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Kundali Jagran gabhasya sishu Chetna diksha

Kundali Jagran gabhasya sishu Chetna diksha

?कुण्डलिनी जाग्रत, ब्रह्माण्डात्माम् मंत्र? ## एक प्रकार से देखा जाए तो ये विश्व मंत्र हैं, इन्हे विश्वदेवात्माम् कहा गया है, इसलिए इन मंत्रो को ब्रह्मण्डात्माम् कहा गया है़......आखिर इन शब्दो का कोई न कोई अर्थ तो होगा ? आखिर इन शब्दों का कोई न कोई प्रयोजन तो होगा..... बिना प्रयोजन के ये मंत्र समस्त ब्रह्मण्ड में स्वत: ही विचरण करते नहीं रहते हैं । जब हम इन मंत्रो का उच्चारण करते हैं, तो ब्रह्मण्ड में विचरित होते हुए मंत्रों को ग्राह्या करते हैं, और जब ब्रह्मण्ड के मंत्रों का इन मंत्रो से सम्बन्ध स्थापित होता है, तब एक विस्फोट पैदा होता है ,एक चेतना पैदा होती है, एक दिव्यता पैदा होती है, एक तेजस्विता पैदा होती है , जो सुनने वाले के हृदय पर एक तेजस्वी बिम्ब स्थापन कर लेती है । ## यह मंत्र स्वयं प्रकृति निर्मित हैं, प्रकृति ने ही इस मंत्र का निर्माण किये हे । जिनको न देवताओं ने बनाया है , न यक्षों ने ,न गंधर्वो ने , न किन्नरों ने , न मनुष्यों ने, न ऋषियों ने । # ये मंत्र स्वयंभू हैं, ये स्वत: उत्पन्न हैं । जो अपने आप में दिव्य और चेतना युक्त हैं। मंत्र के साथ ध्वनि अत्यन्त आवश्यक और अनिवार्य तत्व है.......इसलिए यह आवश्यक है कि इन मंत्रो को उसी ध्वनि में उच्चरित करे, जिस ध्वनि के साथ प्रकृति ने इनको निर्मित किया है । ...... इस मंत्र के प्रभाव द्वारा शरीर के सातों द्वारों को खोलना, क्रिया योग और कुण्डलिनी जागरण का ही एक प्रारम्भिक और अन्तिम प्रयोग है, जिसके माध्यम से कुण्डलिनी जाग्रत हो सकती है, जिसके माध्यम से क्रियायोग सम्पन्न हो सकता है , जिसके माध्यम से शरीर के सातों द्वार जाग्रत हो सकते हैं, जिसके माध्यम से नर अपने आप में पूर्ण पुरुष बन सकता है........ और जिसके माध्यम से जीवन की पूर्णता, दिव्यता, श्रेष्ठता, सफलता और सम्पन्नता प्राप्त हो सकती है । " मंत्र" गणपति पूजन ---------- श्रीमन् महा गणाधिपतये नम: लक्ष्मी नारायणाभ्यां नम: उमा महेश्वराभ्यां नम: शचि पुरन्दराभ्यां नम: मातृ पितृ चरण कमलेभ्यो नम: इष्ट देवताभ्यो नम: कुल देवताभ्यो नम: ग्राम देवताभ्यो नम: स्थान देवताभ्यो नम: वासुदेवताभ्यो नम: वाणी हिरण्यगर्भाभ्यां नम: सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम: सर्वेभ्यो ऋषिभ्यो नम: गणपति स्मरेत् ------------ विध्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय लम्बोदराय सकलाय जगद्विताय! नागाननाय श्रुति यज्ञ विभूषिताय गौरी सुताय गणनाथ नमो नमस्ते । भक्तार्तिनाशनपराय गणेश्वराय सर्वेश्वराय शुभदाय सुरेश्वराय । विघाधराय विकटायच वामनाथ भक्तप्रसन्न वरदाय नमो नमस्ते । नमस्ते ब्रह्मरुपाय विष्णुरुपायते नम:। नमस्ते रुद्ररुपाय करिरुपायते नम:।। विश्वरुपस्य रुपाय नमस्ते बह्मचारिणे । भक्तप्रियाय देवाय नमस्तुभ्यं विनायक ।। लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकप्रिय । निर्विध्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ।। त्वां विध्न शत्रु दलनेति च सुन्दरेति । भक्तप्रियेति शुभदेति फलप्रदेति।। विघाप्रदेत्यघहरेति च ये स्तुवन्ति । तेभ्यो गणेश वरदो भव नित्यमेवि। अनयापूजया सांगाय सपरिवाराय सकलाय सशक्तिकाय महागणपतिम् आवाहयामिं स्थापयामि । # इसके बाद दोनों हाथ जोडकर गुरु का ध्यान करें- ---------------------------------- गुरुर्ब्रह्म गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर : । गुरु: साक्षात् परब्रह्मा तस्मै श्री गुरवे नम:। ध्यानमूलं गुरोर्मूर्ति: पूजामूलं गुरो: पदं । मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरो: कृपा ।। मूकं करोति वाचालं पंगु लंघयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम ।। ## अब ये पांचों श्लोकों को श्रवण से जो प्रकृति निर्मित हैं, इसमें पूर्ण गुरुत्व समाहित है, इन मंत्रों के श्रवण से - मंत्र ,गुरु और श्रवण कर्ता तीनों का एक दूसरे से पूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, और देखा जाए तो गुरुत्व पूर्णत: जाग्रत और चैतन्य हो कर विकसित हो जाता है - पूर्णां परेवां मदवं गुरुर्वै चैतन्य रुपं धारं धरेशं गुरुर्वै सनतां दीर्ध मदैव तुल्यं गुरुर्वै प्रणम्यं गुरुर्वै प्रणम्यं अचिन्त्य रुपं अविकल्प रुपं ब्रह्म स्वरुपं विष्णु स्वरुपं रुद्रात्वमेव परतं परब्रह्मा रुपं गुरुर्वै प्रणम्यं गुरुर्वै प्रणम्यं हे आदिदेवं प्रभवं परेशां अविचिन्त्य रुपं हृदयस्थ रुपं ब्रह्मण्ड रुप परमं प्रणितं प्रमेयंगुरुर्वै प्रणम्यं गुरुर्वै प्रणम्यं हृदयं त्वमेवं प्राणं त्वमेवं देवं त्वमेवं ज्ञानं त्वमेवं चैतन्य रुप मपरं तहिदेव नित्यं गुरुर्वै प्रणम्यं गुरुर्वै प्रणम्यं अनादि अकल्पं यवां पूर्ण नित्यं अजन्मां अगोचर अदिर्वां अदेयम अदैवांसरि पूर्ण मदैव रुपं गुरुर्वै प्रणम्यं गुरुर्वै प्रणम्यं ■ [इन पांच श्लोको के साथ साथ उन विशिष्ट पंच श्लोकों का भी उच्चारण करना चाहिए , जिन श्लोको के माध्यम से " पूज्य निखिलेश्वरानन्द जी " पूर्ण रुप से गुरु रुप में आपके सामने स्पस्ट होते हुए चैतन्य दीक्षा दे सकें और चेतना मंत्रो के साथ समाविष्ट हो सके आपके शरीर मे, आपके जीवन में ।] आदोवदानं परमं सदेहं प्राण प्रमेयम परसंप्रभूतं । पुरुषोत्मां पूर्ण मदैव रुपं निखिलेश्वरोयं प्रणमं नमामि ।। अहिर्गोत रुपं सिद्वाश्रमोयं पूर्णस्व रुपं चैतन्य रुपं । दीर्घो वतां पूर्ण मदैव नित्यं निखिलेश्वरोयं प्रणमं नमामि ।। ब्रह्माण्डमेवं ज्ञानोर्णवापं सिद्वाश्रमोयं सवितं संदेयं । अजन्मं प्रवां पूर्ण मदैव चित्यं निखिलेश्वरोयं प्रणमं नमामि ।। गुरुर्वै त्वमेवं प्राण त्वमेवं आत्म त्वमेवं श्रेष्ठ त्वमेवं । आविभ्र्य पूर्ण मदैव रुपं निखिलेश्वरोयं प्रणमं नमामि ।। प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं परेशां प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं विवेशां । प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं सुरेशां निखिलेश्वरोयं प्रणमं नमामि ।। -जय गुरुदेव

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