बहुत-से ऐसे लोग हैं जो जमाने भर मे ये कहते
पर असली मज़ा तो तब और आये जब गुरूदेव
फिरते हैं कि-
"मैं गुरूदेव को प्यार करता हूँ,
मैं गुरूदेव को प्यार करता हूँ" !
आकर खुद कहे कि-
"मैं तुझसे प्यार करता हूँ" !
गुलामी हो तो सद्गुरु की
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ग़ुलामी कई प्रकार की होती है।
एक गुलामी है जब हम नौकरी कर रहे होते है। तब शायद हम शारीरिक एवं मानसिक दोनों रूप से गुलाम होते है।
जन्म-जन्मान्तरो से हम प्रकृति में खोकर किसी न किसी प्रकार गुलामी ही तो कर रहे है और परिणाम में आगे गुलामी का बन्धन तैयार मिलता है।
बार-बार जन्म-मरण में फसना क्या है?
संस्कारों के बंधन क्या है?
प्रकृति या माया की गुलामी ही है जिसमे हम शारीरिक एवं मानसिक रूप से सधे है।
दूसरी गुलामी है सद्गुरु या परमात्मा की गुलामी।
अब बात करते है सदगुरु भगवान की गुलामी है कैसी?
सदगुरु भगवान् की गुलामी तन से हो न हो कोई बात नही लेकिन मन से अवश्य करनी चाहिए।
किसी एक सदगुरु में मन को चढ़ा देना ही गुलामी है।
ऐसी गुलामी विरलों को ही सुलभ हुई है।
एक गुलाम हनुमान जी हुए।
एक गुलाम मीरा भी हुई।
ऐसे गुलामों की लंबी-चौड़ी श्रृंखला हैं।
हमारे पूज्य सद्गुरु भी पूज्य दादागुरु के गुलाम हुए।
जब तक भक्त या शिष्य अपने सद्गुरु के चरणों में मन को चढ़ा न दे या उनकी गुलामी स्वीकार न कर ले, वो कभी प्रकृति से पार नहीं हो सकता।
सद्गुरु का प्रत्येक शब्द ही भक्त या शिष्य के लिए सर्वस्व है।
इसके इतर यदि किसी ने सद्गुरु बना तो लिया लेकिन स्वयं के मन और बुद्धि को सद्गुरु से मुक्त रखा तो सिद्ध है कि कहीं न कहीं उसके मन के घड़े में ज्ञानरूपी जल छलक रहा है। उसके मन में अपना ज्ञान भरा है जो किसी की अधीनता नही स्वीकार कर सकता।
हम सब तो मन के गुलाम है, लेकिन यदि स्वयं (मन) का मालिक बनना है तो उस मालिक (सद्गुरु) की मानसिक गुलामी करनी ही पड़ेगी।
सच कहें तो सतगुरु की मन की गुलामी बड़ी सुखद एवं कल्याणकारी है।