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वेदों में सभी चार वर्णों

वेदों में सभी चार वर्णों

आज एक मित्र की प्रेरणा से वेदों पर आधारित कुछ लेख प्राप्त हुए जिंनके कुछ अंश यहां प्रस्तुत है
मै स्वयं ब्राह्मण हु लेकिन जाती वाद का घोर विरोधी हु और किसी भी प्रकार के जातिगत भेद की आलोचना करता हूँ
मैंने कई बार इस सन्दर्भ में पोस्ट लिखी और पूर्ण हिन्दुत्व की बात की .
प्रस्तुत है कुछ तथ्य
वेदों में सभी चार वर्णों को जिनमें शूद्र भी शामिल हैं, आर्य माना गया है और अत्यंत सम्मान दिया गया है | यह हमारा दुर्भाग्य है कि वेदों की इन मौलिक शिक्षाओं को हमने विस्मृत कर दिया है, जो कि हमारी संस्कृति की आधारशिला हैं | और जन्म-आधारित जाति व्यवस्था को मानने तथा कतिपय शूद्र समझी जाने वाली जातियों में जन्में व्यक्तियों के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार आदि करने की गलत अवधारणाओं में हम फँस गए हैं |
कम्युनिस्ट और पूर्वाग्रह ग्रस्त भारतीय चिंतकों की भ्रामक कपोल कल्पनाओं ने पहले ही समाज में अलगाव के बीज बो कर अत्यंत क्षति पहुंचाई है | अभाग्यवश दलित कहे जाने वाले लोग खुद को समाज की मुख्य धारा से कटा हुआ महसूस करते हैं, फलतः हम समृद्ध और सुरक्षित सामाजिक संगठन में नाकाम रहे हैं | इस का केवल मात्र समाधान यही है कि हमें अपने मूल, वेदों की ओर लौटना होगा और हमारी पारस्परिक (एक-दूसरे के प्रति) समझ को पुनः स्थापित करना होगा | इस लेख में हम वेदों में जाति व्यवस्था की वास्तविकता और शूद्र के यथार्थ अर्थ का आकलन करेंगे |
१. वेदों में मूलतः ब्राहमण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र पुरुष या स्त्री के लिए कहीं कोई बैरभाव या भेदभाव का स्थान नहीं है |
२. जाति की अवधारणा यदि देखा जाए तो काफ़ी नई है | जाति के पर्याय के रूप में स्वीकार किया जा सके या अपनाया जा सके ऐसा एक भी शब्द वेदों में नहीं है | जाति के नाम पर साधारणतया स्वीकृत दो शब्द हैं — जाति और वर्ण | किन्तु सच यह है कि तीनों ही पूर्णतया भिन्न अर्थ रखते हैं |जाति की अवधारणा यूरोपियन दिमाग की उपज है जिसका तनिक अंश भी वैदिक संस्कृति में नहीं मिलता |
जाति – जाति का अर्थ है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण | न्याय सूत्र यही कहता है “समानप्रसवात्मिका जाति:” अथवा जिनके जन्म का मूल स्त्रोत सामान हो (उत्पत्ति का प्रकार एक जैसा हो) वह एक जाति बनाते हैं | ऋषियों द्वारा प्राथमिक तौर पर जन्म-जातियों को चार स्थूल विभागों में बांटा गया है – उद्भिज(धरती में से उगने वाले जैसे पेड़, पौधे,लता आदि), अंडज(अंडे से निकलने वाले जैसे पक्षी, सरीसृप आदि), पिंडज (स्तनधारी- मनुष्य और पशु आदि), उष्मज (तापमान तथा परिवेशीय स्थितियों की अनुकूलता के योग से उत्त्पन्न होने वाले – जैसे सूक्ष्म जिवाणू वायरस, बैक्टेरिया आदि) |
हर जाति विशेष के प्राणियों में शारीरिक अंगों की समानता पाई जाती है | एक जन्म-जाति दूसरी जाति में कभी भी परिवर्तित नहीं हो सकती है और न ही भिन्न जातियां आपस में संतान उत्त्पन्न कर सकती हैं | अतः जाति ईश्वर निर्मित है |
जैसे विविध प्राणी हाथी, सिंह, खरगोश इत्यादि भिन्न-भिन्न जातियां हैं | इसी प्रकार संपूर्ण मानव समाज एक जाति है | ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी भी तरह भिन्न जातियां नहीं हो सकती हैं क्योंकि न तो उनमें परस्पर शारीरिक बनावट (इन्द्रियादी) का भेद है और न ही उनके जन्म स्त्रोत में भिन्नता पाई जाती है |
वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए प्रयुक्त किया गया सही शब्द – वर्ण है – जाति नहीं | सिर्फ यह चारों ही नहीं बल्कि आर्य और दस्यु भी वर्ण कहे गए हैं | वर्ण का मतलब है जिसे वरण किया जाए (चुना जाए) | अतः जाति ईश्वर प्रदत्त है जबकि वर्ण अपनी रूचि से अपनाया जाता है | जिन्होंने आर्यत्व को अपनाया वे आर्य वर्ण कहलाए और जिन लोगों ने दस्यु कर्म को स्वीकारा वे दस्यु वर्ण कहलाए | इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण कहे जाते हैं | इसी कारण वैदिक धर्म ‘वर्णाश्रम धर्म’ कहलाता है | वर्ण शब्द का तात्पर्य ही यह है कि वह चयन की पूर्ण स्वतंत्रता व गुणवत्ता पर आधारित है |
३. बौद्धिक कार्यों में संलग्न व्यक्तियों ने ब्राहमण वर्ण को अपनाया है | समाज में रक्षा कार्य व युद्धशास्त्र में रूचि योग्यता रखने वाले क्षत्रिय वर्ण के हैं | व्यापार-वाणिज्य और पशु-पालन आदि का कार्य करने वाले वैश्य तथा जिन्होंने इतर सहयोगात्मक कार्यों का चयन किया है वे शूद्र वर्ण कहलाते हैं | ये मात्र आजीविका के लिए अपनाये जाने वाले व्यवसायों को दर्शाते हैं, इनका जाति या जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है |
यदि ब्राह्मण का पुत्र विद्या प्राप्ति में असफल रह जाए तो शूद्र बन जाता है | इसी तरह शूद्र या दस्यु का पुत्र भी विद्या प्राप्ति के उपरांत ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण को प्राप्त कर सकता है |यह सम्पूर्ण व्यवस्था विशुद्ध रूप से गुणवत्ता पर आधारित है | जिस प्रकार शिक्षा पूरी करने के बाद आज उपाधियाँ दी जाती हैं उसी प्रकार वैदिक व्यवस्था में यज्ञोपवीत दिया जाता था | प्रत्येक वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्यकर्म का पालन व निर्वहन न करने पर यज्ञोपवीत वापस लेने का भी प्रावधान था |८. वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण उपस्थित हैं, जैसे -
(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की | ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है |
(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये |ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?
(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |
(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना |
(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
९. वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग बीस बार आया है | कहीं भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है | और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने ,उन्हें वेदाध्ययन से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है |

४. वेदों में अति परिश्रमी कठिन कार्य करने वाले को शूद्र कहा है (“तपसे शूद्रम”-यजु .३०.५), और इसीलिए पुरुष सूक्त शूद्र को सम्पूर्ण मानव समाज का आधार स्तंभ कहता है |
५. चार वर्णों से अभिप्राय यही है कि मनुष्य द्वारा चार प्रकार के कर्मों को रूचि पूर्वक अपनाया जाना | वेदों के अनुसार एक ही व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में चारों वर्णों के गुणों को प्रदर्शित करता है | अतः प्रत्येक व्यक्ति चारों वर्णों से युक्त है | तथापि हमने अपनी सुविधा के लिए मनुष्य के प्रधान व्यवसाय को वर्ण शब्द से सूचित किया है |

अतः वैदिक ज्ञान के अनुसार सभी मनुष्यों को चारों वर्णों के गुणों को धारण करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए | यही पुरुष सूक्त का मूल तत्व है | वेद के वशिष्ठ, विश्वामित्र, अंगीरा, गौतम, वामदेव और कण्व आदि ऋषि चारों वर्णों के गुणों को प्रदर्शित करते हैं | यह सभी ऋषि वेद मंत्रों के द्रष्टा थे (वेद मंत्रों के अर्थ का प्रकाश किया) दस्युओं के संहारक थे | इन्होंने शारीरिक श्रम भी किया तथा हम इन्हें समाज के हितार्थ अर्थ व्यवस्था का प्रबंधन करते हुए भी पाते हैं | हमें भी इनका अनुकरण करना चाहिए |
सार रूप में, वैदिक समाज मानव मात्र को एक ही जाति, एक ही नस्ल मानता है | वैदिक समाज में श्रम का गौरव पूर्ण स्थान है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी रूचि से वर्ण चुनने का समान अवसर पाता है | किसी भी किस्म के जन्म आधारित भेद मूलक तत्व वेदों में नहीं मिलते |
अतः हम भी समाज में व्याप्त जन्म आधारित भेदभाव को ठुकरा कर, एक दूसरे को भाई-बहन के रूप में स्वीकारें और अखंड समाज की रचना करें |



शिव धर्म शिव धर्म Shiv Dharma जीवन को सार्थक बनाने के लिए , पाचं मुख्य पुरुषार्थों - 1- धर्म, 2- अर्थ, Lakshmi धन 3- काम शिव के प्रति प्रेम 4- मोक्ष- Sehsrar Chakra 5- पराब्रम्हा शिव शक्ति इन पाचं स्तम्भों पर ही आत्मा बीज रूप में मुलाधार आत्मा का आधार है। १- प्रथम है धर्म - विजय भाव ऊर्जा , की विजय केवल अन्त मे सत्य की ही होती है। शिव धर्म द्वारा ही बाकी स्तम्भों को ऊर्जा प्राप्त होती है। इस स्तम्भ बीज रूप को ऊर्जा शिव लिंग द्वारा प्राप्त होती रहती है। यहीं से मोक्ष कुंडलीनी जागरण ओर सम्पूर्ण विश्व की सिद्धीयों , एवं जीवन आत्मा का विकास आर्थिक विकास का पहला द्वार खुलता है। २- दुसरा है अर्थ - यानी की धन, सुविधा वगैरह जो शिव धर्म की ऊर्जा से पुरुषार्थ शक्ति द्वारा प्राप्त होता है। यही से शनि भी दन्ड देता है। शनि का कार्य स्थल ब्राह्म चक्र मे भी है। वह सूर्य स्थल से भी दन्डीत करता है। तीसरा- काम यह धर्म स्थान को बहुत ज्यादा प्रभावित करता है , अगर शिव जी को इस स्थान पर जागरण कर तीसरा नेत्र शिव से जोड़ ले ओर शिव शक्ति के सच्चे प्रेम द्वारा ही , अधर्म से बचा जा सकता हैं। अन्यथा अधर्म कार्य करने से यहां पर आत्मा का स्तम्भ कमजोर होने लगता है। जीवन काल मे जो हम कार्य करते हैं वह यही से बनने या बिगडते हैं। ४ - मोक्ष - इन तीन स्तम्भो का आधार ही मोक्ष होता है, रास्ता है शिव धर्म । यह स्तम्भ महा काली , गणेश की ऊर्जा का स्रोत हैं। काली यही से पुरी संसार की आत्माओ की जननी है। 5- परा ब्राह्म सदा शिव शक्ति सहस्रार चक्र प्रथम तीन पुरुषार्थ साधनरूप से तथा अंतिम साध्यरूप से व्यवस्थित था। मोक्ष परम पुरुषार्थ, अर्थात्‌ जीवन का अंतिम लक्ष्य था, किंतु वह अकस्मात्‌ अथवा कल्पनामात्र से नहीं प्राप्त हो सकता है। उसके लिए साधना द्वारा क्रमश: जीवन का विकास और परिपक्वता की आवश्यक होती है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारतीय समाजशास्त्रियों ने आश्रम संस्था की व्यवस्था की गई थी। आश्रम वास्तव में जीव का शिक्षणालय अथवा विद्यालय है। ब्रह्मचर्य आश्रम में धर्म का एकांत पालन होता है। ब्रह्मचारी पुष्टशरीर, बलिष्ठबुद्धि, शांतमन, शील, श्रद्धा और विनय के साथ युगों से उपार्जित ज्ञान, शास्त्र, विद्या तथा अनुभव को प्राप्त करता है। सुविनीत और पवित्रात्मा ही मोक्षमार्ग का पथिक्‌ हो सकता है। गार्हस्थ्य में धर्म पूर्वक अर्थ का उपार्जन तथा काम का सेवन होता है। संसार में अर्थ तथा काम के अर्जन और उपभोग के अनुभव के पश्चात्‌ ही त्याग और संन्यास की भूमिका प्रस्तुत होती है। संयमपूर्वक ग्रहण से, त्याग होता है। वानप्रस्थ तैयार होती है। संन्यास के सभी बंधनों को को शिव धर्म की ऊर्जा द्वारा काट कर , पूर्णत: मोक्षधर्म का पालन होता है। इस प्रकार आश्रम संस्था में जीवन का पूर्ण उदार, किंतु संयमित नियोजन भी हैं। कुन्डलिनी शक्ति इसी चक्र मे साढ़े तीन फेरे लगा कर सुप्त अवस्था मे रहती है। उस की प्राकृतिक अवस्था तो जागृत रहना है परन्तु पाप ग्रस्त होकर वह सुप्त हो जाती है। इसे जाग्रत कर गंगा नाडी से ऊपर चढ़ाना कर शिव मे लीन करना ही मोक्ष होता है। ~~

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