#सिद्धाश्रम_जयंती और सिद्धाश्रम प्रवेश साधना दिवस●
सिद्धाश्रम_जयंती और सिद्धाश्रम प्रवेश साधना दिवस आषाढ़ कृष्ण -१ (प्रतिपदा) जो कि दिनांक १५-जून-२०२२ को मनाई जाती हैं...अतः सभी गुरूभाई-गुरुबहनो को सिद्धाश्रम_जयंती और सिद्धाश्रम प्रवेश साधना दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं संप्रेषित हैं...
सिद्धाश्रम जयंती_सिद्धाश्रम सिद्धि दिवस के दिन गुरु प्राणश्चेतना मंत्र के 11/21/51/108 पाठ हो सकें तो जरूर करना चाहिए...
||●||ॐ पूर्वाह सतां सः श्रियै दीर्घो येताः वदाम्यै स रुद्रः स ब्रह्मः स विष्णवै स चैतन्य आदित्याय रुद्रः वृषभो पूर्णाह समस्तेः मूलाधारे तु सहस्त्रारे, सहस्त्रारे तु मूलाधारे समस्त रोम प्रतिरोम चैतन्य जाग्रय उत्तिष्ठ प्राणतः दीर्घतः एत्तन्य दीर्घाम भूः लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, मह लोक, जन लोक, तप लोक, सत्यम लोक, मम शरीरे सप्त लोक जाग्रय उत्तिष्ठ चैतन्य कुण्डलिनी सहस्त्रार जाग्रय ब्रह्म स्वरूप दर्शय दर्शय जाग्रय जाग्रय चैतन्य चैतन्य त्वं ज्ञान दृष्टिः दिव्य दृष्टिः चैतन्य दृष्टिः पूर्ण दृष्टिः ब्रह्मांड दृष्टिः लोक दृष्टिः अभिर्विह्रदये दृष्टिः त्वं पूर्ण ब्रह्म दृष्टिः प्राप्त्यर्थम, सर्वलोक गमनार्थे, सर्व लोक दर्शय, सर्व ज्ञान स्थापय, सर्व चैतन्य स्थापय, सर्वप्राण, अपान, उत्थान, स्वपान, देहपान, जठराग्नि, दावाग्नि, वड वाग्नि, सत्याग्नि, प्रणवाग्नि, ब्रह्माग्नि, इन्द्राग्नि, अकस्माताग्नि, समस्तअग्निः, मम शरीरे, सर्व पाप रोग दुःख दारिद्रय कष्टः पीडा नाशय – नाशय सर्व सुख सौभाग्य चैतन्य जाग्रय, ब्रह्मस्वरूपं स्वामी परमहंस निखिलेश्वरानंद शिष्यत्वं, स-गौरव, स-प्राण, स-चैतन्य, स-व्याघ्रतः, स-दीप्यतः, स-चंन्द्रोम, स-आदित्याय, समस्त ब्रह्मांडे विचरणे जाग्रय, समस्त ब्रह्मांडे दर्शय जाग्रय, त्वं गुरूत्वं, त्वं ब्रह्मा, त्वं विष्णु, त्वं शिवोहं, त्वं सूर्य, त्वं इन्द्र, त्वं वरुण, त्वं यक्षः, त्वं यमः, त्वं ब्रह्मांडो, ब्रह्मांडोत्वं मम शरीरे पूर्णत्व चैतन्य जाग्रय उत्तिष्ठ उत्तिष्ठ पूर्णत्व जाग्रय पूर्णत्व जाग्रय पूर्णत्व जाग्रयामि ||●||
तांत्रोक्त गुरु पूजन कर गुरु मंत्र जाप करे १६ माला और फिर सिद्धाश्रम_स्तवन का ११ बार पाठ कर गुरुदेव को समर्पित करे और गुरु में ध्यान लगाये जिस गुरुदेव आप को योग्य शिष्य बना सके |
II सिद्धाश्रम स्तवन II
सिद्धाश्रमोऽयं परिपूर्ण रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं दिव्यं वरेण्यम् |
न देवं न योगं न पूर्वं वरेण्यम्, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १ ||
न पूर्वं वदेन्यम् न पार्वं सदेन्यम्, दिव्यो वदेन्यम् सहितं वरेण्यम् |
आतुर्यमाणमचलं प्रवतं प्रदेयं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || २ ||
सूर्यो वदाम्यं वदतं मदेयं, शिव स्वरूपं विष्णुर्वदेन्यं |
ब्रह्मात्वमेव वदतं च विश्वकर्मा, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ३ ||
रजतत्वदेयं महितत्वदेयं वाणीत्वदेयं वरिवनत्वदेयं |
आत्मोवतां पूर्ण मदैव रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ४ ||
दिव्याश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं वदनं त्वमेवं आत्मं त्वमेवं |
वारन्यरूप पवतं पहितं सदैवं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ५ ||
हंसो वदान्यै वदतं सहेवं, ज्ञानं च रूपं रूपं त्वदेवम् |
ऋषियामनां पूर्व मदैवं रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ६ ||
मुनियः वदाम्यै ज्ञानं वदाम्यै, प्रणवं वदाम्यै देवं वदाम्यै |
देवर्ष रूपमपरं महितं वदाम्यै, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ७ ||
वशिष्ठ विश्वामित्रं वदेन्यम् ॠषिर्माम देव मदैव रूपं |
ब्रह्मा च विष्णु वदनं सदैव, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ८ ||
भगवत् स्वरूपं मातृ स्वरूपं, सच्चिदानन्द रूपं महतं वदेवम् |
दर्शनं सदां पूर्ण प्रणवैव पुण्यं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ९ ||
महते वदेन्यम् ज्ञानं वदेन्यम्, न शीतोष्ण रूपं आत्मं वदेन्यम् |
न रूपं कथाचित कदेयचित कदीचित, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १० ||
जरा रोग रूपं महादेव नित्यं, वदन्त्यम् वदेन्यम् स्तुवन्तम् सदैव |
अचिन्त्य रूपं चरितं सदैवं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || ११ ||
यज्ञो न धूपं न धूमं वदेन्यम्, सदान्यं वदेयं नवेवं सदेयम् |
ॠषिश्च पूर्णं प्रवितं प्रदेवं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १२ ||
दिव्यो वदेवं सहितं सदेवं, कारूण्य रूपं कहितं वदेवं |
आखेटकं पूर्व मदैव रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १३ ||
सिद्धाश्रमोऽयं मम प्राण रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं आत्म स्वरूपं |
सिद्धाश्रमोऽयं कारुण्य रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १४ ||
निखिलेश्वरोऽयं किंकर वतान्वे महावतारं परश्रुं वदेयम् |
श्रीकृष्ण रूपं मदिदं वदेन्यम्, कृपाचार्य कारुण्य रूपं सदेयम् || १५ ||
सिद्धाश्रमोऽयं देवत्वरूपं, सिद्धाश्रमोऽयं आत्म स्वरूपं |
सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १६ ||
सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं, सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धाश्रमोऽयं |
न शब्दं न वाक्यं न चिन्त्यं न रूपं, सिद्धाश्रमोऽयं प्रणम्यं नमामि || १७ ||
#श्री निखिलेश्वरानंद पंच रत्न स्तवन●
ॐ नमस्ते सते सर्व-लोकाश्रयाय, नमस्ते चिते विश्व रुपात्मकाय।
नमो द्वेत-तत्वाय मुक्तिप्रदाय, नमो ब्राह्मणे व्यापिने निर्गुणाय।।
हे गुरुदेव आप मेरे जीवन के आराध्य हैं, आप नित्य हैं समस्त लोकों के आश्रय हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ, हे योगिराज, आप ज्ञान स्वरूप हैं, विश्व की आत्मा स्वरूप हैं, आप अद्वेत तत्व प्रदायक मुक्तिदायक हैं, आपको नमस्कार है, आप सर्व व्यापी निर्गुण ब्रहम हैं, सगुण रूप में आप हम समस्त शिष्यों के सामने उपस्थित हैं आपको नमस्कार है।
त्वमेकं शरंणयम त्वमेकं वरणयम त्वमेकं जगत कारणं विश्व रूपम।
त्वमेकं जगत कृतु पार्तु, प्रहर्तु , त्वमेकं परम निश्चलं निर्विकल्पं।।
आप ही हम समस्त शिष्यों के एक मात्र आश्रय हैं, आप इस संसार में हमारे लिए अदिवित्य वर्णनीय हैं, आप ही समस्त सिद्धियों के एक मात्र कारण हैं, आप विश्व रूप हैं, आप के कंठ में सम्पूर्ण विश्व की अवस्तिथि है जिसे हमने कई बार महसूस किया है, आप ही समस्त सिद्धियों के संसार के उत्पतिकर्ता, निर्माणकर्ता पालनकर्ता एवं संहारकर्ता हैं, आप विविध कल्पनाओं से रहित पूर्णता प्राप्त, षोडसकला युक्त पूर्ण पुरुष हैं, आपको नमस्कार है।
भयानाम भयं भीषणं भीषणाम, गति: प्राणिनाम, पावनं पावनानाम।
महोच्चे पदानाम नियन्त्र त्व्मेकम, परेद्हम परम रक्षम रक्षणाम।।
आप भय के भी भय हैं अर्थात आपका नाम स्मरण करते ही भय समाप्त हो जाता है, आप विपत्तियों के लिए विपत्ति स्वरूप हैं, आपको देखते ही या आपका नाम लेते ही हम लोगों की विपत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। हम सभी शिष्यों की आप ही एकमात्र गति हैं, आप पवित्रता के साक्षात् स्वरूप हैं, उच्च पद पर जितनी भी महाशक्तिया हैं आप उनके आधार स्वरूप हैं, आप संसार के सभी श्रेस्ठ पदार्थों से प्रेरित हैं, और रक्षको के पूर्ण रूप से रक्षक हैं, हम सब शिष्य आपको पूरण भक्तिभाव से प्रणाम करते हैं।।
परेशं पर्भो सर्व-रूपविनाशिन,अनिर्देश्य सर्वेंद्र्यागम्य सत्यं।
अचिंत्याक्षर व्याप्काव्य्कतम तत्वं , जगद-भास्काधिश पायादपायत।।
हे तपस्वी! हे प्रभु! समस्त शिष्यों के हरदे में विराजमान अविनाशिरूप में रहते हुए, समस्त शिष्यों का कल्याण करेने वाले, और समस्त प्रकार की इन्द्रयों पर पूर्ण रूप से नियंतरण करने वाले आप पूर्ण रूप से अगोचर होते हुए भी हम सब लोगों के सामने साक्षात् देह रूप में उपस्तिथ हैं। हे सत्य स्वरूप!! हे अचिन्त्य!! हे अक्षर!! हे व्यापक!! हे अवर्णनीय तत्व!! हे ब्रह्मस्वरूप!! हे मेरे प्राणों में निवास करने वाले हम समस्त शिष्य आपके चरणों में हैं, आप हमें अपनी भक्ति अपना ज्ञान और अपना स्नेह प्रदान करें। हम आपको भक्ति भाव से प्रणाम करते हैं।
तदेकं स्मरामस्त्देकम जपाम:,तदेकं जगदसाक्षीरूपम नमाम।
तदेकं निधानं निरालाम्बमिश्म,भ्वाम्बोधी-पोतं शरणनयम व्रजाम:।।
हम और किसी इष्ट को नही जानते न तो हमे मंत्र का ज्ञान है न तंत्र का, न हमें पूजन विधि आती है और न साधना रहस्य ही हमें ज्ञात हैं हम तो केवल गुरु मंत्र का जप करने में ही समथ हैं, पल-पल आपके द्वारा बिखेरी माया से हम कई बार भ्रमित हो जाते हैं और आको सामान्य मानव समझने की गलती कर बैठते हैं, आपको सामान्य मानव समझने की गलती कर बैठते हैं , आपको सामान्य मानव की तरह व्यवहार करते हुए देखकर हम भ्रम में पद जाते हैं और हमारा सारा ज्ञान उस एक क्षण के लिए तिरोहित हो जाता है।
हम बार-बार जन्म लेते हैं, संसार के दुखो में, संसार की समस्याओं, और गृहस्त की परेशानियों में डूबता उतराते हुए आपका भली प्रकार से नाम भी नही ले पाते, हमें और कुछ भी नही आता, हम केवल आतुर कंठ से "गुरुदेव" शब्द का उचारण ही कर सकते हैं और इसी शब्द के माध्यम से आपके द्वारा सिद्धाश्रम प्राप्त कर पूर्ण ब्रहम में लीं हो जाना चाहते हैं। हम तो केवल इतना ही जानते हैं की आप ही हमारे आश्रयभूत हैं आप ही हमारे जीवन के आधार हैं , आप ही हमारे महासागर के जहाज स्वरूप हैं, हम तो केवल आपका ही आश्रय ग्रहण करते हैं , आपको हम सब श्रद्धा युक्त प्रणाम करते हैं।।
#ॐ गुं गुरूभ्यो नमः●
जगत सारे गुरूओं को दण्डवत प्रणाम•••
कर्पूर गौरं करुणावतारं, संसार सारं भुजगेन्द्र हारम्।
सदा वसन्तं हृदयारविन्दे, भवं भवानी सहितं नमामि।।
नारायणो त्वं निखिलेश्वरो त्वं,
माता-पिता गुरु आत्मा त्वमेवं।
ब्रह्मा त्वं विष्णुश्च रुद्रस्त्वमेवं,
सिद्धाश्रमो त्वं गुरुवं प्रणम्यम्।।
◆ निखिलेश्वरानन्द- स्तवन•
महोस्त्वं रूपं च मपर विचिराक्षै गुरूवदै:
श्रियै दीर्घकाय विधुरम् विदारै नव निधि!
अतस्वा प्रीचार्य अथ प्रहर रूपै सद गुणै
गुरौर्देवं श्रेयं निखिल हृदयेश्च महपरौ !!१!!
मेरे परम आराध्य गुरूदेव !
आप जैसा युग-पुरुष पहली बार ही पृथ्वी पर अवतरित हुआ है,जिसकी चरण-धूलि को पाने के लिये उच्चकोटि के योगीजन भी व्यग्र रहते हैं |
आप पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देव हैं, जो चिन्त्य-अचिन्त्य,शुद्ध-बुद्ध आत्म स्वरूप एवं पूर्णतादायक हैं,
आप में और गणपति में बहुत साम्य है, वे गणपति अर्थात गण समूह के अधिपति हैं, और आप साधक अधिपति एवं शिष्याधिपति हैं,
उनके पास तो मात्र "ऋद्धि" एवं "सिद्धि" दो ही शक्तियाँ हैं, पर आपके पास तो दैविक शक्तियाँ असीमित हैं,
उनका विस्तार सीमित है पर आपका विचरण,विकास,विस्तार असीमित है ,
आप अपने जीवन में जिस प्रकार से गतिशील रहे हैं, जिस प्रकार से जीवन में कार्य किया है, उसकी तो कोई तुलना ही नही है |
एक पर्वत श्रंखला से दूसरी पर्वत श्रंखला पर आपका विचरण अबाध गति से रहा है |
जिस पहाड़ की चोटी पर आपके पाँव पड़ जाते हैं वह पहाड़ अपने-आप मे धन्य हो जाता है ,
वह चोटी अपने-आप में सौभाग्यवान हो जाती है , वह स्थान अपने-आप में पवित्र और दिव्य हो जाता है क्योंकि मात्र एक स्थान से दूसरे स्थान ही नही, एक पर्वत से दूसरे पर्वत की चोटी ही नही, अपितु ब्रह्माण्ड का कोई ऐसा स्थान नही है ,जो आपके लिये दूर हो या जहाँ तक आपकी पहुँच नहीं हो |
आप अपने-आप में पूर्ण आदिविद्या के सिद्ध आचार्य हैं ,इसलिये आप समस्त ब्रह्माण्ड में निर्बाधगति से विचरण करने में सक्षम हैं,
इसलिये स्तवन लिखने सेपूर्व माँ सरस्वती , वाग्देवी और गणपति को तो स्मरण करता ही हूँ , पर आप तो 'निखिलेश्वर' हैं ,
देव-स्वरूप हैं , ब्रह्माण्ड-स्वरूप हैं ,
मै आपको भक्तिभाव से प्रणाम करता हुआ, सदैव अपने रोम-रोम से " निखिलेश्वर" और
"गुरूदेव" शब्द का उच्चारण करता हुआ पूर्णत्व, आपकी भक्ति एवं सामीप्यता प्राप्त करने का अभीप्सित हूँ |
गुरूर्देवं देवं निखिल भव योगी सर परौ
परिपूर्णं ध्येयं विचरति अणिमादि श्रुयते |
कलौ सन्यासं वै न च श्रिय परै र्न महपरि
अहो दिव्यात्मं च परि वद सदै ब्रह्माण्ड नमन!!२!!
हे योगीराज निखिलेश्वरानंद जी! आप योगियों में सर्वश्रेष्ठ योगी और संन्यासियों में अद्वितीय संन्यासी हैं ,
योग के जितने भी छेत्र और आयाम हैं, आपने उनको पूर्णता के साथ समझा है ,और अपनी दिव्य देह पर इसका उपयोग किया है,
इसीलिए अणिमादि सिद्धियाँ स्वत: आपके सामने विचरण करती रहती हैं|
संन्यास की जो मर्यादाएँ हैं , उसकी जो ऊँचाई और विशेषताएँ हैं, उनको आपने सम्पूर्णता के साथ हम सबके सामने रखकर यह स्पष्ट किया हैकि इस छेत्र में किस प्रकार से पूर्णता पाई जा सकती है ?
संन्यास को आपने पूर्णता के साथ जिया है ,अबतक संन्यास एक रूढीग्रस्त, एक जड़, एक पत्थर की तरह बन गया था,
संन्यास का तात्पर्य है अपने मन में पूर्णता प्राप्त करना, इसके लिये बाहरी आडम्बर, बाहरी विचार, बाहरी क्रियाकलाप जीवन में कोई चेतना नही देते, इसीलिए आज आपने संन्यास की जो परिभाषा स्थापित की है , संन्यास को जिस प्रकार से पूर्णता दी है, वह आपके ही योग्य है|
आज समस्त भारतवर्ष के संन्यासी उसी चेतना का, उन्हीं नियमों का पालन करते हुए यह एहसास करने लगे हैं,कि वास्तव में ही जीवन जड़ नही है, संन्यास अपने-आप में रुंधा हुआ सरोवर नही है,अपितु बहती हुई गंगा है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अवगाहन करने की छूट है |
जीवन के मूल्यों को आपने पूर्णता के साथ सामने रखा है, तो जीवन की ऊँचाईयों को भी स्पर्श कर आप अपने-आप में अद्वितीय बन गए हैं और आने वाले कई सौ वर्षों तक कोई भी संन्यासी या योगी आपकी ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकेगा |
हम जब भी आपको देखते हैं तो ऐसा लगता हैकि एक दिव्यात्मा ब्रह्माण्ड से नीचे हम पृथ्वीवासियों के सामने अवतरित हुई है ,ऐसा लगता हैकि जैसे कोई देवदूत इस भौतिकमय जगत (विश्व) में एक संतुलन, एक प्रकाश बिखेरने के लिये उपस्थित हुआ है, हम सब सिद्धाश्रम के योगी आपको बार-बार नमन करते हैं || २||
सहौ चिन्त्यं देव भवति नमन: वै निखिल यो
सहौ देवं आत्म्यं अवतरित भूमि ग्रह इति |
दिवो सिद्धाश्रम वै गति इति भवेत्स्पंदित महो
महम् देवं व्यग्र इहमिद सदौ पूर्ण गति वै !!३!!
आप सही अर्थों में सिद्धाश्रम के प्राण स्वरूप हैं,जिस प्रकार से बिना प्राणों के देह का कोई अस्तित्व नही रहता, जिस प्रकार से बिना आत्मा के शरीर स्पंदित नही होता, उसी प्रकार आपके बिना सिद्धाश्रम की कल्पना करना भी व्यर्थ है, सिद्धाश्रम निश्चय ही अद्वितीय सिद्ध स्थली है, यह सिद्धाश्रम, जो हजारो-लाखों वर्षों से गतिशील है, सुनसान सा पड़ा हुआ था, जहाँ उच्चकोटि के योगी किनारों पर बैठे हुए तपस्या में रत थे, जहाँ न किसी प्रकार की कोई हलचल थी,न कोई स्पंदन था, ऐसा लग रहा था, जैसे यह सिद्धाश्रम नही अपितु कोई श्मशान स्थली हो, मगर आपने इस सिद्धाश्रम का पूर्ण परिवर्तन किया, यद्यपि आपने जितना संघर्ष, जितनी चेतना झेली, जितना विरोध हुआ, जिस दृढ़ता और छमता के साथ में इन सबको झेला है, वह हमारे लिये एक आश्चर्यजनक बात है |
आज सभी स्द्धाश्रम के योगी और संन्यासी इस बात को स्वीकार करते हैंकि जो सिद्धाश्रम निष्प्राण, निर्जीव और निस्पन्द था , उसमें आपने चेतना दी, आपने सही अर्थों में उसे सिद्धाश्रम बनाया, आपने सही अर्थों में यह एहसास कराया ,कि ऊर्जस्विता जीवन को प्रवाह प्रदान करती है , और उस सिद्धाश्रम को इस योग्य बनाया, कि आज देवता भी उसमें आने के लिए उत्सुक रहते हैं |
आपने उसके निष्प्राण शरीर में प्राण स्पंदित किए हैं, उसकी सुनसान स्थली को चेतनायुक्त और ऊर्जस्विता युक्त बनाया है,
अब इस सिद्धाश्रम में गति है ,स्पंदन है, हलचल है, मस्ती है, तरंग है, छलछलाहट है और जीवन्तता है , अब इस सिद्धाश्रम में एक प्रवाह है, जिससे इसकी शोभा और इसकी प्राणश्चेतना अत्यधिक मुखरित हो उठी है ,, जहाँ देवता भी आने के लिये प्रयत्नशील हैं, जहाँ की माटी को वे अपने सिर से लगाने के लिये व्यग्र हैं, क्योंकि यह सारा सिद्धाश्रम आपके आने से सुरभित , सुगन्धित और देवताओं के लिये भी अद्वितीय बन गया है||३||
निखिल त्वं प्राण त्वं भवति भवस्पर्शं महमहो
महत् सिद्धि स्पर्शं भवति नृत्यत्व करति य |
महोद् योगी स्पर्शं चरण कण पूर्णं सह महौ
ऋषिर्साक्ष्यं पूर्ण भवति महतं चंदन इति!!४!!
हे सिद्धाश्रम के प्राणस्वितायुक्त तेजस्वी महामनव! इस सिद्धाश्रम में सैकड़ों-हजारों वर्षों की आयु प्राप्त योगी इस समय भी साधना एवं तपस्यारत हैं, परन्तु फिरभी वे आपकी ऊँचाई को प्राप्त नही कर पाये हैं, आपने जिन सिद्धियों को प्राप्त किया है,वहाँ तक पहुँचने के लिये अभी इन योगियों और तपस्वियों को सैकड़ों वर्ष
लग जायेंगें |
आप निश्चय ही अद्वितीय "सिद्धि पुरूष " हैं , तभी तो हजारों-हजारों शक्तियाँ और सिद्धियाँ आपके सामने नृत्य करती रहती हैं |
मै ही नही अपितु सैकड़ों संन्यासियों का यह अभिमत रहा है कि आप से मिलने पर तो उनके शरीर से सुगन्ध प्रवाहित होती ही है, मगर आपके दर्शन मात्र से ही उनमें वे वृत्तियाँ जाग्रत हो जाती हैं, जो वृत्तियाँ जीवन को प्राणवान और ऊर्जावान
बना देती है , जो एकबार भी आपसे मिल लेता है, अपने-आप मे ही उसकी कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है, जो एक बार भी आपके दर्शन कर लेता है अपने-आप में ही उसमें एक प्रकार की चेतना स्पन्दित होने लग जाती है |
मैने भी यहअनुभव किया कि कई वर्षों तक साधनाएँ करने के बाद भी सफलता नही मिल रही थी, उन संन्यासियों ने जब आपकी चरण-धूलि को चन्दन की तरह ललाट पर लगाया है, तब उसी क्षण एक बिजली सी कौंधी और उनका सारा शरीर झनझना गया, उसी क्षण एेसा लगा, कि जैसे एक विद्युत प्रवाह सा पूरे शरीर में वेग से
बह गया हो, पूरा शरीर एक अद्वितीय ऊर्जा से
भर गया, और जिन साधनाओं में सिद्धि नहीं मिल
रही थी, उन साधनाओं में भी पूर्ण सफलता प्राप्त
हो गई | यदि आपके स्पर्श से यह अद्वितीयता
प्राप्त हो सकती है, तो आप कितनी ऊँचाई पर हैं,
हम हजारों साल की तपस्या करके भी आपके जीवन की पूर्णता को और चैतन्यता को प्राप्त नही
कर सकते , यदि उसका क्षणांश भी हमें प्राप्त हो जाय,तब भी हम अपने जीवन को धन्य और
सौभाग्यशाली समझ लेंगे ||४||
गुरौर्रूपं देव त्व व च गुण गानं श्रिय इति
नमौ सिद्धयोगा सकल गुणगान त्वव इति |
त्वदि कल्पवृक्छौ गुण ग्रहित नैत्र हिरणयो
र्त्वदे गानं पूर्ण गुरूवर भवेत्पूर्ण श्रियत!!५!!
हे परमपूज्य सदगुरूदेव! सिद्धयोगा झील की प्रत्येक लहर आपके चरण प्रच्छालन के लिये व्यग्र है,क्योंकि आपने इस निर्मल सिद्धयोगा झीलपर आपका नाम मधुरता के साथ स्पंदित है, क्योंकि आपने इस निर्मल सिद्धयोगा झील को समस्त साधकों और योगियों के लिये व्यवहार करने योग्य बनाया है |
सिद्धयोगा झील का पावन जल निरन्तर अपने होठों से आपका ही गुणगान करता रहता है और जब वह कल्पवृछ के पेडो़ को स्पर्श करता हुआ बहता है तो ऐसा लगता है, कि जैसे कई देवदूत खड़े-खड़े आपके सम्मान में श्लोक उच्चरित कर रहे हों, सिद्धाश्रम की माटी के प्रत्येक कण पर आपका गुणगान अंकित है, सहीअर्थों में गुरूदेव आप सिद्धाश्रम की चेतना हैं, धड़कन हैं और इसकी पूर्णता के आधार हैं|
आपके आते ही सारी धरती अपने-आप में तेजस्विता युक्त बन जाती है, सारे साधक, सारे संन्यासी, सारे योगी अपने-आप में बालकों की तरह इठलाते, मचलते, कूदते, झूमते हुए घूमने लगते हैं जैसे कि उनमें प्राणों का संचार हो गया हो | शिशु, हिरण, शावक दौड़कर आपके चारों ओर लिपट जाते हैं, पक्छियों कि चहचहाहट बढ़ जाती है, कोयल और मीठे स्वर में गायन कपने लग जाती है, और उन योगियों , उन संन्यासियों की अग्नि धूम्र में देवताओं के दर्शन होने लग जाते हैं | ऐसा लगता है कि जैसे प्रत्येक कण स्पन्दित हो उठा हो, ऐसा लगता हैकि जैसे प्रत्येक माटी की छणिकता पूर्णतायुक्त हो गई हो, ऐसा लगता है कि जैसे सारे पौधे, सारे पेड़ झूमकर आपका स्तुतिगान कर रहे हों |
और मुझे तोऐसा लगता है कि जितने भी पेड़ हैं , जितने भी पौधे हैं , आपके आगमन पर देवता स्वयं उन पेड़ों में गतिशील होकर के, आपके दर्शन करके धन्य हो उठते हैं , और झुककर आपको भक्तिभाव से प्रणाम करके अपने जीवन की पूर्णता को अनुभव करते हैं, कि यह आपका ही जीवन है, यहआपकी ही विशेषता है , यह आपकी ही श्रेष्ठता और सर्वोच्चता है, यह आपकी ही महानता है||५||
महौ सिद्धाश्रम वै न च भवत रोग श्लथ इति
दिवौ सूर्य श्रेण लिखतु गुण पूर्णत्व इति च |
शशिर्भूमौsमृत्वं त्व व गुण इवौ प्राप्त इति च
"निखिलभूमौ" व्यक्तंभव च औत्सुक्य सुर वै !!६!!
सिद्धाश्रम में न सर्दी है, न गर्मी, न व्याकुलता है, न चिन्ता, न ही व्यग्रताहै, और यह सब आपके आने से ही संभव हो सका है |
यहाँ के प्रभात के ललाट पर आपके हजारों-हजारों गुणों की प्रशस्तियाँ लिखी हुई साफ-साफ
दिखाई देती हैं , मध्यान्ह को सूर्य की किरणें इस धरती से अठखेलियाँ करती हैं, तब ऐसालगता है कि ये किरणेंआपको देखकर नृत्य कर रही हों , रात्री में भगवान चन्द्रअपने पूर्ण यौवन के साथ उदित होकर पूरे सिद्धाश्रम कोअपनी अमृत-वर्षा से आच्छादित कर देते , तब ऐसा लगता है कि, जैसे आपकी आखों से ही निकला हुआ अमृत हम सहको आप्लावित कर रहा हो , चिंता-रहित,
बाधारहित और वृद्धता-रहित यह भूमि सही अर्थों में " निखिलेश्वरानन्द भूमि " कही जा सकती है " क्योंकि आपने इस सिद्धाश्रम को देवताओंके लिये भी ईर्ष्या युक्त बना दिया है, और वे भी कुछ क्षणों के लिये ही सही, यहाँ आने के लिए व्यग्र और उत्सुक हैं|
मैने एक-दो बार ही नही सैकड़ों बार अनुभव किया हैकि न जाने आपके व्यक्तित्व में ऐसी क्या विशेषता है ? जब आप इस धरती पर पाँव रखते हैं , तो चारों तरफ एक अष्टगंध सी प्रवाहित होने लग जाती है, और उस अष्टगंध के प्रवाह से ही यहअनुभव होने लग जाता हैकि कोई देवदूत आ रहा है, देवदूत तो अपने-आप में बहुत छोटा सा शब्द है, स्वयं देवता आ रहे हैं, देवता भी अपने-आप में एक मामूली शब्द है क्योंकि देवता तो स्वयं वृक्षों के रूप में, पत्तियों के रूप में पेड़ों के रूप में, जल के रूप में जिस रूप मेंभी उनका शरीर है, उस रूप में आकर आपका अभिनंदन करने के लिए मचल उठते हैॆं |
मैने अनुभव किया है, कि जब आपका सिद्धाश्रम में प्रवेश होता है, तो वे साकार हो उठते हैं आपकी उपस्थिति से पूरा सिद्धाश्रम नृत्यमय हो जाता है ,उल्लासमय होजाता है , वास्तव में ही
आप और सिद्धाश्रम अपने-आप मे पर्यायवाची शब्द बन गये हैं ||६||
भवोत्रूपं भव्य रचयिति विधाता महकरौ
अहत्तेजस्वी श्रु भवति करुण:नैत्रइति वै |
महेद् वक्ष रूपं जलधि व सतारं बलमहो
अहो काम: विश्मश्रुत युत इति पूर्णद महो!!७!!
हे गुरूदेव! आपका स्वरूप अपने-आप में ही अत्यन्त भव्य और दिव्य है ,विधाता ने स्वयं नवीन व्यवस्था से आपका निर्माण किया होगा ,अत्यन्त तेजस्वी और भव्यमुखमण्डल,उसपर पैनी, सतर्क और सूक्ष्मदृष्टिसम्पन्न नेत्रों में अथाह करुणा का सागर , होठों पर देवताओं को भी लजाने वाली मुस्कुराहट भगवान विष्णु के पाँचजन्य
शँख की तरह ग्रीवा, उमड़ते हुए विशाल जलधि की तरहआपका भव्य और उन्नत वक्षस्थल ,घुटनों को स्पर्श करते हुए हस्ती-सुण्ड की तरह दो बलवान भुजाएँ और देवताओंकी तरह लंबा सौन्दर्यशाली अद्भुत व्यक्तित्व ,जिसमें बल इतना कि, एक ठोकरसे पेड़ को जड़ से उखाड़कर फेंक दे, हाथों में क्षमता इतनी कि, दो व्याघ्रों को पीठ पकड़कर हवा में उछाल दे, और साहस इतना कि , जिसे सुनकर हिमालय भी दाँतों तले अँगुली दबा ले, ऐसे सौन्दर्य को देखकर कामदेव स्वयं यह कहने केलिए विवश हुआ है कि, आप सही अर्थों में पुरूषत्व हैं , आप सही अर्थों में सौन्दर्य हैं , आप सही अर्थों में पौरुष की पूर्णता हैं |
अगर संपूर्ण व्यक्तित्व का आँकलन किया जाय तो ,वह केवल " निखिलेश्वरानन्द जी " का ही है , उनको देखकर के विधाता स्वयं कलम लिये लिखने लग जाता हैकि ,संपूर्ण व्यक्तित्व क्या होता है?
एक-एक अँग अपने-आप में एक तेजी , एक क्षमता, एक तेजस्विता, भव्यता, एक दैदीप्यता लिये खड़ा है ,एक-एक अँग साँचे मे ढला हुआ है||७||
नवौढ़ा सौन्दर्य प्रभु च प्रतुरेक महदधि
महत् देव यक्ष सुरगण प्रहेचच्छुक श्रुति |
यदिर्लेख्यं साक्ष्य भवत महअश्रु प्रवमहो
र्व मूर्च्छत्वं वै न कमल भव श्लष्म प्रचुरति !!८!!
हे सदगुरूदेव!
जिस सौन्दर्य और यौवनभार से लदी हुई अप्सराओं को देखने के लिये मनुष्य तो क्या यक्ष,गन्धर्व, किन्नर और देवता तक उत्सुक रहते हैं, वे अत्यन्त सलज्ज अप्सराएँ , जब हाथ बांधे उस रास्ते पर घंटों खड़ी हुई दिखाई देती हैं, जिस रास्ते पर आप आनेवाले हों, तो उन्हें देखकर मै विस्मय से ओत-प्रोत हो जाता हूँकि अवश्य ही आपके व्यक्तित्व और सौन्दर्य मे कुछ ऐसा है, जो
उन्हें घंटों खड़ा रहने के लिए बाध्य कर देता है,और जब आप एक क्षण के लिए उस रास्ते से निकल जाते हैं ,तो वे अप्सराएँ उस स्थान कीधूलि अपनी मांग में भरकर जो कुछ नही कहना होता है वह भी कहबैठती