गुरू वो मृदंग हे जिसके बजते ही अनाहत नाद सुनने शुरू हो जाते हे
गुरू वो ज्ञान हे जिसके मिलते ही पांचो शरीर एक हो जाते हे
गुरू वो दीक्षा हे जो सही मायने मे मिलती हे तो पार हो जाते हे
गुरू वो नदी हे जो निरंतर हमारे प्राण से बहती हे
गुरू वो सत चित आनंद हे जो हमे हमारी पहचान देता हे
गुरू वो बासुरी हे जिसके बजते ही अंग अंग थीरक ने लगता हे
गुरू वो चिदकाश हे जिसका कोई नाप नही
गुरू वो अमृत हे जिसे पिके कोई कभी प्यासा नही
गुरू वो मृदन्ग हे जिसे बजाते ही सोहम नाद की ज़लक मिलती हे
गुरू वो कृपा हि हे जो सिर्फ कुछ सद शिष्यो को विशेश रूप मे मिलती हे और कुछ पाकर भी समज नही पाते
गुरू वो खजाना हे जो कभी अनमोल हे
गुरू वो समाधि हे जो चिरकाल तक रहती हे
गुरू वो प्रसाद हे जिसके भाग्य मे हो उसे कभी कुछ मांगने की ज़रूरत नही
गुरुजी एक ऐसे विशाल जादुई कल्प वृक्ष हैं.......जिसपे अनेक प्रकार के फल लगे हुए हैं.......और उस वृक्ष के नीचे लाखों की संख्या मे साधक झोली फैला के खड़े है.......पर मुख से कुछ नहीं माँग रही है......क्योंकि जिस वाटिका में ये वृक्ष लगा है.......उसके बाहर ये लिखा हुआ है कि यहाँ माँगना मना है........मगर उस वृक्ष को पता है कि किसको क्या चाहिये .......जिसको संतान चाहिये .......उसकी झोली में संतान रुपी फल आ जाता है....... जिसको स्वास्थ्य चाहिये उस्की झोली में स्वास्थ्य रुपी फल आ जाता है....... ऐसे ही अनेक प्रकार के फल हैं .......जो आवश्यक्ता के अनुसार सबकी झोलिओ में जाते है.......मगर एक बात का ध्यान रहे....... माँगने से फल जल्दी तो मिल सकता है....... मगर हो सकता है वो कच्चा पक्का हो....... मगर जो फल मानने से और सबर करने से मिलता है....... उसे गुरु रुपी ये कल्प वृक्ष अपनी कृपा से .......अपनी शक्तियों से अच्छी तरह पका कर.......मीठा करके अपनी साधक की झोली में डालते है....... अब फैंसला आपके हाथों में है....... माँगना है....... या मानना है ???
जैसे अन्धेरा और सूर्य एक साथ नही रह सकते वैसे ही विकारों वाले हदय में निविॅकार प्रभु कैसे आयेंगे । यदि हम चाहते है कि सतगुरु हमारे हदय मे निवास करें तो विकारो को हदय से बहिष्कृत कर दो ।
जिसका हदय शुद्ध है वहा गुरूजी स्वयं निवास करते है और उनके सभी कार्य स्वयं करते है ।