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Maa Chinnamasta Sadhana Vidhi

Maa Chinnamasta Sadhana Vidhi

छिन्नमस्ता साधना

          माँ भगवती छिन्नमस्ता जयन्ती समीप ही है। इस बार माँ भगवती छिन्नमस्ता जयन्ती ९ मई २०१७ को आ रही है। आप सभी को माँ भगवती छिन्नमस्ता जयन्ती की अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ। 

 

          छिन्नमस्ता शब्द दो शब्दों के योग से बना है - प्रथम छिन्न और द्वितीय मस्ता। इन दोनों शब्दों का अर्थ है - छिन्न यानि अलग या पृथक तथा मस्ता अर्थात मस्तक। इस प्रकार जिनका मस्तक देह से पृथक हैं, वह छिन्नमस्ता कहलाती हैं। देवी अपने मस्तक को अपने ही हाथों से काट कर, अपने हाथों में धारण करती हैं तथा प्रचण्ड चण्डिका जैसे अन्य नामों से भी जानी जाती हैं।

 

          मार्कण्डेय पुराण, शिव पुराण आदि में देवी के इस रूप का विस्तार से वर्णन किया गया है। इनके अनुसार जब देवी ने चण्डी का रूप धरकर राक्षसों का संहार किया। दैत्यों को परास्त करके देवों को विजय दिलवाई तो चारों ओर उनका जय घोष होने लगा। परन्तु देवी की सहायक योगिनियाँ जया और विजया की रुधिर पिपासा शान्त नहीं हो पाई थी, इस पर उनकी रक्त पिपासा को शान्त करने के लिए माँ ने अपना मस्तक काटकर अपने रक्त से उनकी रक्त प्यास बुझाई। इस कारण माता को छिन्नमस्तिका नाम से पुकारा जाने लगा। छिन्नमस्तिका देवी को तन्त्र शास्त्र में प्रचण्ड चण्डिका और चिन्तापूर्णी माता जी भी कहा जाता है।

 

          छिन्नमस्ता की उपस्थिति दस महाविद्याओं में पाँचवें स्थान पर हैं, देवी एक प्रचण्ड डरावनी, भयंकर तथा उग्र रूप में विद्यमान हैं। समस्त देवी-देवताओं से पृथक देवी छिन्नमस्ता का स्वरूप है। देवी स्वयं ही सात्विक, राजसिक तथा तामसिक तीनों गुणों का प्रतिनिधित्व करती हैं, त्रिगुणमयी सम्पन्न हैं। देवी ब्रह्माण्ड के परिवर्तन चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं, सन्पूर्ण ब्रह्माण्ड इस चक्र से चलायमान है। सृजन तथा विनाश का सन्तुलित होना, ब्रह्माण्ड के सुचारु परिचालन हेतु अत्यन्त आवश्यक है। देवी छिन्नमस्ता की आराधना जैन तथा बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं तथा बौद्ध धर्म में देवी छिन्नमुण्डा वज्रवराही के नाम से विख्यात हैं।

 

          छिन्नमस्ता देवी जीवन के परम सत्य मृत्यु को दर्शाती हैं, वासना से नूतन जीवन की उत्पत्ति तथा अन्ततः मृत्यु की प्रतीक स्वरूप हैं देवी। देवी स्व-नियन्त्रण के लाभ, अनावश्यक तथा अत्यधिक मनोरथों के परिणाम स्वरूप पतन, योग अभ्यास द्वारा दिव्य शक्ति लाभ, आत्म-नियन्त्रण, बढ़ती इच्छाओं पर नियन्त्रण का प्रतिनिधित्व करती हैं। देवी योग शक्ति, इच्छाओं के नियन्त्रण और यौन वासना के दमन की विशेषकर प्रतिनिधित्व करती हैं।

 

          छिन्नमस्ता देवी अपने मस्तक को अपने ही खड्ग से काटकर, अपने शरीर से छिन्न या पृथक करती हैं तथा अपने कटे हुए मस्तक को अपने ही हाथ में धारण करती हैं। देवी का यह स्वरूप अत्यन्त ही भयानक तथा उग्र हैं, देवी इस प्रकार के भयंकर उग्र स्वरूप में अत्यधिक कामनाओं तथा मनोरथों से आत्म नियन्त्रण के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करती हैं। देवी छिन्नमस्ता का घनिष्ठ सम्बन्ध "कुण्डलिनी" नामक प्राकृतिक ऊर्जा या मानव शरीर में छिपी हुई प्राकृतिक शक्ति से हैं। कुण्डलिनी शक्ति प्राप्त या जागृत करने हेतु, योग अभ्यास, त्याग तथा आत्म नियन्त्रण की आवश्यकता होती हैं। एक परिपूर्ण योगी बनने हेतु सन्तुलित जीवन-यापन का सिद्धान्त अत्यन्त आवश्यक है, जिसकी शक्ति देवी छिन्नमस्ता ही हैं। परिवर्तन शील जगत (उत्पत्ति तथा विनाश, वृद्धि तथा ह्रास) की शक्ति हैं देवी छिन्नमस्ता। इस चराचर जगत में उत्पत्ति या वृद्धि होने पर देवी भुवनेश्वरी का प्रादुर्भाव होता हैं तथा विनाश या ह्रास होने पर देवी छिन्नमस्ता का प्रादुर्भाव माना जाता हैं।

 

          देवी योग-साधना के उच्चतम स्थान पर अवस्थित हैं। योग शास्त्रों के अनुसार तीन ग्रन्थियाँ ब्रह्मा ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि तथा रुद्र ग्रन्थि को भेद कर योगी पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर पाता हैं तथा उसे अद्वैतानन्द की प्राप्ति होती है। योगियों का ऐसा मानना हैं कि मणिपुर चक्र के नीचे की नाड़ियों में ही काम और रति का निवास स्थान हैं तथा उसी के ऊपर देवी छिन्नमस्ता आरूढ़ हैं तथा इसका ऊपर की ओर प्रवाह होने पर रुद्रग्रन्थि का भेदन होता है।

 

           सामान्यतः हिन्दू धर्म का अनुसरण करने वाले देवी छिन्नमस्ता के भयावह तथा उग्र स्वरूप के कारण, स्वतन्त्र रूप से या घरों में उनकी पूजा नहीं करते हैं। देवी के कुछ-एक मन्दिरों में उनकी पूजा-आराधना की जाती हैं, देवी छिन्नमस्ता तन्त्र क्रियाओं से सम्बन्धित हैं तथा तान्त्रिकों या योगियों द्वारा ही यथाविधि पूजित हैं। देवी की पूजा साधना में विधि का विशेष ध्यान रखा जाता है, देवी से सम्बन्धित एक प्राचीन मन्दिर रजरप्पा में हैं, जो भारत वर्ष के झारखण्ड राज्य के रामगढ़ जिले में अवस्थित हैं। देवी का स्वरूप अत्यन्त ही गोपनीय हैं, इसे केवल सिद्ध साधक ही जान सकता हैं। देवी की साधना रात्रि काल में होती हैं तथा देवी का सम्बन्ध तामसी गुण से हैं।

 

           छिन्नमस्ता  देवी अपना मस्तक काट कर भी जीवित हैं, यह उनकी महान यौगिक (योग-साधना) उपलब्धि हैं। योग-सिद्धि ही मानवों को नाना प्रकार के अलौकिक, चमत्कारी तथा गोपनीय शक्तियों के साथ पूर्ण स्वस्थता प्रदान करती हैं।

 

           छिन्नमस्ता साधना एक ऐसी साधना है, जिसको सम्पन्न कर सामान्य गृहस्थ भी योगी का पद प्राप्त कर सकता है। वायु वेग से शून्य के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकता है। ज़मीन से उठ कर हवा में स्थिर हो सकता है, एक शरीर को कई शरीरों में बदल सकता है और अनेक ऐसी सिद्धियों का स्वामी बन सकता है, आश्चर्य की गणना में आती है।

 

साधना विधान :----------

 

          इस साधना को छिन्नमस्ता जयन्ती अथवा किसी भी मंगलवार से आरम्भ किया जा सकता है। आप चाहे तो इस साधना को नवरात्रि के प्रथम दिन से भी शुरु कर सकते हैं। यह साधना रात्रि काल में ही सम्पन्न की जाती है, अतः मन्त्र जाप रात्रि में ही किया जाए अर्थात यह साधना रात्रि को दस बजे आरम्भ करके प्रातः लगभग तीन या चार बजे तक समाप्त करनी चाहिए।

 

          इस साधना को पूरा करने के लिए सवा लाख मन्त्र जाप सम्पन्न करना चाहिए और यह साधना ग्यारह या इक्कीस दिनों में पूरी होनी चाहिए।

 

          रात्रि को लगभग दस बजे स्नान करके काली अथवा नीली धोती धारण कर लें। फिर साधना कक्ष में जाकर दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके काले या नीले ऊनी आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने किसी बाजोट पर काला अथवा नीला वस्त्र बिछाकर उस पर सद्गुरुदेवजी का चित्र या विग्रह और माँ भगवती छिन्नमस्ता का यन्त्र-चित्र स्थापित कर लें। इसके साथ ही गणपति और भैरव के प्रतीक रूप में दो सुपारी क्रमशः अक्षत एवं काले तिल की ढेरी पर स्थापित कर दें।

 

          अब सबसे पहले साधक शुद्ध घी का दीपक प्रज्ज्वलित कर धूप-अगरबत्ती भी लगा दे। फिर सामान्य गुरुपूजन सम्पन्न करें तथा गुरुमन्त्र की कम से कम चार माला जाप करें। फिर सद्गुरुदेवजी से छिन्नमस्ता साधना सम्पन्न करने की अनुमति लें और उनसे साधना की निर्बाध पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।

 

          इसके बाद साधक संक्षिप्त गणपति पूजन सम्पन्न करें और “ॐ वक्रतुण्डाय हुम्” मन्त्र का एक माला जाप करें। फिर भगवान गणपतिजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।

 

          तत्पश्चात साधक सामान्य भैरवपूजन सम्पन्न करें और “ॐ भ्रं भ्रं हुं हुं विकराल भैरवाय भ्रं भ्रं हुं हुं फट्” मन्त्र का एक माला जाप करें। फिर भगवान विकराल भैरवजी से साधना की निर्बाध पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।

 

          इसके बाद साधना के पहले दिन साधक को संकल्प अवश्य लेना चाहिए। इसके लिए दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प लें कि “मैं अमुक नाम का साधक अमुक गौत्र परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्दजी का शिष्य होकर आज से श्री छिन्नमस्ता साधना का अनुष्ठान प्रारम्भ कर रहा हूँ। मैं नित्य २१ दिनों तक ६० माला मन्त्र जाप करूँगा। हे,  माँ! आप मेरी साधना को स्वीकार कर मुझे इस मन्त्र की सिद्धि प्रदान करें और इसकी ऊर्जा को आप मेरे भीतर स्थापित कर दें।”

 

          ऐसा कह कर हाथ में लिया हुआ जल जमीन पर छोड़ देना चाहिए। इसके बाद प्रतिदिन संकल्प लेने की आवश्यकता नहीं है।

 

          तदुपरान्त साधक माँ भगवती छिन्नमस्ता चित्र और यन्त्र का सामान्य पूजन करे। उस पर कुमकुम, अक्षत और पुष्प चढ़ावें।  किसी मिष्ठान्न का भोग लगाएं। उसके सामने दीपक और लोबान धूप जला लें।

 

          फिर साधक दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न विनियोग मन्त्र पढ़ें ---

 

विनियोग :-----

 

            ॐ अस्य श्री शिरच्छिन्नामन्त्रस्य भैरव ऋषिः सम्राट् छन्दः श्री छिन्नमस्ता देवता ह्रींकारद्वयं बीजं स्वाहा शक्तिः मम् अभीष्ट कार्य सिध्यर्थे जपे विनियोगः।

 

ऋष्यादिन्यास :-----

 

ॐ भैरव ऋषयै नमः शिरसि।             (सिर को स्पर्श करें)

ॐ सम्राट् छन्दसे नमः मुखे।             (मुख को स्पर्श करें)  

ॐ श्री छिन्नमस्ता देवतायै नमः हृदये।   (हृदय को स्पर्श करें)

ॐ ह्रीं ह्रीं बीजाय नमो गुह्ये।            (गुह्य स्थान को स्पर्श करें)

ॐ स्वाहा शक्तये नमः पादयोः।          (पैरों को स्पर्श करें)

ॐ ममाभीष्ट कार्य सिद्धयर्थये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।  (सभी अंगों को स्पर्श करें)

 

करन्यास :-----

 

ॐ आं खड्गाय स्वाहा अँगुष्ठयोः।   (दोनों तर्जनी उंगलियों से दोनों अँगूठे को स्पर्श करें)

ॐ ईं सुखदगाय स्वाहा तर्जन्योः।    (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी उंगलियों को स्पर्श करें)

ॐ ऊं वज्राय स्वाहा मध्यमयोः।     (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा उंगलियों को स्पर्श करें)

ॐ ऐं पाशाय स्वाहा अनामिकयोः।   (दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका उंगलियों को स्पर्श करें)

ॐ औं अंकुशाय स्वाहा कनिष्ठयोः।  (दोनों अँगूठों से दोनों कनिष्ठिका उंगलियों को स्पर्श करें)

ॐ अ: सुरक्ष रक्ष ह्रीं ह्रीं स्वाहा करतलकर पृष्ठयोः।  (परस्पर दोनों हाथों को स्पर्श करें)

 

हृदयादिन्यास :-----

 

ॐ आं खड्गाय हृदयाय नमः स्वाहा।        (हृदय को स्पर्श करें)

ॐ ईं सुखदगाय शिरसे स्वाहा स्वाहा।       (सिर को स्पर्श करें)

ॐ ऊं वज्राय शिखायै वषट् स्वाहा।          (शिखा को स्पर्श करें)

ॐ ऐं पाशाय कवचाय हूं स्वाहा।            (भुजाओं को स्पर्श करें)

ॐ औं अंकुशाय नेत्रत्रयाय वौषट् स्वाहा।     (नेत्रों को स्पर्श करें)

ॐ अ: सुरक्ष रक्ष ह्रीं ह्रीं अस्त्राय फट् स्वाहा। (सिर से घूमाकर तीन बार ताली बजाएं)

 

व्यापक न्यास :-----

 

ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्रवेरोचनियै ह्रींह्रीं फट् स्वाहा मस्तकादि पादपर्यन्तम्।

ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्रवेरोचनियै ह्रीं ह्रीं फट् स्वाहा पादादि मस्तकान्तम्।

 

                इससे तीन बार न्यास करें।

                इसके बाद साधक हाथ जोड़कर निम्न ध्यान मन्त्र से भगवती छिन्नमस्ता का ध्यान करें ---

 

ध्यान :-----

 

ॐ भास्वन्मण्डलमध्यगां निजशिरश्छिन्नं विकीर्णालकम्

     स्फारास्यं प्रपिबद्गलात् स्वरुधिरं वामे करे बिभ्रतीम्।

     याभासक्तरतिस्मरोपरिगतां सख्यौ निजे डाकिनी

     वर्णिन्यौ परिदृश्य मोदकलितां श्रीछिन्नमस्तां भजे॥

 

              इसके बाद साधक भगवती छिन्नमस्ता के मूलमन्त्र का रद्राक्ष माला से ६० माला जाप करें ---

 

मन्त्र :----------

 

        ॥ ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै ह्रीं ह्रीं फट् स्वाहा ॥

 

OM SHREEM HREEM HREEM KLEEM AIM VAJRA VAIROCHANEEYEI HREEM HREEM PHAT SWAAHA.

 

              मन्त्र जाप के उपरान्त साधक निम्न सन्दर्भ का उच्चारण करने के बाद एक आचमनी जल छोड़कर सम्पूर्ण जाप भगवती छिन्नमस्ता को समर्पित कर दें।

 

ॐ गुह्यातिगुह्य गोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपं।

     सिद्धिर्भवतु मे देवि! त्वत्प्रसादान्महेश्वरि ॥

 

              इस प्रकार यह साधना क्रम साधक नित्य २१ दिनों तक निरन्तर सम्पन्न करें।

 

              जब पूरे सवा लाख मन्त्र जाप हो जाएं,  तब पलाश के पुष्प अथवा बिल्व के पुष्पों से दशांश हवन करें। ऐसा करने पर यह साधना सिद्ध हो जाती है।

 

साधना नियम :----------

 

१. ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें।

२. एक समय फलाहार लें,  अन्न लेना वर्जित है।

३. मन्त्र जाप समाप्ति के बाद उसी स्थान पर सो जाएं।

४. साधना काल में साधक अन्य कोई  कार्य, नौकरी, व्यापार आदि न करे।

 

              छिन्नमस्ता साधना सौम्य साधना है और आज के भौतिक युग में इस साधना की नितान्त आवश्यकता है। इस साधना के द्वारा साधक जहाँ पूर्ण भौतिक सुख प्राप्त कर सकता है, वहीं वह आध्यात्मिक क्षेत्र में भी पूर्णता प्राप्त करने में समर्थ होता है। साधक कई साधनाओं में स्वतः सफलता प्राप्त कर लेता है और इस साधना के द्वारा कई-कई जन्मों के पाप कटकर वह निर्मल हो जाता है। यह साधना अत्यधिक सरल, उपयोगी और आश्चर्यजनक सफलता देने में समर्थ है।

 

              आपकी साधना सफल हो और माँ भगवती छिन्नमस्ता का आपको आशीष प्राप्त हो। मैं सद्गुरुदेव भगवानजी से ऐसी ही प्रार्थना करता हूँ।

 


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