साधना का प्रारम्भ गुरु से होता है,,,,और साधना की अंतिम स्थिति गुरु के प्राणो में समाहित होने से होती है.........
पर गुरु के प्राणो में समाहित होना शिष्य का कार्य है....गुरु ने तो अपना ह्रदय,अपने प्राण पूरी तरह से खोल कर रखे है,,,,तुम्हारा जितना अहंकार गलता जायेगा उतनी ही मात्र में तुम गुरु जे प्राणो में समाहित होते जाओगे,,,,
इसलिए यह समाहित होने की क्रिया तुम्हारे हाथ में है,गुरु तो मानसरोवर की तरह तुम्हारे सामने निश्चित रूप से फैला हुआ है,तुम्हे ही इसमें अपना घट डुबोना है..
पर जब तुमने यह घट से मानसरोवर में समां जाने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी है,,,तो पूर्ण रूप से समाएगा ही...ये बात अलग है समय लगता है.....
पर यह उतना ही डूबेगा जितना तुम अपने आप को गला सको,मिटा सको,डाली उतना ही झुकेगी जितनी फलदार होगी.....
पर अब विलम्ब करना उचित नहीं,पहले से ही तुम बहुत ज्यादा विलम्ब कर चुके हो,एक बरगी पूरा जोर दे कर प्रयत्न करना है,औरअपने आपको गुरु के प्राणो में समाहित कर देना है.....
और तभी तुम्हे अपने सामने साक्षात ब्रम्हत्व के जाजल्वमान दर्शन सुलभ हो सकेंगे,तभी तुम पूर्ण हो सकोगे........
तभी कबीर के शब्दों में ""फूटा कुम्भ जल,जल ही समाना "" पूरा होगा