त्रिनाभिमती पञ्चारे षण्नेमिन्यक्षयात्मके l
संवत्सरमये कृत्स्रम् कालचक्रम् प्रतिष्ठितं ll
तीन नाभियों से युक्त है सूर्य के रथ का चक्र,अर्थात भूत भविष्य और वर्तमान ये तीनो काल ही सूर्य रथ चक्र की तीन नाभि है,नाभि अर्थात जहाँ स्पंदन होता हो प्राणों का lवेदों मे काल को प्राण ही तो कहा गया है l और सूर्य इन प्राणों का अधिपति है,अर्थात जहाँ कालमयी दृष्टि की बात आती हो या अपनी दृष्टि को काल के परे ले जाकर व्यापकता प्रदान
करनी हो तो सूर्य की साधना करनी ही पड़ेगी और उनके रहस्यों को आत्मसात करना ही पड़ेगा l बहुधा साधकों के मन मे सूक्ष्म शरीर सिद्धि का सरलतम विधान जानने की बात आती है ,परन्तु शास्त्रों मे ऐसी कोई क्रिया स्पष्ट नहीं है ,जिसके माध्यम से सरलतापूर्वक स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर को प्रथक कर उन गुह्य और अनबुझे स्थानों की यात्रा की जा सके,जहाँ आज भी प्राच्य आध्यात्मिक उर्जा बिखरी पड़ी है और जहाँ जन सामान्य के कदम पड ही नहीं सकते,इसलिए ये स्थान अबूझ ही रह गए हैं और अबूझ रह गयी है यहाँ पर दिव्य उर्जाओं की उत्पत्ति का रहस्य भी lजब सिद्ध मंडल से साधनात्मक ज्ञान प्राप्ति की बात आती है तो हमारे चेहरे मात्र लटक ही सकते हैं क्यूंकि हमने कभी सदगुरुदेव की व्यापकता को समझा ही नहीं,अन्यथा उनसे सूर्य विज्ञानं के ऐसे ऐसे रहस्य प्राप्त किये जा सकते थे जो की कल्पनातीत ही कहे जा सकते हैंl
हमने मात्र पदार्थ परिवर्तन को ही सूर विज्ञानं की प्रमुख उपलब्धि माना है और समझा है परन्तु हम ये नहीं जानते हैं की प्राण रहस्य को समझ लेने के बाद किसी भी लोक मे गमन,ग्रहों पर नियंत्रण और कुंडलिनी भेदन इत्यादि की प्राप्ति अत्यधिक सरल हो जाती है l सूर्य की सप्त किरणों और उनके रंगों मे कुंडलिनी जागरण, काल-दृष्टि की प्राप्ति और ब्रह्माण्ड के अबूझे रहस्य हस्तामलकवत दृष्टि गोचर होने लगते हैं l सप्त रंगों मे बिखरी सूर्य की किरणों का सम्मिलित रूप श्वेत है जो की व्यापकता का परिचायक है और परिचायक है पूर्णता का भीl
भला कैसे ???
क्या आप जानते हैं की सूर्य के सप्त रंगों से लोकानुलोक गमन का गहरा सम्बन्ध है, सविता मंत्र का मूल ध्वनि मे किया गया उच्चारण आपके शरीर को अणुओं के रूप मे विखंडित कर देता है और ये विखंडन मनोवांछित लोक मे पहुचकर वापिस अपना मूल स्वरुप पा लेता है, अक्सर ऐसे मे इन अणुओं के बिखर जाने का भय होता है परन्तु सूर्य विज्ञानं का अध्येता ये भलीभांति जानता है की सूर्य प्राणों का परिचायक है ,अर्थात प्राणशक्ति की सघनता और उससे प्राप्त बल,विखंडित अवस्था मे भी हमारे शरीर के अणुओं को बिखरने से बचाए रखती है ,और अणुओं के चारो और एक आवरण बना देती है जिसके कारण ब्रह्मांडीय यात्रा के मध्य शरीर के अणु किसी भी बाह्य आघात से पूरी तरह सुरक्षित रहते हैं ,और उनकी मनोवांछित लोकों मे जाकर साकार होने की कामना मे कोई बाधा नहीं आती है ,और एक बार जब कोई मनोवांछित लोक मे पहुच जाता है तो वह देह वहाँ के वातावरण के अनुकूल बन जाती है और तब वहाँ के रहस्य और विज्ञानं को समझना सहज हो जाता है l वस्तुतः सूर्य की किरणों के सात रंग यथा बैगनी,जामुनी,नीला,हरा ,पीला,नारंगी और लाल का सप्त लोको से गहरा सम्बन्ध है –
भू,भुवः ,स्वः ,मह :,जनः,तपः और सत्यम, और इस सम्बन्ध को ज्ञात करने के लिए हमें श्वेत की अर्थात आदित्य के रहस्य को समझना पड़ेगा , क्यूंकि ये सभी रंग सम्मिलित होकर श्वेत का ही विस्तार करते हैं lतभी कालचक्र का सहयोग लेकर आप कालभेदी दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं और ये कोई जटिल कार्य नहीं है lयदि साधक सूर्योदय के पहले पूर्व की तरफ मुख करके "ॐ" का गुंजरन ७ मिनट तक नित्य करे और फिर सूर्योदय के साथ ही ७० मिनट तक गायत्री मंत्र का जप और फिर पुनः ७ मिनट तक "ॐ" का गुंजरनl
यदि इस क्रिया को ३ रविवार तक नित्य दोहराया जाये तो सूर्य के मध्य मे होने वाले विस्फोटों का मूल अंतर्गत कारण हम भली भांति समझ सकते हैं और उर्जा की उत्पत्ति का रहस्य भी ज्ञात हो जायेगा,क्यूंकि ये "ॐ" की ही ध्वनि है जो की इस क्रम से प्रयोग करने पर बाह्य सूर्य का अन्तः सूर्य से तारतम्य बिठाकर रहस्यों के आदान-प्रदान की क्रिया सरल कर देती है lऔर इस प्रकार सविता मन्त्र का सहयोग आपको कालचक्र की विविध शक्तियों का स्वामी बना देता है तब कालातीत दृष्टि पाना भला कहाँ असंभव रह जाता हैl