अपनों से अपनी बात…
मेरे प्रिय आत्मीय,
शुभाशीर्वाद,
निखिल अवतरण दिवस, अमृत महोत्सव, ज्ञान पर्व, चेतना पर्व, निखिल आत्मभाव पर्व हम सभी ने अपने हृदय, मन और आत्मा के भावों के साथ सम्पन्न किया गुरु सदैव शिष्य को सद्मार्ग की ओर ले जाते है जिससे शिष्य का जीवन कल्याणकारी हो सके। उसके जीवन में सुगन्ध हो, सदैव ताजगी हो, कर्म का भाव हो, शक्ति से युक्त हो।
आज मैं आपकी कुछ अवधारणाओं का खण्डन करने जा रहा हूं कि आपने कुछ अवधारणाएं व्यर्थ में ही बनायी हुई है और एक ऐसी लीक पर चल रहे है जिसमें अनावश्यक अवधारणाओं ने, भ्रान्तियों ने आपको घेर रखा है।
इस चक्र से बाहर निकलना है क्योंकि ईश्वर ने यह जीवन प्रसाद स्वरूप अमृत समान प्रदान किया है और इसे प्रसन्न होकर जीना है न कि दुःखी होकर, जैसे-तैसे काटना है और विशेष बात यह है कि यह काटना आपके हाथ में नहीं है क्योंकि समय का पहिया तो निरन्तर घूम ही रहा है। आपके प्रयास से वह न तो तेज चल सकता है, न धीरे हो सकता है, तो इस समय की गति के साथ-साथ हम स्वयं प्रसन्न भाव से किस प्रकार गतिमान रहे यह सामंजस्य सीखना है।
मैं स्पष्ट रूप से कह रहा हूं कि आपको सीखना है क्योंकि अब तक की आपकी धारणाएं बहुत अजीब थी।
सबसे पहले आप विचार करो कि आप आरती में क्या गाते है?
विषय विकार हटाओं, पाप हरो देवा, श्रद्धा भक्ति बढ़ाओं, श्रद्धा प्रेम बढ़ाओं, सन्तन की सेवा…
विषय-विकार का अर्थ है कोई रोग या बीमारी का लक्षण जो स्वाभाविक नहीं होता है और इसका एक अर्थ होता है किसी चीज के बदलते स्वरूप का वर्णन।
अब हम क्या करते है, जीवन में अपने विषय विकार की ओर ध्यान देते ही नहीं है। विषय-विकार का सीधा अर्थ है हम अपने आपको किसी व्यक्ति, स्थान, पर टिका देते है अर्थात् हमारी अतिआसक्ति हो जाती है और यह अति आसक्ति ही हमें पीड़ा देती है, हम अपने आपको एक स्थान पर रोक देते है।
अब दूसरा प्रश्न आपके मन में बार-बार विचार आता है कि संसार में सबसे बुरी बात वासना है। वासना कैसे खराब हो सकती है। वासना का अर्थ है – शारीरिक इच्छाओं द्वारा मन में उत्पन्न होने वाली भावनाएं और यह वासना किसी व्यक्ति विशेष के प्रति भी हो सकती है, किसी स्थान, तीर्थ , जंगल, बाग-बगीचा, देवालय, देव यहां तक की आपके कार्य के प्रति भी सकती है। सीधा अर्थ है कि इच्छाएं शरीर के द्वारा ही उत्पन्न होती है और शुद्ध रूप में इच्छा को ही वासना कहते है।
यह वासना भी अविद्या की भांति है और वास्तव में अनादि भी है। जब तक आपका जीवन रहेगा, तब तक वासना समाप्त नहीं हो सकती है, क्योंकि यह कभी प्रकट होती है, यह कभी अप्रकट होती है। इसलिये वासना को घृणित भाव से मत देखों। देवता, ॠषि अपने ज्ञान में कभी वासना को समाप्त करने का नहीं कहते है क्योंकि वासना तो हर समय रहती है। अब आपने वासना को संकीर्ण रूप से केवल काम वासना समझ लिया है तो यह आपके लिये दुःखादायी हो सकती है। काम वासना तो वासना का हजारवां हिस्सा भी नहीं है। यह तो एक छोटी सी शारीरिक क्रिया है।
इसलिये कभी भी वासनाओं-इच्छाओं से घृणा मत करो। हम है, जगत के वासी अर्थात् यह जगत वासनामय है।
प्रभु से प्रार्थना करते है –
विषय विकार हटाओं, पाप हरो देवा, श्रद्धा भक्ति बढ़ाओं, श्रद्धा प्रेम बढ़ाओं, सन्तन की सेवा…
हां!, विकार बहुत खतरनाक है। विकार का अर्थ है आदेश का उंल्ल्घन, उच्छश्रृंखल आचरण, शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य में गड़बड़ी, रोग, कार्यों में गड़बड़ी, कार्य में शिथिलता।
प्रार्थना में आप बार-बार कह रहे हो और आप स्वयं उस बात को हृदय से स्वीकार कर उस मार्ग पर चल नहीं रहे हो, यह कितनी विचित्र स्थिति है।
मैं तो एक छोटा सा प्रश्न पूछता हूं कि आपने अपने जीवन को किसी एक वस्तु पर क्यों टिका दिया है। चाहे वह घर-परिवार हो, कार्य हो या अहंकार हो। जब आप अपनी समस्त भावनाओं को किसी एक विषय पर टिका देते हो और विषय पूरा नहीं होता है तो दुःख भी होता है और विषाद भी होता है।
‘विषय’ भी खराब नहीं है, हमारे अध्यापक भी बालकों को सभी विषयों का ज्ञान करातेे है – हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, गणित, इतिहास, चित्रकला, सभी विषयों का ज्ञान कराते है।
जीवन का प्रारम्भिक सूत्र ही हम भूल जाते है और किसी एक विषय पर ही अपने आपको अटका देते है। यही से विकार की उत्पत्ति होती है। यही से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य असन्तुलित होता है। यही से रोग आते है, शिथिलता आती है।
श्रेष्ठतम रूप से जीवन जीना है, प्रसन्न भाव से जीवन जीना है तो अपने आपको किसी एक विषय-वासना पर मत अटकाओं। एक बार अटक गये तो वही आपके गले का पट्टा बन जायेगा।
सबसे प्रेम करो, घर-परिवार से प्रेम करो। अपने कार्य से बहुत प्रेम करो। जीवन में धन, यश, उन्नति निरन्तर प्राप्त करो लेकिन अपने विचारों को स्वतंत्र रखो, अपने मन को सदैव विशुद्ध रखों।
अब आपको पांच काम करने है , पांच संकल्प लेने है 1. मैं ईश्वर की संतान हूं, मैं जीवन को प्रसन्न भाव से जीना चाहता हूं, इसके लिये निरन्तर प्रयन्तशील रहूंगा, कर्मशील होऊगा, कर्मों का दास नहीं बनूंगा।
2. जो है, वही ईश्वर का दिया हुआ है और मुझे ईश्वरीय कार्य में विस्तार करना है।
3. मेरी प्रसन्नता का आधार मेरा मन और मेरी आत्मा है। मेरी प्रसन्नता किसी वस्तु, स्थान और सम्बन्ध से बंधी हुई नहीं है। मैं मुक्त हूं और सदैव मुक्त रहने का प्रयत्न करता रहूंगा।
4. मेरे विचार सदैव सद्भाव युक्त, स्पष्ट और सबके लिये कल्याणकारी हो। इसी विचार से मैं जीवन में सदैव गतिशील रहूंगा।
5. मैं सदैव अपने अन्तर्आत्मा में स्थित अपने इष्ट, परमात्मा, सद्गुरु से ही संदेश प्राप्त करूंगा। मेरे गुरु ही मुझे सदैव सन्मार्ग की ओर ले जायेंगे।
सदैव प्रसन्न रहो…