे और हर साधना कों पढ़ के कही ना कही अपने आप कों जोड़ लेते हे उसमे वर्णित कथनों से और वे कथन ही हमें प्रेरित करते हे उस साधना कों संपन्न करने के लिए.. तो क्या हो जाता हे कुछ समय गुजरने के बाद.. कहा जाती हे वो ललक उस साधना कों पूर्ण करने की? यही तो मात खा जाते है ना हम..कोई भि साधना जब हमारे नजरो के सामने आती है और हम ताजा ताजा पढते हे तो तभी पूरा मन बना लेते हे की इसे तो कर के ही दम लेंगे जेसे की बस सफलता या सिद्धि तो हमारी चेरी ही है..और मिल ही जायेगी..वो कहा जाने वाली है..
और उसी जोश में बहुत सि छोटी छोटी बाते भूल जाते हे..यहाँ एक बात बताना जरुरी समझती हू की मेंटर कहते हे की साधना हल्ला करके नहीं की जाती.. ये तो सबसे ज्यादा गुप्त रख के करने वाली क्रिया है. और साथ ही साथ मुझे उनकी कही हुई एक और बात याद हो आई की बात जब तक हमारे मुख के अंदर हे तभी तक वो हमारी हे..एक बार मुख से बाहर निकलने पर हमारा कोई बस नहीं रहता उस पर..फिर परिणाम भी स्वयं ही भुगते..और ऐसा ही तो होता हे ना? जोश में हम कह डालते हे अपना वो राज जो हम स्वयं ही पचा नहीं पाते..
खेर..तो बात ये है की साधनाओ कों जितने हलके में लेके चर्चा होगी उतने ही कोसो दूर हम उस सफलता से फीका जायेंगे..क्युकी ध्यान रहे अगर हम अपने राज कों राज नहीं रख सकते या अपने लिए प्रतिबद्ध नहीं तो दैवी शक्तियाँ भला हमारी बात क्यों सुनेंगी?
इसीलिए किसी भी साधना कों करने के लिए ये जांचना जरुरी हे की क्या हमारी देह पूर्णतः तैयार हे इस ऊर्जा कों ग्रहण करने के लिए? क्या हमारी मानसिक स्थिति स्थिर हे उस साधना के चिंतन कों स्थिरप्रज्ञ रखने के लिए? अगर नहीं तो चेतना का प्राण शक्ति विकास अत्यंत जरुरी है.. जिनती हम में प्राण शक्ति अधिकता होंगी उतना ही हम साधनाओ में उतनी ही तीव्रता से आगे बढ़ पायेंगे. और साधना से उद्र्त उर्जा कों देह में योग्य रूप से प्रस्थापित कर साधने की सीढिया एक एक कर पार करते चले जायेगे और अंततः सिद्धि प्राप्त कर पायेंगे.. क्युकी देह कों भी समंजन करने में एक निश्चित कालावधि तो लगती ही है..
और गुरु मंत्र के साथ साथ चेतना मंत्र भी किया जाय तो इस समस्या से पूर्ण रूप से निजात पाया जा सकता है और मनचाही सफलता पायी जा सकती है...