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गुरु आरती और उसकी व्याख्या Guru Arti ka arth गुरु आरती और उसकी व्याख्या Guru Arti ka arth

MTYV Sadhana Kendra -
Friday 7th of October 2016 11:43:13 AM


गुरु आरती और उसकी व्याख्या

गुरु आरती मात्र शब्दों का लयबद्ध संयोजन नहीं वरन मंत्र हैं ह्रदय में सदगुरुदेव के स्थापन का पुकार हैं शिष्य के अंतस की 
"आर्त" शब्द से बना शब्द हैं "आरती", स्वयं में एक सम्पूर्ण साधना हैं आरती, रटे-रटाये शब्दों को दोहरा देने को ही नहीं कहते हैं आरती, आरती स्वयं में आर्तनाद होती हैं की गुरुदेव विवश हो जायें अपने शिष्यों के मध्य उपस्थित होने को …l आरती मंत्र में शिष्य पग धरा का आश्रय छोड़कर अनंत आकाश को पाने के लिए जो सदगुरुदेव का ही स्वरुप हैं उठ खड़ा होता हैं, हाथ आकाश की ओर तेजी से ऊपर की ओर उठने लगते हैं, तन-मन में गुनगुनाहट फ़ैल जाती हैं, आंखों में अश्रु धारा बहने लगती हैं, देह छटपटा उठती हैं l सदगुरुदेव से मिलन हेतु l गुरु आरती एक कर्म काण्ड नहीं हैं, यह तो हृदय में उठ रहे भावों की व्याख्या हैं, इन्हीं भावों को मानस में स्थापित करते हुए आरती करें हम प्रिय सदगुरुदेव की…… l l

जय गुरुदेव दयानिधि दीनन हितकारी l जय जय मोह विनाशक भव बंधन हारी!!1!! 
ॐ जय जय जय गुरुदेव l

अर्थात मैं जय घोष कर रहा हूँ अपने उन श्री सदगुरुदेव का जिनकी कृपा दृष्टि से मेरे जीवन में मुझे सर्वत्र विजय उपलब्ध हो रही हैं l वे स्वयं में दयानिधि हैं, कृपा करने के लिए निरंतर समुद्र की ही भांति उमड़ते रहते हैं l यदि उनका यह अकारण प्रमुदित होने का सहज गुण न होता तो क्यों वे मेरा उद्धार करके मुझे अपनी समीपता देते? मैं तो किसी पशु की तरह विभिन्न प्रकार के मोह रुपी कीचड़ में लोटता हुआ, व्यर्थ की भावनाओं रुपी खूंटे में उलझ कर गिरता - उठता, हास्यास्पद बन कर दैन्यता में अपने जीवन की इतिश्री मान चुका था l किंतु ऐसे ही अवसर पर जिन्होंने मेरा परम हितैषी बन मुझे जीवन के सत्य को समझाया, मैं उन श्री सदगुरुदेव की पुनः पुनः अभ्यर्थना करता हूँ l

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव गुरु मूरत धारी l वेद पुराण बखानत गुरु महिमा भारी!!2!! 
ॐ जय जय जय गुरुदेव l 
अर्थात मैंने वेदों, पुराणों एवं अन्यान्य प्राचीन शास्त्रों के मध्यम से यह समझा हैं, मुझे इन ग्रंथों ने यह ज्ञान दिया हैं की यह सम्पूर्ण प्रकृति त्रिगुणात्मक हैं l इसी प्रकृति की सत शक्ति से ब्रह्मा सर्जन का कार्य करते हैं, विष्णु राज शक्ति के मध्यम से उसका पोषण करते हैं तथा तमो गुण का आश्रय लेकर भगवान् शिव समस्त पाप ताप दोष हरण का कार्य करते हैं किंतु ये तीनों ही गुण या शक्तियां जिस एक विग्रह में एक ही क्षण में समाहित होती हैं, वह विग्रह केवल श्री सदगुरुदेव का ही हो सकता हैं l केवल यही नहीं वरन जिन पुनीत ग्रंथों ने मुझे इस प्रकृति का रहस्य बताया हैं उन्हीं ग्रंथो का यह भी कथन हैं कइ जब भगवान् ब्रह्म, विष्णु या शिव को अपनी लीला का विस्तार करना होता हैं तब वे श्री सदगुरुदेव का ही आश्रय लेकर ही अपने कार्यों को संपादित कर पाते हैं और इस कथन में आश्चर्य ही क्यों और कैसा? हम शिष्यों ने जिस प्रकार से पग पग पर केवल एक ही नहीं वरन अनेकानेक शिष्यों को प्रतिपल श्री सदगुरुदेव द्वारा शिष्यों के गढ़ते, उनकी न्यूनताओं पर चोट करते और पोषण करते देखा हैं l उससे तो वास्तव में वे भगवान् ब्रह्म, विष्णु एवं शिव का समवेत रूप ही परिलक्षित हुए हैं l मैं ऐसे त्रिगुणमय और त्रिगुणातित श्री सदगुरुदेव की बार बार वंदना करता हूँ l

जप तप तीरथ संयम दान विविध कीजै! गुरु बिन ज्ञान न होवे, कोटि जातां कीजै!!3!! 
ॐ जय जय जय गुरुदेव 
अर्थात धर्म के वर्तमान समय में अनेक रूप प्रचलित हैं; धर्म की अनेक अव्यख्यायें की जा रही हैं l कोई मंत्र जप को सर्वश्रेष्ठ कह रहा हैं तो कोई तीर्थ यात्रा करने को, किसी को भावना में शील-संयम का पालन करना ही धर्म हैं तो कोई दान-कल्याण के कार्य को ही धर्म का सर्वस्व मान रहा हैं l निःसंदेह ये सभी स्थितियां, ये सभी कार्य श्रेष्ठ हैं किंतु अन्ततोगत्वा ये उसी प्रकार की क्रियाएं हैं मानों किसी ने अपने घडे को धोकर मांजकर स्वच्छ तो कर लिया हैं किंतु केवल इतना करने से ही तो उसमें वह शीतल निर्मल जल नहीं भर सकता जो क्षुधा को तृप्त कर सके? यह देह भी एक घट ही हैं जो इन क्रियाओं से स्वच्छ तो हो जाती हैं किंतु इसमें ज्ञान रुपी जल तभी समाविष्ट हो सकता हैं जब दीक्षा के मध्यम से गुरु तत्व का समावेश हो सके l मैं कौन हूँ, मेरे जीवन का लक्ष्य क्या हैं, मेरा वह लक्ष्य किस प्रकार से प्राप्त हो सकेगा - इन्हीं बातों का रहस्य गुरु चरणों में बैठ कर समझना ही सही अर्थों में "ज्ञान" हैं क्योंकि इसी में शीतलता हैं, शेष सब बातें धर्म का, ज्ञान का आवरण भर ही हैं l मेरे जीवन में स्वयं की उपस्थिति से ज्ञान तत्व का बोध कराने वाले श्री सदगुरुदेव के चरणों में मेरा पुनः पुनः नमन l

माया मोह नदी जल जीव बहे सारे! नाम जहाज बिठा कर गुरु पल में तारे!!4!! 
ॐ जय जय जय गुरुदेव 
अर्थात भविष्य का आता हुआ प्रत्येक क्षण, वर्तमान के क्षणों में बदलता हुआ तीव्रता से भूतकाल का एक अंग बन जाता हैं l काल के प्रवाह पर संभवतः किसी का कोई नियंत्रण नहीं, काल एक नदी के समान हैं और जिसमें प्रत्येक जीव फंसा हैं और इस नदी में जो उत्तुंग लहरें हैं वे हैं माया और मोह की जिनके धक्कों में फंस कर व्यक्ति कभी इस तट से टकराता हैं तो कभी उस तट से l कभी वह ईश्वर प्राप्ति के लिए व्यग्र होता हैं, तो कभी धन-संपदा, पड़ ऐश्वर्य के लिए और इस विचित्र सी स्थिति में जो सहायक होते हैं वे केवल श्री सदगुरुदेव ही होते हैं l वे अपना चिंतन, अपना बिम्ब, अपनी तेजस्विता का एक अंश देकर मानों तूफ़ान में फंसे किसी व्यक्ति को नौका प्रदान कर देते हैं l जिस तरह से नौका में बैठा व्यक्ति तटों से टकराने में अपने क्षणों को व्यर्थ नहीं करता वरन उन्हें निहारता हुआ अपनी यात्रा को सम्पूर्ण कर लेता हैं, ठीक उसी तरह से श्री सदगुरुदेव की शरण में आया जीव, जीवन के प्रति एक साक्षीभाव अपना कर निर्मल और निःसंशय हो जाता हैं l जीवन के गूढ़तम द्वंद्वों से मात्र एक क्षण में निकल लेने में समर्थ पूज्यपाद गुरुदेव का मैं सतत स्मरण करता हूँ, उनका जयघोष करता हूँ l

काम क्रोध मद मत्सर चोर बड़े भारी! ज्ञान खडग दे कर में गुरु सब संहारी!!५!!
ॐ जय जय जय गुरुदेव l
अर्थात मेरा यह शरीर जो वास्तव में ईश्वर की और से दिया गया एक उपहार हैं, धर्म कार्यों को पूर्ण करने की एक साधना हैं l इनमें दस द्वार भी हैं और मैं भले ही कितना ही सजग क्यों न रहूँ, इनसे विविध चोर - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर्य (ईर्ष्या) प्रवेश कर ही जाते हैं l ये मेरी जीवनी शक्ति, मेरी प्राण ऊर्जा को खींच कर, इन्हें मुझसे छिनकर स्वयं का पोषण करते हैं l मैं स्वयं में इनसे संघर्ष करने में अपने आप को असमर्थ सा अनुभव करने लग गया हूँ, क्योंकि मैं यह समझ ही नहीं पता की ये कब मेरे अन्दर प्रविष्ट हुए और जब तक समझता हूँ तब तक ये सबल हो चुके होते हैं l ऐसी विकत स्थिति में मेरा आश्रय एकमात्र गुरुदेव ही हैं, जिन्होंने मुझे समय- समय पर ज्ञान रुपी तलवार देकर वह चेतना दी हैं जिससे मैं आत्म विश्लेषण करता हुआ पुनः पुनः निर्मल हो सका हूँ l यह मेरे पूज्य श्री सदगुरुदेव का जो अग्नि स्फुल्लिंग सदृश्य शिव स्वरुप हैं, जिसे मैं आज तक केवल अपने दुर्गुण रुपी विष ही भेंट कर सका हूँ, उसे मैं हृदय से उमड़े निर्मल गंगधारा जैसे अश्रुओं से भी अभिसिक्त कर देना चाहता हूँ l

नाना पंथ जगत में निज निज गुण गावै! सबका सार बता कर गुरु मार्ग लावै!!6!! 
ॐ जय जय जय गुरुदेव! 
अर्थात मैंने ज्ञान प्राप्ति के लिए आज तक केवल उन जड़ ग्रंथों का ही अध्ययन किया हैं, जिनमें कोई कहता हैं कि जीवन और ब्रह्म दो हैं, तो कोई कहता हैं कि दोनों अभिन्न हैं, कोई कहता हैं कि वह परम तत्व केवल भक्ति के द्वारा ही उपलब्ध हैं तो किसी के मत में वह नाक दबाकर साँस खींचने और छोड़ने की क्रिया द्वारा ही प्राप्त हो सकता हैं l यह मेरी मूढ़ता ही थी कि मैं मात्र बुद्धि का पोषण करने वाले इन ग्रंथों के जाल में वर्षों तक अपने क्षण व्यर्थ करता रहा और जीवंत गुरु के चरणों में नहीं बैठ सका किंतु गुरुदेव अब आपके ही कृपा कटाक्ष से मैं समस्त भ्रमजाल को काटकर आप तक पहुँच सका हूँ और आपने अत्यन्त सहजता से समस्त ज्ञान-विज्ञान को जिस एक शब्द में समेत दिया हैं अब वही पथ भी हैं और पथप्रदर्शक भी और वह शब्द हैं - गुरु, गुरु और केवल गुरु! जो केवल जीवंत ही नहीं, जीवन की सम्पूर्ण व्याख्या हैं ऐसे श्री सदगुरुदेव का अनुसरण कर मैं इस मां के गर्भ से चिता तक सीमित यात्रा को वास्तव में जीवन बना लेना चाहता हूँ l मैं जयघोष के मध्यम से अपने प्राणों में निरंतर ऊर्जा का संचार होते अनुभव भी कर रहा हूँ l

"गुरु चरणामृत निर्मल सब पातक हारी! वचन सुनत श्री गुरु के सब संशय हारी!!7!!" 
ॐ जय जय जय गुरुदेव l
"अर्थात् मैं अपने श्री सदगुरुदेव के चरणों में केवल इस संसार की विषमता, वैमनस्यता और पीड़ा से छिपने का एक स्थान ही नहीं देखता, मुझे वहां काशी और कन्याकुमारी के भी दर्शन हो जाते हैं, मुझे ऐसा लगता हैं की मानों मैं ही नहीं यहाँ समस्त देवी-देवता भी आश्रय पाने के लिए दौड़े चले आए हैं और इस संस्पर्श से मैं स्वयं को निर्मल होता हुआ अनुभव करने लग गया हूँ l मुझे ऐसा लगने लगा हैं की निश्चय ही मैं सौभाग्यशाली हूँ, स्वयं में धन्य- धन्य हूँ, जो मैंने जीवन में ऐसे देव दुर्लभ क्षणों के साक्षात् किए l इसके पश्चात् भी मेरे मन में जो संशय, तर्क-कुतर्क था वह श्री सदगुरुदेव के श्रीमुख से आशीर्वचन सुनकर सदा-सर्वदा के लिए विनष्ट हो चुका हैं l पूज्यपाद गुरुदेव के चरणों में बैठकर मैंने जिस ज्ञान के अमृत को पिया हैं, वही वास्तव में चरनामृत हैं और इसने मुझे इस पाप चिंतन के दोष से मुक्त कर दिया हैं की मैं दीन-हीन, दुर्बल और पतित हूँ l अशुभ का चिंतन ही सबसे बड़ा अशुभ हैं, मुझे ऐसा जीवन मर्म समझाने वाले पूज्यपाद गुरुदेव के चरणों में मेरा सतत प्रणाम!"

"तन मन धन सब अर्पण गुरु चरनन कीजै! ब्रह्मानंद परम पद मोक्ष गति दीजै!!8!! 
ॐ जय जय जय गुरुदेव" 
"अर्थात् मेरा यह शरीर, मेरा मन और मेरी समस्त संपदा सब कुछ गुरु कृपा से ही उत्पन्न हुयी हैं और उन्हीं में विलय हो रही हैं l मैं इन सभी का स्वामी नहीं अपितु एक ट्रस्टी भर ही हूँ जिसका कार्य इस सम्पदा की सुरक्षा करने का हैं जो मेरे जीवन के लिए अति आवश्यक हो तथा मेरे जीवन के लिए कब क्या अति आवश्यक हैं, इसका भी ज्ञान मैं श्री सदगुरुदेव से प्राप्त करने का इच्छुक हूँ l मैं व्यर्थ की तृष्णाओं, कामनाओं और वासनाओं में उलझ कर अपने जीवन के क्षण निरर्थक द्वंद्वों में नहीं व्यतीत करना चाहता l गुरु के पास आने में किसका स्वार्थ नहीं होता? किंतु मैं वह बड़ा स्वार्थ रखता हूँ, उस स्थिति को प्राप्त करना चाहता हूँ, जिसे कहीं ब्रह्मानंद, कहीं परमानंद तो कहीं मोक्ष कहा गया हैं l मैं जीवन में गति चाहता हूँ, सुमति चाहता हूँ और अंत में सदगति चाहता हूँ l गुरुदेव! मैं पुनः पुनः आपका जयघोष, एक हुंकार के साथ कर रहा हूँ क्योंकि इसी हुंकार से, इसी जयघोष से मुझे स्मरण बना रहता हैं की मैं किस अद्वितीय युग पुरूष का शिष्य हूँ l यही गर्व बोध मेरे समस्त जीवन का आधार हैं l"

वस्तुतः गुरु आरती की यह व्याख्या भी स्वयं में सम्पूर्ण नहीं हैं क्योंकि "गुरु" को कुछ शब्दों या वाक्यों में समेट जा ही नहीं सकता l यह तो एक विनम्र प्रयास भर ही हैं !

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