"मंजिल के तो मै बिलकुल करीब ही थी.......पर तुने एक नजर क्या देखा मंजिल ही बदल गई"..........सदगुरुदेव बिन और कोन होय.....
इस् जीवन की उहापोह में हम अक्सर हर दूसरे दिन किसी न किसी नयी उलझन में फसते रहते है. भूल जाते हे की जिस उर्जा कों हम साधना के द्वारा एकत्रित करते हे उसे हम अपने ही एक नकारात्मक विचार से खत्म कर डालते है. और यकीन मानिय इसे नष्ट होने में एक क्षण भि नहीं लगता..जितनी तीव्रता से ये प्रहार करती हे उतनी ही तीव्रता से संचित उर्जा कों नष्ट भी कर डालती है. हम साधना या गुरु मंत्र जाप करने में कई बार आलस कर देते है. रोज दूसरे दिन पर धकेल देते हे और कारण ये की आज नींद ही नहीं खूली, कभी ये की हम कल रात बहुत ही देर से सोये, तो कभी मानस ही ठीक नहीं, कभी ये की आज शरीर ही साथ नहीं दे पा रहा, कभी ये की हम हमेशा दुविधा स्थिति में बने रहते है तो कभी हम ये समझते है की कुछ भी ठीक नहीं, कभी कभी हमें बहुत ही तीव्रता के साथ ये भावना आती हे की हमारा कोई नहीं हम अकेले हे इस दुनिया में. और भीड़ में होते हुए भी परकोटी का अकेलापन महसूस होता है.
पर क्या कभी हमने इस् अकेलेपन से बाते करने की कोशिश की हे? शायद नहीं..
जब भी हमारा इस् मानस ऐसे विचारों से घिर जाता है हमें एक बार अंतरमन में झाँक कर जरुर देखना चाहिए की ये सब क्यों? किसलिए? और क्या हासिल होगा इन सब कों सोचने से?
क्या इन विचारों में रहने से हम अपने गुरु की सामीप्यता प्राप्त कर पा रहे है ?
या उनसे हम दूर होते जा रहे है ?
क्युकी जहा हम ये दावा करते रहते हे की गुरुदेव ही हमारे प्राणाधार है वही हमें तारेंगे और पूर्णता देंगे..उनके जैसा निकटतम ओर कोई भी नहीं तो जब हम ऐसि नकारात्मक विचारधारा कों पनाह दे देते है तब कहा चला जाता है वो सशक्त विचार ? वो समर्पण ?
एक बात आप ही सोचे की एसी उदासी किस काम की जो हमें हमारे सदगुरु से ही विमुख करे दे उनसे दूर करे दे.. शायद बात बहुत ही छोटी और सरल सी हे लेकिन हम ही उसे तिल का ताड़ बना देते है..समझना ही नहीं चाहते..
जब भी एसी उदासीनता मानस में घर कर जाती है, तत्क्षण हमें सदगुरुदेव के सामने बैठ कर मानस में चल रहे अंतरद्वंद्व कों शब्दों का रूप दे कर उन्हें समर्पित कर देना चाहिए.. बोल देना चाहिए..
तभी तो असल में ये हो पायेगा...
त्वदीयं वस्तु निखिलं तुभ्यमेव समर्पयामी..
क्युकी वे भी तो नहीं रह पाते ना हमें ऐसा मायूस उदास देखके..उनके मुखमंडल की हसी भी तो ओझिल हो जाती हे ना जब वे अपने शिष्य कों विषाद में देखते है, परेशान देखते है..तो बस बहुत हुआ.. मै जानती हू आप लोग पढके यही महसूस कर रहे होंगे ना की हां ऐसा ही तो होता है हमारे साथ..
हमें ऐसे समय बस एक ही विचार कों सोचना हे की “क्या जो हम सोच रहे हे, जिन विचार कों ह्रदय मस्तिस्क में जगह दे रहे हे इस से क्या हम सदगुरू की पूर्ण प्राप्ति कर पायेंगे, उनके निकट रह पायेंगे? क्या ऐसा विचार मुझे मेरे गुरु के करीब ले जाता है ? नहीं ना.. और फिर यही सोचना हे की हर वो विचार जो मेरे सदगुरू से संबंधित नहीं है या मुझे उनके चिंतन से दूर करता है वो मेरा शत्रु है परम शत्रु..”
और फिर देखिये की कैसे ना हम हौले से पुनः प्रफ्फुलित हो उठते है. नयी उमंग से भर जाते है..हमारे मुख की हंसी पुनः लौट आती है उनकी कृपा दृष्टि से...स्नेह से..
असल में तो सदगुरुदेव भी देखते है ना की क्या मेरा बच्चा जब तकलीफ में होता है मुझे याद करता है सच्चे ह्रदय से ? वैसे तो हमेशा जुबान पर रहता हे लेकिन क्या मन में भि वही बात हे जो जुबां पर हे ? खैर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता उन्हें क्युकी वे तो बिना किसी शर्त के हमारे साथ हर क्षण खड़े हे पर फिर भी जिस प्रकार हमरे माता पिता निस्वार्थ स्नेह हमें देते है पर फिर भी चिंता प्रदर्शित करते ही हे ना शब्दों के भावनाओं के माध्यम से फिर सदगुरुदेव तो हमारे प्राणाधार है.. वे भी तो बस एक बार हमारे मुख से उनको याद करता हुआ सुनना चाहते होंगे न.. कभी तो.. एक बार ही सही..और जब हम ऐसा करते है तो हर मुश्किल आसान लगने लगती है..बस हमें हर बार ऐसा ही सोचना है और साधना करते रहना है..मानसिक रूप से गूर मंत्र तो कभी भि किया जा सकता हे.. क्युकी गुरुमंत्र में ही सर्वस्व समाहित है..