माया कुण्डलिनी क्रिया मधुमती काली कला मालिनी ,
मातंगी विजया जाया भगवती देवी शिवा शाम्भवी,
शक्तिः शंकरा वल्लभा त्रिनयना वाग्वाहिनी भैरवी ,
ओमकार त्रिपुरा परार्मयि भगवती माता कुमारेश्वरी।।
आध्यात्म जगत की सभी विविध प्रणाली में कुण्डलिनी का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है. मनुष्य के अंदर ब्रह्मांडीय मुख्य शक्ति के रूप में कुण्डलिनी अवस्थित है. इसी कुण्डलिनी के अनंत क्रम को सम्प्पन करने के लिए विविध मार्ग में विविध पद्धतियाँ है और यही कुण्डलिनी मनुष्य का उसकी स्वयं की विराट सत्ता का साक्षात्कार कराता है. चाहे वह पारदविज्ञान हो सूर्यविज्ञान मंत्र, योग तंत्र या कोई भी क्षेत्र, इन सभी का आधार कुण्डलिनी ही है. और इसी कुण्डलिनी के सप्तम चक्र को सहत्रार चक्र कहा गया है.
कुण्डलिनी के मूल स्थान को मूलाधार कहा गया है जिसे शक्ति का स्थान कहा जाता है, जब की उसकी यात्रा एक एक चक्र का चेतन, जागरण, भेदन, विकास आदि विविध चरणों में होता है, तथा कुण्डलिनी शक्ति की यह मूल यात्रा उसके शिव के साथ मिलन के लिए है यह सर्व तंत्र ग्रन्थ स्वीकार करते है. यही चक्र सहस्त्रार है, जिसको सहस्त्र पद्मदल अर्थात १००० कमल पंखुड़ी वाला स्थान कहा जाता है, जिसे शिव का स्थान माना जाता है.
सहस्त्रार चक्र सर्वोच्च तत्व, परम तत्व का स्थान है. इसी स्थान से मनुष्य स्व भाव की वासना से मुक्त हो कर ब्रह्म भाव के सत्य की और बढ़ता है तथा समाधि अवस्था को प्राप्त करता है. अगर शरीर का पूर्ण प्राण एक हो कर सहस्त्रार चक्र में केंद्रित हो जाता है तो व्यक्ति निश्चय ही समाधी अवस्था को प्राप्त कर लेता है, जहां पर उसका अस्तित्व ब्रह्म में विलीन हो जाता है.
आध्यात्मिक द्रष्टि से यह एक अत्यंत ही उच्चतम अवस्था कही जा सकती है जहां से व्यक्ति विविध ब्रह्मांडीय रहस्यों तथा सत्यों से परिचित होने लगता है. निश्चय ही अगर साधक अपना आध्यात्मिक स्तर इतने उच्च स्तर को प्राप्त करा सकता है तो फिर भौतिक जीवन की तो बात ही क्या. फिर भी अगर कहा जाए तो व्यक्ति के स्मरण शक्ति में उच्चतम विकास होता है, साधक आगंतुक व्यक्ति के मानस में चल रहे विचारों को जानने लगता है, ध्यान में लिन हो सकता है तथा अभ्यास के साथ साथ व्यक्ति कई प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति कर सकता है. लेकिन इन सब के मूल में सर्व प्रथम चेतन तथा जागरण प्रक्रियाए है.
साधक को यह समजना चाहिए की अगर कोई पिंड में चेतना नहीं है तो उसका जागरण संभव नहीं हो पता. और जो जागृत नहीं है, उसका विकास नहीं किया जा सकता और अगर वह विकास हो भी जाए तो सुसुप्त अवस्था होने के कारण यह विकास अर्थहिन् ही है.
कुण्डलिनी क्रम में पहले कुण्डलिनी को चेतन कर सभी चक्रों को धीरे धीरे चेतन किया जाता है तथा उसके बाद जागरण किया जाता है. यह क्रिया अत्यंत ही पेचीदी तथा जटिल है. लेकिन प्रस्तुत देव दुर्लभ प्रयोग अपने आप में एक आश्चर्य है. इसका कारण यह है की यह सीधे ही सहस्त्रार चक्र अर्थात शिव स्थान को चेतन और जागरण करने की साधना है. अगर व्यक्ति इस साधना को सम्प्पन कर ले तो निश्चय ही वह सहस्त्रार चक्र से सबंधित सभी प्रारंभिक लाभों की प्राप्ति करने में समर्थ होने लगता है. सहस्त्रार से जरने वाले अमृत तत्व का उसको भान होने लगता है तथा शरीर में तत्वों का संचारण योग्य होने से साधक के रोग शोक भी शांत होने लगते है. साथ ही साथ साधक को कई प्रकार की आध्यात्मिक उपलब्धिया तो होती ही है. ऐसे गुप्त प्रयोग को प्राप्त करना निश्चय ही सौभाग्य ही है क्यों की प्राचीन तंत्र मत में मात्र कुछ ही व्यक्तियो को गुरु मुखी प्रणाली से ऐसे प्रयोगों का ज्ञान कराया जाता था. इस देव दुर्लभ प्रयोग को पारदशिवलिंग अथवा सौंदर्य रस कंकण के माध्यम से सम्प्पन किया जाता है.
यह प्रयोग साधक किसी भी शुभदिन शुरू कर सकता है.या पूणिमा पर ये साधना करे |
समय दिन या रात्रि का कोई भी हो लेकिन साधक को रोज एक ही समय पे यह प्रयोग करना चाहिए.
साधक स्नान आदिसे निवृत हो कर सफ़ेद वस्त्रों को धारण करे तथा सफ़ेद आसान पर बैठ जाए. साधक का मुख उत्तर दिशा की तरफ रहे.
साधक को अपने सामने प्राणप्रतिष्ठित विशुद्ध पारदशिवलिंग को स्थापित करना चाहिए. इसके बाद साधक गुरुपूजन तथा पारदशिवलिंग का पूजन सम्प्पन करे.
साधक को पूजन करने के बाद गुरुमंत्र का जाप करना चाहिए.
इसके बाद साधक शिवलिंग पर त्राटक करते हुवे निम्न मंत्र की ११ माला मंत्र का जाप करे. यह जाप साधक स्फटिक माला से करे.
ॐ शं शां शिं शुं वं वां विं वुं अमृत वर्चसे वर्चसे सोहं हंसः स्वाहा
(Om sham shaam shim shum vam vaam vim vum amrit varchase varchase soham hansah swaha)
मंत्र जाप पूर्ण होने पर साधक थोड़ी देर आँखे बंद कर के शांत चित्त से बैठ जाए. इस प्रकार साधक को ५ दिन तक करना है.
साधक को इन ५ दिन में कई प्रकार के अनुभव हो सकते है और कई द्रश्य दिखाई दे सकते है तथा विविध आवाजे सुने दे सकती है लेकिन साधक को विचलित नहीं होना चाहिए, यह सब साधना में सफलता के ही लक्षण है. माला का विसर्जन नहीं करना है, साधक भविष्य में भी इस माला का प्रयोग इस साधना को करने के लिए कर सकता है.