मन्त्र शक्ति का आधार स्त्रोत
...........................................
मन्त्र अपने आप मे शब्द गुंफन और उच्चारण का सम्यक विज्ञान है, कविता की तरह मन्त्र का निर्माण भाव प्रधान या अर्थ प्रधान नहीँ होता अपितु इसका आधार अक्षरोँ के क्रम का एकनिश्चित सयोजन है जिससे कि उसके क्रमबद्ध उच्चारण से ऐसी विशिष्ट ध्वनि निःसत होती हो जो अभीष्ट प्रयोँजन के लिए आवश्यक होने के साथ साथ सफलतादायक हो, जिस प्रकार सितार मे तारो का एक विशेष क्रम होने से ही एक निश्चित और प्रभावपूर्ण ध्वनि निकलती है, उसी प्रकार मन्त्रो का आधार भी शब्दो का परस्पर सयोजन और ध्वनि प्रभाव है ।
मन्त्र के प्रभाव के लिये उसके उच्चारण का भी विशेष महत्व है, अलग-अलग मन्त्रो के लिये अलग-अलग विधान है, कुछ मन्त्र स्फुटिकरण युक्त होते है तो कुछ मानसिक होते है, परन्तु फिर भी उच्चारण युक्त मन्त्र ही प्रभाव पूर्ण माने गये है, मन का शब्दसंयोजन और साधक का विधिवत उच्चारण ये दोनो मिलाकर ब्रह्माण्ड मे एक विचित्र प्रकार की स्वर लहरी प्रवाहित करते है जिसमे मन्त्रानुष्ठान मे निश्चित सफलता प्राप्त होती है ।
विचित प्रकार की ध्वनि एक विशेष कार्य सिद्धि मे अनुकूल रहती है, प्रत्येक ध्वनि प्रत्येक कार्य के लिये उपयुक्त नही, मन्त्रोच्चार से उत्पन्न ध्वनि प्रवाह साधक की समग्र चेतना को प्रभावित करता है, मन्त्र ध्वनि का कम्पन अन्तरिक्ष मे बिखरते हुए परिस्थितियो को अनुकूल बनाता है, शरीर के प्रत्येक रोये, स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर, नाडी गुच्छकोँ तथा शरीर स्थित चक्रो पर इन मन्त्र ध्वनियोँ का प्रभाव पडता है और इसकी वजह से शरीर मे इडा पिँगला तथा सुषम्ना जैसी विद्युत प्रवाह से पूरा वातावरण आप्लावित हो जाता है ।
मन्त्र साधना मे अक्षरो का संयोजन तथा साधक का सही उच्चारण मूल आधार है, यदि उच्चारण मे अन्तर है तो मन्त्र का प्रभाव नहीँ होता । यदि वीर रस की कविता बुदबुदाते हुए पढी जाय तो उसका प्रभाव नहीँ होता. इसी प्रकार मंत्र का एक विशेष लय के साथ ही उच्चारण होता है और यह उच्चारण पुस्तकीय ज्ञान के माध्यम से संभव नहीँ हैँ, अपितु गुरु ही अपने मुह से शिष्य को समझा सकता है
शास्त्रो मे वाक साधना को ही आत्मविद्या का प्रधान आधार माना गया है, उनके अनुसार साधक को मन, वचन और कर्म से एक विशेष उच्च स्तर का समन्वय करना पडता है जिससे कि मन्त्र का प्रभाव सही रुप से और प्रभावपूर्ण ढंग से हो मन्त्र चेतन शरीर के साथ -साथ अचेतन शरीर से भी सम्पर्कित रहता है, अतः मन के चक्रोँ से जब तक शब्द सही प्रकार से नही टकराते तब तक उनका विशिष्ट प्रभाव ज्ञात नहीँ होता विशेष मन्त्र शरीर के किस चक्र से टकराकर पुनः होठो से बाहर निकले यह मन्त्र का मूल आधार है, इसी आधार पर मन्त्रोँ का वर्गीकरण किया गया है, हमारे शरीर मेँ नौ विशिष्ट चक्र माने गये है और प्रत्येक चक्र का अपना एक विशिष्ट महत्व है, हम जब मन्त्र उच्चारण करते है तो पहले वह शरीर के भीतर चक्र से टकराता है और उसके बाद ही वह मुंह से निःसृत होता है, इसलिए यह आवश्क है कि शरीर के इस चक्र से मंत्र की ध्वनि टकराये, इसके लिए विशेष आसनोँ का विधान है, एक निश्चित आसन पर बैठने से एक निश्चित चक्र उत्तेजित रहता है, फलस्वरुप उस समय जब हम ध्वनि उच्चारण करते है तो अन्य चक्र सुप्तावस्था मे रहते है, परन्तु जो चक्र उत्तेजित होता है, उसी से वह वाणी टकराकर बाहर निसृत होती है फलस्वरुप उस मन्त्र मेँ एक विशेष प्रभाव आ जाता है, इस प्रकार की ध्वनि ही सही अर्थो मे मन्त्र कहलाती है और इसी प्रकार की ध्वनि शक्ति से चमत्कार उत्पन्न होता है ।
मन्त्र मेँ सफलता प्राप्ति के लिये जहा साधक का व्यक्तित्व कार्य करता है, वहीँ उसके वचन और कर्म का सयोजन भी सफलता देने मे सहायक होता है, उसके बाद मन्त्र का सही उच्चारण, उसका आरोह-अवरोह तथा सही आसन आदि आवश्यक है, वैज्ञानिको के अनुसार प्रत्येक दिशा से विशिष्ट ध्यान तरंगे निसृत रहती है अतः यदि हमारी ध्वनि तरंगोँ के अनुरुप होती है तो सही सफलता देती है, यदि दिशा ध्वनि और शब्द ध्वनि मे विरोध होता है तो प्रभाव मे बाधा आती है, इसलिये साधक के लिये किस दिशा की ओर मुह करके बैठे इसका ध्यान भी मन्त्र साधना मे रखना आवश्यक है ।
यदि सही रुप से मन्त्र साधना की जाय तो निश्चय ही सफलता प्राप्त होती है, परन्तु ये सारे क्रम 'प्रेक्टीकल' है, अतः योग्य गुरु के द्वारा ही सही ज्ञान ओर सही उच्चारण प्राप्त हो सकता है, इस प्रकार यदि साधक मन वचन, कर्म से एकनिष्ठ होकर मन्त्र साधना करे तो उसे निश्चय ही पूर्ण सफलता प्राप्त होती है ।
जय निखिलेश्वर