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प्रेम परिभाषा है सच्चा प्यार है तो, यह ऐसा कैसे हो सकता है ?

प्रेम परिभाषा है सच्चा प्यार है तो, यह ऐसा कैसे हो सकता है ?

प्रेम शब्द का इस हद तक दुरुपयोग हुआ है कि हर एक कदम पर इसके अर्थ को लेकर प्रश्न खड़े होते है।

यदि यह सच्चा प्यार है तो, यह ऐसा कैसे हो सकता है ?

 

सिर्फ ज्ञानीपुरुष ही जो केवल प्रेम कि जीवंत मूर्ति हैं, हमें प्रेम कि सही परिभाषा बता सकते हैं।

सच्चा प्रेम वही है जो कभी बढ़ता या घटता नहीं है।

मान देनेवाले के प्रति राग नहीं होता, न ही अपमान करनेवाले के प्रति द्वेष होता है। ऐसे प्रेम से दुनिया निर्दोष दिखाई देती है।

यह प्रेम मनुष्य के रूप में भगवान का अनुभव करवाता है।

 

संसार में सच्चा प्रेम है ही नहीं।

सच्चा प्रेम उसी व्यक्ति में हो सकता है जिसने अपने आत्मा को पूर्ण रूप से जान लिया है।

प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है।

 

 

प्रेम के संदर्भ में इतना ज्यादा सार्थक एवं अर्थपूर्ण लेखन किए जाने के बावजूद किसी संत या मनीषी द्वारा आज तक निर्विकार प्रेम की ऐसी कोई सार्वभौमिक या सर्वमान्य परिभाषा नहीं लिखी जा सकी है, जिसे सभी एकमत होकर स्वीकार कर सकें

और न ही भविष्य में ऐसा होने की कोई संभावना है।

 

ऐसा कहा जाता है कि प्रेम को अभिव्यक्त करने की सर्वोत्तम भाषा मौन है,

क्योंकि प्रेम मानव मन का वह भाव है, जो कहने-सुनने के लिए नहीं बल्कि समझने के लिए होता है या

उससे भी बढ़कर महसूस करने के लिए होता है।

 

प्रेम ही मानव जीवन की नींव है।

प्रेम के बिना सार्थक एवं सुखमय इंसानी जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती है।

प्रेम की परिभाषा शब्दों की सहायता से संभव ही नहीं है।

 

सारे शब्दों के अर्थ जहां जाकर अर्थरहित हो जाते हैं, वहीं से प्रेम के बीज का प्रस्फुटन होता है।

वहीं से प्रेम की परिभाषा आरंभ होती है।

प्रेम का अर्थ शब्दों से परे है।

प्रेम एक सुमधुर सुखद अहसास मात्र है।

प्रेम की मादकता भरी खुशबू को केवल महसूस किया जा सकता है।

प्रेम का अहसास अवर्णनीय है।

इसलिए इस मधुर अहसास के विश्लेषण की भाषा को मौन कहा गया है।

 

प्रेम इंसान की आत्मा में पलने वाला एक पवित्र भाव है।

दिल में उठने वाली भावनाओं को आप बखूबी व्यक्त कर सकते हैं किंतु यदि आपके हृदय में किसी के प्रति प्रेम है तो आप उसे अभिव्यक्त कर ही नहीं सकते, क्योंकि यह एक अहसास है और अहसास बेजुबान होता है, उसकी कोई भाषा नहीं होती।

 

सच्चा प्यार केवल देने और देते रहने में ही विश्वास करता है।

 

 

" जहाँ प्रेम है, वहाँ समर्पण है .... जहाँ समर्पण है, वहाँ अपनेपन की भावना है और

जहाँ यह भावना रूपी उपजाऊ जमीन है, वहीं प्रेम का बीज अंकुरित होने की संभावना है। "

 

जिस प्रकार सीने के लिए धड़कन जरूरी है, उसी तरह जीवन के लिए प्रेम आवश्यक है।

तभी तो प्रेम केवल जोड़ने में विश्वास रखता है न कि तोड़ने में।

 

सही मायने में सच्चा एवं परिपक्व प्रेम वह होता है, जो कि अपने प्रिय के साथ हर दुःख-सुख, धूप-छाँव, पीड़ा आदि में हर कदम सदैव साथ रहता है और अहसास कराता है कि मैं हर हाल में तुम्हारे साथ, तुम्हारे लिए हूँ।

 

प्रेम को देखने-परखने के सबके नजरिए अलग हो सकते हैं,

किंतु प्रेम केवल प्रेम ही है और प्रेम ही रहेगा क्योंकि अभिव्यक्ति का संपूर्ण कोष रिक्त हो जाने के बावजूद और अहसासों की पूर्णता पर पहुँचने के बाद भी प्रेम केवल प्रेम रहता है।

 

समाजिक दृष्टि से भी प्रेम की शक्ति, बहुत महान और प्रभावी है। 

अच्छा समाज वह समाज है जिसका संचालन प्रेमपूर्वक ढंग से किया जाए।

इसका कारण यह है कि प्रेम और अनुसरण के बीच सीधा संपर्क पाया जाता है। 

 

प्रेम, एक बहुत ही सुन्दर शब्द है जो मानव जीवन का एक बहुत ही मीठा आभास है।

संसार के प्रत्येक व्यक्ति के भीतर प्रेम करने तथा लोकप्रिय बनने की कामना पाई जाती है। 

वास्तव में लोग, प्रेम तथा भलाई के भूखे होते हैं।

इस आधार पर जो भी कृपालु व दानी होता है वह लोगों के बीच लोकप्रिय होता है ...

दूसरी ओर कहा जाता है कि प्रेम, प्रेम को लाता है।

जो भी अपने प्रेम को दूसरों पर न्योछावर करता है उसके सामने वाला भी उससे प्रेम करने लगता है।

 

किसी परिवार को भी अपनी सुदृढ़ता और उसे बाक़ी रहने के लिए प्रेम की आवश्यकता होती है। 

एक ऐसा परिवार जहां पर प्रेमपूर्ण वातावरण पाया जाता हो वह भावनात्मक रूप से आत्मनिर्भर बच्चों का उचित ढंग से प्रशिक्षण कर सकता है। 

इसका मुख्य कारण यह है कि बच्चे के लिए प्रेम की तुलना में कोई अन्य चीज़ अच्छी नहीं है अर्थात वे प्रेम के भूखे नहीं हैं और उनके भीतर सबसे अधिक प्रेम प्राप्ति की भावना पाई जाती है।

परिवार में यदि प्रेम पाया जाता हो तो वह अपने सदस्यों को तृप्त करता है और यदि एसा न हो तो फिर वह झूठे प्रेम की ओर ले जाता है जिसका अंत विनाश होता है।

प्रेम, बच्चे के प्रशिक्षण का मूल आधार है और इसके बिना प्रशिक्षण के लिए हर कार्य परिणामहीन रहेगा।

 

असीम प्रेम का प्रकाशमय स्रोत है ईश्वर ... 

उसने ही जीवन प्रदान करने वाली यह पूंजी अर्थात प्रेम को मानव के अस्तित्व में निहित किया है ताकि मानवता स्पष्ट हो सके। 

वह व्यक्ति जो प्रेम करता है अपने पूरे अस्तित्व के साथ ईश्वर की उपासना करता है।

मनुष्य प्रेम का आभास पहली बार अपने परिवार में करता है और वहीं से उसे सीखता है। 

 

प्रेम की प्रथम अनुभूति उसे माता के स्नेह से मिलती है और

प्रेम से ओतप्रोत पिता की कृपादृष्टि से वह प्रसन्नचित होता है।

 

वास्तविकता यह है कि

" मनुष्य का शरीर भोजन से और उसकी आत्मा, प्रेम से विकसित होते हैं। "

 

! ॐ नमः शिवाय !

 

प्रेम <3

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