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MTYV Sadhana Kendra -
Wednesday 12th of January 2022 01:47:28 AM


यज्ञ
मत्स्य पुराण के सहदेवाधिकार अध्याय में उल्लेख मिलता है कि पहले मनुष्य और देवता पृथ्वी पर साथ ही रहते थे। मनुष्य को अहंकार होने पर देवता कल्प वृक्ष लेकर अपने लोक को चले गये। मनुष्य कल्पवृक्ष प्रदत्त सामग्री के अभाव में पृथ्वी पर उपलब्ध पाकड़ वृक्ष आदि को भोजन सामग्री के रूप में काम लेने लगे। अतः भौतिक ताप भी सताने लगे। मनुष्य जब त्रस्त हुए तो उन्होंने ब्रह्माजी की शरण माँगी, तब ब्रह्मा जी ने मनुष्य को देवताओं की प्रसन्नता के लिए उनके निमित्त यज्ञ भाग अर्पित करने के लिए कहा। यह व्यवस्था की गई कि अग्नि देव अपनी पत्नी स्वाहा के माध्यम से आहुति ग्रहण करेंगे और अग्निदेव उसे तत्सम्बन्धित देवताओं के पास पहुँचाएँगे।
पंचयज्ञ में देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ, बलिवैश्र्वदेव यज्ञ आते हैं। यज्ञ वैदिक संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। यज्ञ पर आधारित कर्मकाण्ड को देवताओं की पुष्टि के लिए आवश्यक माना गया। शब्द भेद से हवन को शुद्धिकारक माना गया। जबकि यज्ञ को आध्यात्म प्रधान माना गया। त्याग, बलिदान या समर्पण की क्रिया के द्वारा यज्ञ भाग को देवताओं के लिए अर्पण करना आवश्यक माना गया। परन्तु शतपथ ब्राह्मण या गीता में यज्ञ के अर्थ कहीं अधिक व्यापक हैं। अखिल ब्रह्माण्ड में ईश्वर के साथ सायुज्य या संलयन को एक यज्ञ प्रक्रिया ही माना गया है। लौकिक दृष्टि से यह माना गया कि देवताओं को यज्ञ भाग अर्पित करने से वे हम पर कृपा करेंगे।
यज्ञ प्रक्रिया के विकास के साथ-साथ तथा हवन की विधियों के विकास के साथ-साथ इस प्रक्रिया में आयुर्वेद का भी समावेश हुआ। आहुति को लेकर नये नियम बनाये गये। हर देवता के निमित्त अलग-अलग यज्ञ काष्ठ प्रस्तावित की गई। सूर्य के लिए मदार या आकड़ा, चन्द्रमा के लिए पलाश, मंगल के लिए खैर, बुध के लिए चिड़चिड़ा, गुरु के लिए पीपल, शुक्र के लिए गूलर, शनि के लिए शमी, राहु के लिए दूर्वा और केतु के लिए कुशा का निर्धारण किया गया। अधिकांश हवनों के बाद श्रीसूक्त के पाठ में खीर से आहुति दिलवाई जाती है। अन्य सभी देवताओं के लिए घी से ही आहुतियाँ लगाई जाती हैं।
ऋग्वेद में ग्रहों का उल्लेख नहीं मिलता है परन्तु नक्षत्रों के मंत्र मिलते हैं और उनके निमित्त आहुतियाँ घी की ही प्रदान की जाती हैं। हर ग्रह की प्रसन्नता के लिए जप संख्या अलग - अलग बताई गई है। सूर्य के मंत्र की जप संख्या 7 हजार, चन्द्रमा की 11 हजार, मंगल की 10 हजार, बुध की 9 हजार, बृहस्पति की 19 हजार, शुक्र के मंत्र की 16 हजार, शनि के मंत्र की 23 हजार, राहु की 18 हजार, केतु के मंत्र की जप संख्या 17 हजार बताई गई है। कुछ यज्ञों में वैदिक मंत्र प्रयोग में लाये जाते हैं और कुल जप संख्या के दशांश के बराबर आहुतियाँ प्रदान की जाती है। दशांश हवन आवश्यक बताया गया है। यज्ञ और हवन दो अलग-अलग क्रियाएँ हैं परन्तु आज हवन को ही यज्ञ समझा जा रहा है।
देवों को हवि प्रदान करना, वेद मंत्रों का उच्चारण, ऋत्विजों को दक्षिणा इन तीनों कार्यों का सहयोग यज्ञ कहलाता है। एक जगह कहा गया है कि जिस कार्य से इन्द्रादि देव प्रसन्न हों, और स्वर्ग आदि सद्गति प्राप्त हो, उसे यज्ञ कहते हैं।
गीता में यज्ञ शब्द का अर्थ थोड़ा अधिक व्यापक है और कर्ता के कर्म की आहुति ही यज्ञ कहलाती है। ज्ञान भक्ति और कर्म को भी यज्ञ कहा गया है। कुल मिलाकर यज्ञ को योग की विधि ही माना गया। अनासक्त होकर किया हुआ कोई भी कर्म यज्ञ कहा गया है।
ब्रह्मर्पणम ब्रह्महवि ब्रह्मागणौ ब्रह्मणाहुतम,
ब्रह्मैव तेन गंतव्यम, ब्रह्म कर्म समाधिना।।
अर्थात् यज्ञ में अर्पण होने वाली हवि भी ब्रह्म है, अग्नि भी ब्रह्म है, कर्ता ब्रह्म है और गंतव्य भी ब्रह्म है।
हवन में आयुर्वेद का प्रयोग -
देवताओं की प्रसन्नता के लिए जो हवन सामग्री प्रयोग में लायी जाती है, वे रोगों का शमन करती है, दवाएँ या गोलियाँ खाने से अधिक प्रभावी हवन की धूम होती है जो देवताओं की प्रसन्नता के साथ-साथ मनुष्य के शरीर में सूक्ष्म रूप में पहुँचती है। हवन सामग्री दशमूल क्वाथ, गूगल, हल्दी, कई तरह का काढ़ा, तरह-तरह की हवन काष्ठ, कपूर आदि वातावरण को निर्मल बनाते हैं। आमतौर से साधारण से यज्ञ में भी आम की लकड़ी, बेल, नीम, पलाश, कलिगंज, देवदार की जड़, गूलर की छाल और पत्ती, पीपल की छाल और तना, बेर, आम की पत्ती और तना, चंदन की लकड़ी, तिल, जामुन की पत्ती, अश्वगंधा, कपूर, लौंग, चावल, ब्राह्मी, मुलेठी, बहेड़ा, हरड़, शक्कर, जौ, लोबाण, इलायची, गुलाब की पंखुड़ी, नागकेशर, तगर, वचा, लाल चंदन, नागरमोठा, कमर के बीज, गूगल, जटा मांसी, शतावरी आदि ग्राह्य हैं। यज्ञ सामग्री के विवरण यजुर्वेद, शतपथ ब्राह्मण, कपिष्ठल संहिता इत्यादि में मिल जाते हैं।
समिधा की काष्ठ मलिन दूषित और कृमि लगी नहीं हो। जलने पर दुर्गंध व धुंआ ना दे। जिस काष्ठ से कोयला बन जाये, उसे भी अच्छा नहीं माना गया है। कुछ समिधा हर जगह काम में नहीं आती। उदाहरण के लिए, वृष्टि यज्ञ में कैर की समिधा ही प्रयोग में लाई जाती है, तो पीताम्बरी के यज्ञ में खड़ताल का भी प्रयोग होता है।
किन का आह्वान करें-
आमतौर से प्रधान देवता के आह्वान व यज्ञ से पूर्व गणेश जी, वरुण देवता, षोड़श मातृका, नवग्रह, पंचदेव आदि का आह्वान और स्थापना की जाती है। ब्रह्मा, क्षेत्रपाल व दिक्पाल का भी आह्वान किया जाता है। इनके निमित्त आहुतियाँ भी दी जाती है। यज्ञ कुण्ड भी शास्त्रीय प्रमाण के अनुसार बनाये जाने चाहिए। अन्य देवताओं के आह्वान के बाद मुख्य पाठ की आहुतियाँ प्रधान देवता के लिए ही की जाती है। ऐसा माना जाता है कि उपरोक्त सभी देवताओं के साक्ष्य में ही हवन किया जाना चाहिए। याद रहे कि यज्ञ के प्रारम्भ में ही जल से आचमन, पृथ्वी का पूजन, जल से अंग स्पर्श करना, यज्ञवेदी का पूजन, अग्नि दीप्त करने का मंत्र जैसी प्रक्रियाएँ भी अपनाई जाती है। यज्ञ समाप्ति के बाद देवताओं के निमित्त भोग, हवन कुण्ड की राख को शरीर पर तिलक आदि के रूप में धारण करना, आरती, देवताओं को विदा करना और क्षमा माँगना एक यज्ञ के प्रमुख अंग है।
एक यज्ञ का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग आहुतियों को देवताओं के समर्पण करना है। उदाहरण के लिए - ओम् सोमाय स्वाहा। इदम सोमाय-इदम न मम।। इसका अर्थ यह है कि यह आहुति मेरे लिए नहीं है सोम के लिए ही है। इसी तरह से किसी भी पाठ के हर अध्याय के अंत में इदम ना मम कहकर ही उस पाठ का फल देवताओं को समर्पण किया जाता है।
यह विधान बहुत बड़ा है और जटिल प्रक्रियाओं को सामान्य शब्दों में समझाना मुश्किल सा काम है।

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