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Initiation from Paramhansa Swami Sachchidananda Ji and service to Nikhileshwaran Paramhansa Swami Sachchidananda Ji and service to Nikhileshwarananda

MTYV Sadhana Kendra -
Wednesday 19th of June 2024 08:32:01 AM


?: त्वदीयं वस्तु गोविन्दं?      परमहंस स्वामी सच्चिदानंद जी से दीक्षा के कई वर्षों बाद जब निखिलेश्वरानंद की सेवा, एक निष्ठता एवं पूर्ण शिष्यत्व से स्वामीजी प्रभावित हुए, तो एक दिन पूछा –

“निखिल! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ, तुम जो कुछ भी चाहो, मांग सकते हो, असंभव मांग भी पूरी कर सकूँगा, मांगों?”

निखिलेश्वरानंद एक क्षण तक गुरु चरणों को निहारते रहे, बोले –

“त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेवम समर्पयेत”

जब ‘मेरा’ कहने लायक मेरे पास कुछ हैं ही नहीं, तो मैं क्या मांगूं, किसके लिए मांगू, मेरा मन, प्राण रोम प्रतिरोम तो आपका हैं, आपका ही तो आपको समर्पित हैं, मेरा अस्तित्व ही कहाँ हैं?

उत्तर सुनकर कठोर चट्टान सद्दश गुरु की आँखें डबडबा आई और शिष्य को अपने हांथों से उठाकर सीने से चिपका दिया, एकाकार कर दिया, पूर्णत्व दे दिया. कुण्डलिनी - दर्शन

उस दिन रविवार था, हम सब शिष्य गुरुदेव (डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के सामने गंगोत्री के तट पर बैठे हुए थे, सामने चट्टान पर अधलेटे से स्वामी जी (गुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे.

बात चल पड़ी कुण्डलिनी पर. गुरुभाई कार्तिकेय ने पूछा – "गुरुवर कुण्डलिनी से सम्बंधित चक्र, दल आदि का विवरण हैं, यही नहीं अपितु दल की पंखुडियां और रंग तक बताया गया हैं, क्या यह सब ठीक हैं?"

गुरुदेव मुस्कुराये, बोले - देखना चाहते हो, और वे सामने सीधे बैठ गए, श्वासोत्थान कर उन्होंने ज्योहीं प्राणों को सहस्त्रार में स्थित किया, की हम लोगों ने कमल मूलाधार से लगाकर आज्ञाचक्र तक के सभी चक्र, कमल और प्रस्फुटन साफ - साफ देखे, सभी कमल विकसित थे और योग ग्रंथों में जिस प्रकार से इन चक्रों और कमलों के रंग, बीज ब्रह्म आदि वर्णित हैं, उन्हीं रंगों में वे उत्थित चक्र देखकर आश्चर्यचकित रह गए... सब कुछ साफ - साफ शीशे की तरह दिखाई दे रहा था.

पूज्य गुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी के इस कुण्डलिनी दिग्दर्शन पर हम सब आश्चर्य के साथ - साथ श्रद्धानत थे मेरे गुरुदेव के शारीर से महकता हैं चन्दन

हिमालय के समस्त सन्यासियों की दबी – ढकी वह इच्छा बराबर रहती हैं की वे योगिराज निखिलेश्वरानंद जी (डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के साथ कुछ क्षण रहे, बातचीत करें, आशीर्वाद प्राप्त करें, पर ऐसा सौभाग्य तो तब मिलता हैं, जब सात जन्म के पुन्य उदय हो.

मेरा सौभाग्य हैं की मैं उनका शिष्य हूँ और उनके द्वारा “लोकोत्तर साधना” में सफलता प्राप्त कर सका, उनके साथ मनोवेग से कई बार अन्य ग्रहों की यात्रा कर देखने – जानने का अवसर मिला.

“लोकोत्तर - साधना” के अद्वितीय योगी निखिलेश्वरानंद जी के पास क्षण भर बैठने से ही चन्दन की महक सी अनुभव होती हैं, उनके शरीर से चन्दन महकता रहता हैं, वे सही अर्थों में आज के युग के अद्वितीय तपोपुन्ज हैं.

मेरे गुरुदेव क्यों छिपाएं रखते हैं अपने आपको? मुझे यह फक्र हैं की मेरे गुरु पूज्य श्रीमालीजी (डॉ. नायारण दत्त श्रीमालीजी) हैं, मुझे उनके चरणों में बैठने का मौका मिला हैं, और यथा संभव उन्हें निकट से देखने का प्रयास किया हैं.

उस दिन वे अपने अंडर ग्राउंड में स्थित साधना स्थल पर बैठे हुए थे, अचानक निचे चला गया और मैंने देखा उनका विरत व्यक्तित्व, साधनामय तेजस्वी शरीर और शरीर से झरता हुआ प्रकाश.... ललाट से निकलता हुआ ज्योति पुंज और साधना की तेजस्विता से ओतप्रोत उस समय का वह साधना कक्ष.... जब की उस साधनात्मक विद्युत् प्रवाह से पूरा कक्ष चार्ज था, ऊष्णता से दाहक रहा था और मात्र एक मिनट खडा रहने पर मेरा शरीर फूंक सा रहा था, कैसे बैठे रहते हैं, गुरुदेव घंटों इस कक्ष में?

बाहर जन सामान्य में गुरुदेव कितने सरल और सामान्य दिखाई देते हैं, कब पहिचानेंगे हम सब लोग उन्हें? उस अथाह समुद्र में से हम क्या ले पाएं हैं अब तक...... क्यों छिपाएं रखते हैं, वे अपने आपको?

-सेवानंद ज्ञानी १९८४ जन. - फर. अंतर

कहाँ आपका सन्यासी प्रचंड उद्वर्ष रूप, कि ऊंचे से ऊंचा योगी भी कुछ क्षण पास बैठने के लिए तरसता हैं, हम इतने वर्षों से आपके सन्यासी शिष्य हैं आपके साथ रहे हैं, आपका क्रोध देखा हैं, प्रचंड उग्र रूप देखा हैं और यहाँ आपका गृहस्थ रूप देख रहे हैं, आश्चर्य होता हैं, आपकर इन दोनों रूपों को देखकर. हम सन्यासी शिष्यों में इतने वर्षों तक साथ रहने के बावजूद भी इतनी हिम्मत नहीं कि आपके सामने रहने के बावजूद भी इतनी हिम्मत नहीं कि आपके सामने खड़े होकर, सामने देखकर कुछ बोल सकें... पर यहाँ तो गृहस्थ शिष्यों के साथ आप बैठते हैं हंसी-मजाक करते हैं, और वे आपके सामने बैठकर बतियाने लगते हैं, और आप हैं कि सुनते रहते हैं.... इतना समय हैं क्या आपके पास?

ये कैसे शिष्य हैं, कि सामने देखकर बतियाते रहे... यह सब क्या हैं? - पूंछ रहे थे सनाय्सी गुरुभाई रविन्द्र स्वामी, गुरूजी से.

"तुम नहीं समझते रविन्द्र. यह गृहस्थ संसार हैं, जंगल और हिमालय का प्रांतर नहीं..... ये गृहस्थ शिष्य हैं, इनकी दृष्टि स्थूल हैं ये धन, पुत्र, सुख मांगकर ही प्रसन्न ही जाते हैं, शिष्यत्व क्या हैं? इसे पहिचानने और समझने के लिए बहुत बड़े त्याग कि जरूरत हैं और जहाँ तक मेरा प्रश्न हैं मैं इन पर आवरण डाले रखता हूँ, जो इस आवरण को भेदकर मुझ तक पहुंचता हैं, अपने "स्व" को मिटाकर लीन होता हैं, वही शिष्य बन सकता हैं वही बनता हैं."

परमारथ के कारणे साधू धरियो शरीर. बात उस समय की हैं, जब पूज्यपाद सदगुरुदेव अपने संन्यास जीवन से संकल्पबद्ध होकर वापस अपने गृहस्थ संसार में लौटे थे. जब वे सन्यास जीवन के लिए ईश्वरीय प्रेरणा से घर से निकले थे, तो उनके पास तन ढकने के लिए एक धोती, एक कुरता और एक गमछा था. साथ में एक छोटे से झोले में एक धोती और कुरता अतिरिक्त रूप से था. इसके अलावा उनके पास और कुछ भी नहीं था. न ही कोई दिशा स्पष्ट थी और न ही कोई मंजिल स्पष्ट थी, केवल उनके हौसले बुलंद थे और ईश्वर में आस्था थी. यही उनकी कुल पूंजी थी, जिसके सहारे संघर्स्मय एवं इतने लम्बे जीवन की यात्रा पूरी करनी थी.

जब वे कुछ समय सन्यास जीवन में बिताकर वापस अपने गाँव लौटे, तो गाँव वाले, परिवार के लोग एवं क्षेत्र के सभी गणमान्य व्यक्ति उपस्थित हुए. सभी ने उनका सहर्ष स्वागत सत्कार किया, लेकिन सभी के मनोमस्तिष्क में यही गूंज रहा था कि इन्हें क्या मिला? हमें भी कुछ दिखाएं.

जब यह प्रश्न सदगुरुदेव जी तक पहुंचा, तो वे बड़े ही प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि हमारी भी यही इच्छा हैं कि जो कुछ भी हमारे पास हैं वह मैं सभी को दिखाऊं.

गुरुदेव जी सभी के मध्य में खड़े हुए और अपना एक हाथ फैलाया और बताया कि जब मैं यहाँ से गया था तो मेरे पास यह था और हाथ की बंधी मुट्ठी को खोला तो उसमें कुछ कंकण निकले. उन्होंने बताया कि यही मेरे पास थे, जिन्हें मैं लेकर अपने साथ गया था और जो कुछ मैं लेकर लौटा हूँ, वह मेरी हाथ की दूसरी मुट्ठी में हैं. सभी लोग दूसरी मुट्ठी को देखने के लिए आतुर हो उठे. लेकिन गुरुदेव जी ने जब दूसरी मुट्ठी खोली तो सभी हैरत में पड गए. क्योंकि वह मुट्ठी बिलकुल ही खाली थी. सभी को आशा था कि इसमें कुछ अजूबा होगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

गुरुदेव जी ने बताया कि जो कुछ मेरे पास था वह भी मैं गँवा कर आ रहा हूँ. मैं बिलकुल ही खाली होकर आ रहा हूँ. बिलकुल खाली हूँ, इसलिए अब जीवन में कुछ कर सकता हूँ. मैं अपने सन्यास जीवन में कोई जादू टोने टोटके सीखने नहीं गया था, हाथ सफाई की ये क्रियाएं यहाँ रहकर भी सीख सकता था, लेकिन मैं अपने जीवन में पूर्ण अष्टांग योग, सहित यम, नियम, आहार, प्रत्याहार, ……धारणा, ध्यान, समाधि, के पूर्णत्व स्तर पर पहुँचाने के लिए ही यह सन्यास मार्ग चुना. अब मुझे इन कंकनो पत्थरों के भार को ढोना नहीं पड़ेगा, अगर ढोना नहीं पड़ेगा तो मैं स्वतंत्र होकर बहुत कुछ कर सकता हूँ. क्योंकि ज्ञान को धोने की जरुरत नहीं पड़ेगी, वह स्वयं ही उत्पन्न होता रहता हैं. स्वतः ही उसमें सुगंध आने लगती हैं. उसमें आनंद के अमृत की वर्ष होने लगती हैं और वह तब तक नहीं प्राप्त हो सकता, जब तक हम इन कंकनों एवं पत्थरों को ढोते रहेंगे. अपने इस हाड-मांस को ढोने से कुछ नहीं होने वाला हैं, जब तक इसमें चेतना नहीं होगी. चेतना को पाने के लिए एकदम से खाली होना पड़ता हैं, सब कुछ गंवाना पड़ता हैं, सब कुछ दांव पर लगाना पड़ता हैं. तब जाकर चेतना प्रस्फुटित होती हैं और तब उस प्रस्फुटित चेतना को दिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ती हैं, बल्कि दुनिया उसे स्वयं देखती हैं, बार-बार देखती हैं, घुर-घूरकर देखती हैं. क्योंकि उसे इस हाड मांस में कुछ और ही दिखाई देता हैं, जिसे चैतन्यता कहते हैं. चेतना कहते हैं, ज्ञान कहते हैं. और उसे उस मुट्ठी में देखने की जरुरत नहीं हैं, क्योंकि वह मुट्ठी में समाने वाली चीज नहीं हैं, वह इस समस्त संसार में समाया हैं, जो सब कुछ सबको दिखाई दे रहा हैं.

चौरासी लाख योनियों में जीव जन्म लेते-लेते अंत में मनुष्य को जन्म मिलता है। मनुष्य योनी में भी जीवन के अनेक रसों, भोगों में लिप्त होने बाद जब उसे जीवन की निःस्सारता का बोध होता है, वहीं क्षण इश्वर के पथ पर, आत्म कल्याण एवं परमानंद के पथ पर बढ़ा पहला कदम होता है। और यही से प्रारंभ होती है उसकी खोज, जो की सदैव से ही ज्ञानियों के लिए विचारणीय विषय रहा है, कि परमात्मा का स्वरुप क्या है?

और जब जीव की पुकार तीव्र हो जाती है, तो प्रभु उसे किसी न किसी रूप में कृतार्थ करते ही हें। और इसीलिए इश्वर का मनुष्य रूप में समय-समय पर अवतार होता रहा है। शास्त्रों में परमात्मा के दशावतारों का विवरण आया है - कूर्मावतार, मत्स्यावतार, वराह अवतार, वामनावतार, नृसिंहावतार, परशुराम अवतार, रामावतार, कृष्णावतार, बुद्धावतार।

अवतारों के इसी क्रम की आगे बढाती श्रृंखला की एक कथा का विवरण 'कल्कि पुराण' के श्लोक क्रं १ से २२ तक आया है। नैमिषारन्य में समस्त अवतारों की कथा-लीला, वार्तालाप महर्षि सूद और शौनकादीऋषियों में चल रही थी और ऋषिश्रेष्ठ सूद जी से शौनक मुनि प्रश्न करते हें, कि बुद्धावतार के बाद कलियुग जब पराकाष्ठा में होगा, तब भगवान् किस शक्ति स्वरुप में जन्म लेंगे? उसका विवरण देते हुए सूत जी बोले - "हे मुनीश्वर ! ब्राह्माजी ने अपनी पीठ से घोर मलीन पातक को उत्पन्न किया, जिसका नाम रखा गया - 'अधर्म'। अधर्म जब बड़ा हुआ, तब उसका 'मिथ्या' से विवाह कर दिया। दोनों के संयोग से महाक्रोधी पुत्र 'दम्भ' तथा 'माया' नामक कन्या हुई। फिर दम्भ व् माया के संयोग से 'लोभ' नामक पुत्र और विकृति नामक कन्या हुई। दोनों ने 'क्रोध' को जन्म दिया। क्रोध से हिंसा व् इन दोनों के संयोग से काली देहवाले महाभयंकर 'कलि' का जन्म हुआ। कराल, चंचल, भयानक, दुर्गन्धयुक्त शरीर, द्यूत, मद्य, स्वर्ण और वेश्या में निवास करने वाले इस कलि की बहीण व् संतानों के रूप में दुरुक्ति, भयानक, मृत्यु, निरत, यातना का जन्म हुआ। जिसके हजारो अधर्मी पुत्र-पुत्री आधी-व्याधि, बुढ़ापा, दुःख, शोक, पतन, भोग-विलास आदि में निवास कर यग्य, तप, दान, स्वाध्याय, उपासना आदि का नाश करने लगे।"

और कलियुग में ऐसा हि होने लगा - क्रोध, दम्भ, माया, मलिनता, व्याधि, भोग, पतन इत्यादि स्थितियां उत्पन्न हुई और धीरे-धीरे इन स्थितियों ने संसार को इतना ढक दिया, कि आम आदमी ईश्वरीय सत्ता पर संदेह करने लगा। संभवतया महाभारत के समय कृष्ण ने इस स्थिति को समझा और कहा -

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ।

अर्थात जब-जब संसार ने अनीति, अत्याचार , अधर्म पूर्ण रूप से व्याप्त हो जाएगा, तब ईश्वरीय सत्ता किसी न किसी रूप में प्रादुर्भाव लेगी।

जब त्रेता युग में परिवार की मर्यादाओं की हानि हो रही थी, यज्ञ, तप मलिन हो रहे थे, तब परमात्मा ने भगवान् श्रीराम के रूप में अवतरण किया। राज गृह में जन्म लेकर मर्यादा स्थापित करने के लिए पुरे आर्यावत का भ्रमण किया। वनवास रूप में यह भ्रमण तो उनका एक लीला स्वरुप था, मूल भावना यह थी, कि पुरे आर्यावत को अयोध्या से लंका तक एक किया जाए। हर स्थान पर पुनः वेद वाणी का गुंजन हो और पुन यज्ञ ज्योति प्रज्वलित हो। अपने इस स्वरुप में श्रीराम ने कहीं भी कोई जाती भेद, स्थान भेद नहीं किया, वानर भील आदिवासी सभी तो उनके प्रिय थे ... और उनका पूरा विचरण राष्ट्र वनवास ही था। अपनी पत्नी के साथ पद यात्रा कर एक भावनात्मक एहसास जन मानस में उत्पन्न किया, फिर उन्होनें सबको साथ लेकर आसुरी प्रवृत्तियों के प्रतीक रावण का सम्पूर्ण नाश किया। केवल रावण ही नहीं, उसके साथ जो भी आसुरिय प्रवृत्तियों के व्यक्ति थे उन सबका जड़-मूल से ही नाश कर पूरे भूमण्डल पर शुद्ध धर्म स्थापित किया। श्रीराम ने भी विश्वामित्र से अस्त्र-शास्त्र विद्या सीखी और ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से ज्ञान प्राप्त किया और वह भी गुरुकुल में रहकर।

श्रीकृष्ण ने भी मां के गर्भ से जन्म लिया। एक बालक की तरह अपनी बाल लीलाएं संपन्न की, देवकी के गर्भ से जन्म लेकर यशोदा के घर उनका बाल्यकाल व्यतीत हुआ। अपने बाल्यकाल में निरंतर लीलाएं करते हुए आसुरी प्रवृत्तियों का नाश करने के लिए प्रवृत्त रहना - कालिया मर्दन, पूतना वध इत्यादि कार्य तो उन्होनें बाल्यकाल में ही संपन्न कर दी और जहां द्वापर युग में लोगों के जीवन में शुष्कता और द्वेष की अधिकता हो गई थी, वहां उन्होनें प्रेम को एक नई अभिव्यक्ति दी।

उनकी रासलीला, जिसमे पूरा भू-मण्डल कृष्णमय होकर उनके साथ नृत्य संगीत कर रहा था, यह प्रेम की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति ही तो थी, लेकिन इसके साथ ही साथ सुदूर सान्दीपन आश्रम में जाकर शिष्य के रूप में शिक्षा भी ग्रहण की।

अवतारी पुरूष को क्या आवश्यकता थी, कि वे शिक्षा आदि ग्रहण करते, जीवन के सामान्य नियमों का पालन करते?

लेकिन उन्हें समाज के सामने आदर्श स्थापित करना था, और उनके इस प्रेम स्वरुप के साथ ही श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व का नीतिज्ञ स्वरुप, युगनिर्माता स्वरुप भी प्रकट होता है - महाभारत के युद्ध के समय। ठीक वही स्थिति जो राम के समय थी, जब रावण रूपी आसुरी प्रवृत्तियां बढ़ गई थीं और फिर द्वापर में कौरव रूपी आसुरी प्रवृत्तियां बढ़ गई थीं और पूरे भू-मण्डल पर आधिकार कर लिया था। तब श्रीकृष्ण ने अपने विराटस्वरूप के माध्यम से अर्जुन को ज्ञान करवाया, कि संख्या बल महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है धर्म की स्थापना, चाहे इसके लिए जीवन का बलिदान ही क्यों न करना पड़े। यदि सत्य और धर्म तुम्हारे साथ है, तो आसुरी प्रवृत्तियां कभी भी विजय प्राप्त नहीं कर सकती हें। महाभारत का युद्ध इतिहास परिवर्तन का युद्ध था। पुनः आर्यावत में धर्म की चेतना जागृत हुई, सामाजिक जीवन को नष्ट कर देने वाली - विलासिता, जुआ, मद्यपान, नारी अपमान की प्रवृत्तियां नष्ट हुई।

पूरे जीवन कृष्ण ने किसी भी प्रकार की सामाजिक आचार सहिंता का उल्लंघन नहीं किया, गृहस्थ जीवन भी धारण किया और जब देखा कि गोकुल, मथुरा, हस्तिनापुर में मेरा कार्य पूर्ण हो गया है, तो सुदूर द्वारका में राज्य स्थापन कर वहां धर्म स्थापना की, जिससे अखंड आर्यावत का निर्माण हो सके।

काल का चक्र निरंतर चलता ही रहा और यही आर्यावत छोटे-छोटे राज्यों में बट गया। प्रत्येक राज्य में द्वेष, हजारों प्रकार की पूजाएं, नास्तिकता-आस्तिकता का संघर्ष - तब प्रभु ने बुद्ध के रूप में जन्म लिया और उनकी जीवन यात्रा सिद्धार्थ रूप में जन्म लेकर बोधीसत्व प्राप्त कर अन्ततः तथागत स्वरुप प्राप्त कर लेने तक की एक विराट यात्रा थी, जिसमें उन्होनें तीन सिद्धांत जनमानस में स्थापित किए -

बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि

अर्थात खण्ड-खण्ड में बटकर रहने की बजाय संघ बनाकर धर्म पालन आवश्यक है और धर्म का पालन शुद्ध सात्विक बुद्धि, जो कि बुद्धत्व उत्पन्न करती है, उसके द्वारा ही सम्भव है। उस समय की मांग जनमानस में त्याग, करुणा, प्रेम, साहचर्य उत्पन्न करना था और क्षत्रिय परिवार में जन्म लेकर बुद्ध ने भिक्षुक वेष धारण कर भिक्षा पात्र में लेकर पुरे आर्यावर्त में और उससे भी बाहर सुदूर देशों में धर्म की स्थापना की। उन्होनें स्वयं कभी कोई सम्राट पद धारण नहीं किया, लेकिन सारे सम्राट उनके ही तो अधीन थे। वे तो जन-जन के सम्राट थे और क्यों न हों, कि पुनः एकता, साहचर्य और धर्म स्थापित हो गया।

इन तीनों महावातारों में पूर्ण भिन्नता नजर आती है, ऐसा इसलिए हुआ कि युग धर्म के अनुसार भगवान् अलग-अलग स्वरूपों में प्रकट होते हें। जहां जिस प्रकार के कार्य कि आवश्यकता होती है, भगवान् युगपुरुष में, युग-दृष्टा के रूप में अवतरित होते है और जिस उद्देश्य के लिए अवतरण लेते हें, उस कार्य को पूरा करने के पश्चात पुनः ब्रह्माण्ड में अपने विराट स्वरुप में स्थित हो जाते हैं।

प्रभु जब भी अवतरण लेते हैं, तो वे संसार को ये संदेश देना चाहते हैं कि जीवन का क्या आदर्श होना चाहिए और मनुष्य जन्म लेकर अपने जीवन में परमात्मा की अविच्छिन्न शक्ति का प्रतीक बनकर संसार में सद्कार्य कर सकता हैं। असंभव को सम्भव कर सकता हैं, एक-एक कर अपने मार्ग में आने वाली बाधाओं को मिटा सकता हैं। उसके जीवन में भी प्रेम, करुणा, मोह गृहस्थ सब कुछ होगा, इन सब स्थितियों के साथ वह सात्विकता की ओर अग्रसर हो सकता हें, पूर्णत्व की ओर अग्रसर हो सकता हैं।

यह तो द्रष्टा पर निर्भर करता है, कि वह अपने आराध्य को किस रूप में देखता हैं। और इन अवतरणों का क्रम बढ़ता हुआ इस युग में पुनः सम्भव हुआ पूज्य 'डॉ नारयण दत्त श्रीमाली जी' के रूप में। पूज्य सदगुरुदेव अपने परिवार के लिए पिता, भाई आदि स्वरुप में प्रिय बने, तो वहीं उनके शिष्यों ने उन्हें सदगुरुदेव, प्रभु, इष्ट, मंत्रज्ञ, तन्त्रज्ञ, ज्योतिषविद तथा अन्य रूपों में आत्मसात किया हैं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में व्यास मुनि ने स्पष्ट लिखा है, कि भगवान् के अवतारों स्वरुप में दस गुण अवश्य ही परिलक्षित होंगे और इन्हीं दस गुणों के आधार पर संसार उन्हें पहिचानेगा।

तपोनिष्ठः मुनिश्रेष्ठः मानवानां हितेक्षणः । ऋषिधर्मत्वमापन्नः योगी योगविदां वरः दार्शनिकः कविश्रेष्ठः उपदेष्टा नीतिकृत्तथा । युगकर्तानुमन्ता च निखिलः निखिलेश्वरः ॥ एभिर्दशगुणैः प्रीतः सत्यधर्मपरायणः । अवतारं गृहीत्चैव अभूच्च गुरुणां गुरुः ॥

सदगुरुदेव पूज्यपाद डॉ नारायणदत्त श्रीमाली जी, संन्यासी स्वरुप निखिलेश्वरानंद जी का विवेचन आज यदि महर्षि व्यास द्वारा उध्दृत दस गुणों के आधार पर किया जाए, तो निश्चय ही सदगुरुदेव अवतारी पुरूष हैं, जिन्होनें अपने सांसारिक जीवन का प्रारम्भ एक सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार में किया - सुदूर पिछडा रेगिस्तानी गांव था। जब इनका जन्म हुआ तो माता-पिता को प्रेरणा हुई, कि इस बालक का नाम रखा जाए - 'नारायण'।

यह नारायण नाम धारण करना और उस नारायण तत्व का निरंतर विस्तार केवल युगपुरुष नारायण दत्त श्रीमाली के लिए ही सम्भव था, जिन्होनें अपने अल्पकालीन भौतिक जेवण में शिक्षा का उच्चतम आयाम ग्रहण कर पी.एच.डी. अर्थात डाक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त की।
एक सिद्ध पुरुष ने लिखा है कि जब मैं आठ महाविद्या सिद्ध कर नवी महाविद्या प्राप्त करने हेतु स्वामी निखिलेश्वरानंद जी के गृहस्थ रुप डॉ० नारायण दत्त श्रीमाली जी के यहां गया तो मैं संयासी वस्त्रों में था। मुझे त्रिजटा महाराज ने सीधे नागार्जुन पर्वत से भेजा था। मैं थोडा डरा-सहमा सा था क्योंकि त्रिजटा गुरुदेव ने मुझे जिस व्यक्तित्व का परिचय दिया था मैं उसका साक्षात्कार करने जा रहा था। वे अंदर आफिस में बैठे हुए थे उन्होंने मुझे देखा, मानसिक रुप से मैंने उन्हें प्रणाम किया और उन्होंने मेरा प्रणाम स्वीकार किया। लेकिन इसके बाद गुरुदेव ने तीन दिनों तक मेरी ओर देखा भी नहीं। उस वक्त जोधपुर में ठण्ड का मौसम था, रात को हड्डियां कंपकपाने वाली ठण्ड होती थी। लेकिन मुझे विश्वास था कि चाहे गुरुदेव मेरी कुछ भी परीक्षा लें मैं उन सब मैं सफल रहूंगा और उनसे दीक्षा प्राप्त करुंगा। मुझे भी घमंड आ सकता था कि मैंने तो आठ महाविद्याएं सिद्ध कर रखी हैं, अनेकों साधनाओं में सिद्धहस्त हूं फिर मैं क्यों रुकूं। मैं क्यों बाहर खडा रहूं और जबकि एक प्रकार से मैं उनका गुरुभाई भी था क्योंकि सच्चिदानंद गुरुदेव से मैं दीक्षा ले चुका था। फिर भी मैं एक नवोदय शिष्य की तरह खडा था कि कब वह मुझ पर अपनी एक दृष्टि डालेगे। मेरे मन में गुरुदेव से दीक्षा देने के सिवा और कोई भाव नहीं आया। गुरुदेव ने अपनी करुणामय दृष्टि से मेरी ओर देखा और मुझे अपने साथ लेकर चले गये तो उस क्षण मैं उनके ममत्व से पूरी तरह भीग गया था।

२- सिद्धाश्रम सिद्धाश्रम एक अत्यंत उच्चकोटि की भावभूमि पर एक अत्यन्त सिद्ध आश्रम है जो कई वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इसके एक ओर कैलाश मानसरोवर है दूसरी ओर ब्रहम सरोवर है और तीसरी ओर विष्णुतीर्थ है। इन तीनों पुण्य स्थलियों के बीच यह सिद्धाश्रम स्थित है। स्वयं विश्वकर्मा ने ब्रह्मादि के कहने पर इस आश्रम की रचना की। परमहंस स्वामी सच्चिदानंद प्रभु जिनकी आयु हजारो-हजारों वर्षो की है और जो समस्त गुरुओं के गुरु हैं वे इस श्रेष्ठतम आश्रम के संस्थापक, संचालक एवं नियंता हैं। सच्चिदानंद जी के बारे में स्वयं ब्रह्मा ने कहा है कि वे साक्षात ब्रह्मा का मूर्तिमय पुंज है। भगवान शिव ने उनको आत्मस्वरुप कहा है और सभी देवी-देवता उनकी एक झलक पाने को लालायित रहते हैं। सिद्धाश्रम में चारों ओ दिव्य स्फटिक शिलाएं देखने को मिलती हैं जिस पर हजारों वर्ष के योगी साधनारत एवं समाधिस्थ हैं। वहां जगह-जगह पर दिव्य कल्पवृक्ष देखने को मिलते हैं जिनका विभिन्न शास्त्रों में वर्णन है। इनके नीचे बैठकर व्यक्ति जो इच्छा करता है वह पूर्ण होती ही हैं। सिद्धाश्रम की आयु अत्यधिक शीतल एवं संगीतयुक्त है। उसमें एक थिरकन है, एक गुनगुनाहट है, एक मधुरता है, एक अद्वितीयता है। वहां देव संगीत निरंतर गुंजरित होता रहता है एवं उसको सुनकर मन में एक तृष्टि का अहसास होता है। कहीं कहीं उच्चकोटि के योगी यज्ञ सम्पन्न करते दिखाई देते हैं और सारा वातावरण उस यज्ञ की पवित्र धूम से आप्लावित रहता है। वहां सभी अपनी-अपनी क्रिया में संलग्न रहते हैं। वास्तव में ही वहां पहुंचने पर शरीर एवं हृदय ऐसे आनंद से भर जाता है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

इस सिद्धाश्रम का सबसे अधिक आकर्षण का केन्द्र है यहां की सिद्धयोगा झील। कई कि०मी० विस्तार में फैली हुई यह अद्भूत झील कायाकल्प के Vगुणों से युक्त है। ८० साल का व्यक्ति भी यदि इसमें स्नान कर लेता है तो वह सौन्दर्य से परिपूर्ण कामदेव के समान हो जाता है। उसके सारे मानसिक एवं दैहिक क्लेश समाप्त हो जाते हैं और वह पूर्ण आरोग्य को प्राप्त करता है। इस झील में कई स्फटिक नौकाएं हैं जिसमें साधक जन एवं देवागंनाएं विहार करते दिखाई देते हैं।

वास्तव में ही सिद्धाश्रम काल से परे कालजयी आश्रम है। यहां पर न सुबह होती है न शाम होती है और न ऋतु परिवर्तन ही होता है। यहां पर सदैव वसंत ऋतु का ही मौसम रहता है एवं सदैव ही शीतल चॉदनी सा प्रकाश बिखरा रहता है। योगियों के शरीर से जो आभा प्रकाशित होती है उससे भी यहां प्रकाश फैला रहता है। इस कालजयी आश्रम में किसी की मृत्यु नहीं होती है। हर कोई सौंदर्यवान, तरुण एवं रोग रहित रहता है। यहां पर उगी वनस्पति, पुष्प एवं कमल भी कभी मुरझाते नहीं है। सतयुग, त्रेताकालीन, द्वापरकालीन अनेकानेक दिव्य विभूतियां इस दिव्य आश्रम में आज भी विद्यमान हैं। राम, बुद्ध, हनुमान, कृष्ण, महावीर, गोरखनाथ, सप्त ऋषिगण, जिनका नाम लेना ही इस पूरे जीवन को पवित्र और दिव्य बनाने के लिए काफी है। यहां पर सशरीर विद्यमान हैं। परमहंस त्रिजटा जी महाराज, महावतार बाबा जी आहदि इस दिव्य आश्रम की श्रेष्ठ विभूतियां हैं। जगह-जगह पर अनेकानेक योगी तांत्रिक इन महापुरुषों का सत्संग लाभ करते हुए देखे जा सकते हैं। अगर यह भूमि तप भूमि हैं, साधना या तपस्या भूमि हैं तो यह सही अर्थो में सौन्दर्यभूमि भी है। समस्त ब्रह्माण्ड का सौन्दर्य ही मानों इस आश्रम में समाया हुआ है। सिद्धाश्रम देवताओं के लिए भी दुर्लभ एवं अन्यतम स्थान है, जिसे प्राप्त करने के लिए उच्चकोटि के योगी भी तरसते रहते हैं। प्रत्येक साधक अपने मन में यह आकांक्षा लिये रहता है कि उसे एक बार सिद्धाश्रम प्रवेश का अवसर मिल जाएं। परमहंस सच्चिदानंद जी के प्रमुख शिष्य युगपुरुष परमहंस निखिलेश्वरानंद जी इस आश्रम के प्राण हैं। आज जो भी नवीनताएं एवं रोचक बदलाव इस आश्रम में हुए हैं वे सब उन्हीं के प्रयत्नों से संभव हो सका है। वास्तव में बिना निखिलेश्वरानंद जी के तो सिद्धाश्रम की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यही कारण है कि सिद्धाश्रम को निखिल भूमि के नाम से भी पुकारा जाता है। पर इस आश्रम को स्थूल नेत्रों से नहीं देखा जा सकता पर सामान्य व्यक्ति भी सिद्धाश्रम जा सकता है।                 ?निखिलम वंदे जगत गुरु?

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