1 -मंत्र सिद्ध करने का तरीका है कि तुम गुरू को सिद्ध कर लो ।"
जीवन का गुरू का स्थान सर्वोपरि है ।
क्योकि गुरू सर्वव्यापक तत्व हैं ।
गुरू जीवन को ईश्वर से जोडने वाले हैं ।
इसलिये गुरू पूजा को साधक का अभीष्ट माना गया है ।"
2- अपने हृदय में भक्ति जगाना चाहो तो निरंतर प्रेम और ध्यान से परमेश्वर की चर्चा सुनो किसी श्रेष्ठतम् भक्ति युक्त पुरूष से ।
तुम्हारे भीतर जल्दी ही भक्ति का अंकुर फूट पडेगा ।
3- शक्ति को प्राप्त करना चाहो तो नित्य तीव्र श्वास-प्रश्वास की चोट अपनी नाभि पर करो।
तुम्हारी सुप्त कुंडलिनी अंगडाई लेकर जाग उठेगी ।
लेकिन यह काम विधि को ठीक से समझ कर करना वरना तुम मुश्किल में पड सकते हो ।
4 -मन को शुद्ध करने का तरीका है कि भगवान की ओर लगन लगाओ ।
और उसके प्रेम की अलख अपने भीतर जला लो अभी ।
5- कर्म को शुद्ध करने का तरीका है उसे सदा भगवान के निमित्त करो ।
यानि जो भी करो भगवान को सौंप दो ।
6- आपकी समस्त चित्त वृत्तियां तभी तक आपको भ्रमित करेंगीं जब तक आप उन्हें परमात्मा के चरणों में समर्पित नहीं करते ।
7-विश्वास एक भावदशा है मन की जो स्थाई नहीं रह सकती ।
विश्वास को स्थाई करने के लिये उसे मन से आगे आत्मा का अनुभव बनना चाहिये ।
8-जो मनुष्य एक दफा परमात्मा का अनुभव कर लेता है उसमें ही सच्ची श्रद्धा का जन्म होता है ।
9-"जीवन की सर्वश्रष्ठ योग्यता यह है मानव जीवन लेकर उसने ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर कदम बढाये और उन्हें पाने के लिये अपनी सामर्थ्य का समुचित प्रयोग किया ।"
10-"मनुष्य जीवन एक अवसर है परमात्मा को पाने का ।
लेकिन इस अवसर का उपयोग थोडे से सौभाग्यशाली मनुष्य ही कर पाते हैं ।"
11- संसार पर ज्यादा ध्यान दोगे तो याद रहे तुम एक दरिद्र की तरह मरोगे ।
चाहे तुम राष्ट्रपति ही क्यों न हो जाओ ।
मौत तो तुम्हें उसी तरह कुचलेगी जैसे एक सडक के भिखारी को कुचलती है ।
तुम अमृत्यु को केवल ध्यान की टैक्नीक से पा सकोगे ।
12- खजाना तुम खुद ही हो, कोई बाहरी चीज की खोज नहीं है यहां ।
पर, तुम अंधकार से भर गये हो इसलिये तुम्हें अपना कुछ भी पता नहीं रहा ।
ध्यान ही वह प्रकाश पुंज है जो तुम्हें तुम से और तुम्हारे असली खजाने से परिचित करवायेगा ।
ध्यान का तात्पर्य है कि चेतना का फोकस बाहर से मोडकर अपने पर ले आओ ।
बंदरों की तरह बाहरी ताकझांक बंद करो ।
अपने पर अवधान करो ।
यही सूत्र है ।
13-"तुम बीच मे से हटो और गुरू को तुम्हारे माध्यम से काम करने दो ।"
14-तुम एक दफा सब कुछ अपने गुरू को सौंप कर देखो ।
तुम निरअहंकारिता में जी कर देखो ।
तुम पाओगे कि अचानक तुमने जीवन की कुंजी पा ली ।
15-मंत्र साधना का अर्थ है कि जब तक "गुरूमंत्र" तुम्हारे प्राणों में, हृदय में,श्वास श्वास में में प्रवेश कर,तुम्हारी हड्डी- मांस- मज्जा न बन जाय, तब तक जप करो ।
16- और सिद्धि का अर्थ है परमात्मा से तुम वार्तालाप कर सको ।
तुम उसे सदा सर्वदा अपने निकट पाओ ।
और आनंद में सदा के लिये डूब जाओ ।
17-समर्पण की क्रिया सीखो हंसनी से, जो हंस के विछडते ही प्राण त्याग देती है ।
प्रेम सीखो मछली से जो पानी के बिना तडफ उठती है ।
और प्यार में फना होना सीखो उस प्रेमिका से जो प्रियतम् के बिना होश खो बैठती है ..
सीखो जीवन की इस पाठशाला में कि परमात्मा को कैसे पाना है..
18-"जब तुम्हारी आंखें भीगने लगें, जब तुम्हारे होंठ फड़फडाने लगें और हिचिकियों से लगा अवरूद्ध सा होने लगे तो समझना तुमने कुछ रास्ता पार किया ..
अब तुमने गुरू के निकट आने की क्रिया संपन्न की है..
अब सिद्धियां तुम्हारे लिये जयमाल लिये खडी हो गईं..
क्योकि तुम गुरू में समाहित होने लगे हो..
इसी मंगलमय घडी की आपको सुभकामना है कि वह आये और तुम तुम गुरू के चरणों मे बिखर कर विलख सको ..
यही तो अहोभाग्य है शिष्य का, साधक का !"
19-"प्रेम रस से भरा बादल और रिमझिम फुहार अमृत कणों की..
यही तो है सद्गुरू की कृपा!!
20-"तुम सदा आंख बंद कर खड़े रहे और गुरू का प्रकाश तुम्हारे ही पास था ।
तुम सदा से अनसूने से बने रहे और ऊंकार का नाद तुम्हारे प्राणों को अप्लावित करने के लिये तैयार ही था ।
तुम सदा अपने ही अहं में डूबे रहे और परमात्मा तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता रहा ।
तुम बेहोश रहे और परम चैतन्य तुम्हें पुकारता रहा ।
तुम सदा गुरू के अमृत को चूकते गये ।
अब यह नहीं चलेगा ।
अब तो हृदय पट खोल कर अपने को समर्पित करके देखो ।
गुरू तो परम जीवन का निमंत्रण फिर तुम्हारे लिये ही लेकर आये हैं
सुनो ।"
21-चंदन की शीतलता, पुष्प की महक और गंगोत्री की धार की उज्जवलता जैसी मिस्री सी मीठी है सद्गुरूदेव की वाणी ..
जिसे अपने प्राणतत्व तक पहंचाना ही है ।
यही तो उत्सव है ।
22-एक बार अपने गुरू को भाव पूर्ण हृदय से प्रणाम करो और फिर उनका वरद हस्त अनुभव करो ।
23-"ध्यान साधना,मंत्र साधना, योग साधना और भक्ति साधना की परिणति इस बात में होती है कि आप कितने रिसीवर हुए,ग्राहक हुए?
हम ब्रह्माण्ड में सिद्धावस्था प्राप्त गुरूओं के विचार, आशीष ग्रहण करने लगते हैं ।
हम एक अति शूक्ष्म मार्ग दर्शन में होते हैं ।
यह घड़ी बहुत सौभाग्यशाली है ।"
24-गुरू ही जीवन की सुभाष है, मिठास है।
25- किसी की आप आलोचना तो कर सकते हैं पर निंदा न करें ।
आलोचना में करूणा होती है, अपनत्व होता है, हितकर बात होती है आलोचना ।
पर निंदा के पीछे घृणा होती है, पाप होता है, दुर्भावना होती है,निंदा नीचों का काम है ।
यह ध्यान रहे ।
26-अपनी आती जाती श्वास पर रोज कम से कम एक घंटा ध्यान दें ।
कुछ ही दिनों में अद्भुत शांति आपको घेर लेगी ।
27-बुरे और अच्छे लोग, दोनो पर ध्यान न दें ।
सारा ध्यान अपने पर खींच लें, यही साधना का पहला सोपान है ।
28-किसी की व्यर्थ में आलोचना न करें, इससे आपकी अंत:शांति भंग होगी ।
29-वही कार्य करे जिस में आपकी अंत:श्चेतना साथ दे ।
29- चौर्य से बचें ।
30-मित्था भाषण न करें ।
31-वाणी का दुरूपयोग न करें ।
32-कर्म को शुद्ध रखें ।
32-मन की शक्तियों का असीम आयाम है ।
मन की शक्ति जगायें ।एकाग्र मन से शक्ति जाग्रत होती है |
33-सुबह या संध्या, रात्रि या दिन, साधना के लिये समय का बडा महत्व है ।
कुछ प्रयोग ऊषाकाल में, कुछ मध्यानकाल में, कुछ संध्याकाल तो कुछ मध्यरात्रि में ही संपन्न होते हैं ।
34-मंत्र पर और उसकी शक्ति पर आस्था जरूरी है ।
35-अपने गुरू पर विश्वास करें । किसी भी परिथिति में ..
36-साधना कार्य श्रद्धा से करें ।
37-बुरे लोग भी कई बार बुरे नहीं होते।
आपके मतलब के नहीं होते इसलिये बुरे लगते हैं ।
38-मंत्र के द्वारा सतत जप से, भजन आरती से , पूजन से और स्तोत्र कवच के माध्यम से निरंतर अपने ईष्ट को अपने शरीर में, प्राणों में, हृदय में उतारो, यही परम सिद्धि है ।
३९-मेरे पास सैकड़ों लोगो के प्रश्न आते हैं कि हमें दीक्षा लेना है क्या करें ?
यद्यपि यह बहुुत गंभीर और कठिनतम् विषय है, समझाया नहीं जा सकता ।
फिर उन समस्त लोगों को जवाब दे रहा हूं ।
दीक्षा लेने का आजकल जैसे फैशन सा हो गया है ।
वे दीक्षा शब्द का मतलव भी नहीं जानतें ।
और इस प्रकार न जाने कितने फर्जी लोग पैदा हो गये जो दीक्षा भी देने का ढोंग कर रहे हैं ।
ध्यान रखना अगर आपके भीतर परमात्मा की सच्ची प्यास है तो आपकी दीक्षा हो जायेगी किसी सच्चे गुरू के माध्यम से ।
परतुं अगर आप की प्यास झूठी है, बेमानी है तो आप किसी झूठे बेईमान गुरू के झासें में जा पड़ोगे ।
यह निष्चित है ।
और कुछ न करो यह उतना खतरनाक नहीं है जितना खतरनाक यह है कि आप किसी फर्जी गुरू के जाल में पड़ गये ।
आपकी आध्यात्मिक गति सदा के लिये अवरूद्ध हो जायेगी ।
समझें दीक्षा क्या होती है?
"दीक्षा का तात्पर्य है फल का पकना,पकने के बाद फल में मिठास का अवतरण हो जाता है ।
ऐसा ही जब मनुष्य में परमात्मा को पाने की सच्ची प्यास जाग जाती है तो ही दीक्षा हो सकती है ।
दीक्षा होने के बाद उस साधक में परमात्मा का अवतरण होता है ।
उसके पहले हरगिज नहीं ।
अपने को धोखा देना बहुत सरल है ।
दुनियां में हजारों मूढ हैं जो कहते हैं कि हम दीक्षित हो गये और अकड॒ कर चलने लगते हैं ।
यह बहुुत हंसी और दुर्भाग्य का विषय है ।
शिष्य का तैयार होना और गुरू का मिलना एक ही बात है ।
मेरी बात समझे?
जब शिष्य तैयार हो जाता है, पक जाता है, पात्रता उपलब्ध कर लेता है तो इसी ठीक क्षण में गुरू का मिलना हो जाता है ।
गुरू सदा तैयार हैं मिलने के लिये पर असली समस्या शिष्य की है, शिष्यत्व ही नहीं है।
पात्रता नहीं है, ग्रहण करने की क्षमता है ही नहीं ।
जब आदमी शिष्यत्व को ठीक ठीक समझ ले तो ही गुरू को समझा जा सकता है ।
उसके पहले आप बहुत ही दीन हैं ।
न गुरू का पता है, न शिष्यता का ।
बस, एक झूठी सांत्वना पाना ही है ।
झूठे और बेईमान लोग आपको दीक्षा देगें और आप झूठे ही परमात्मा हो जायेगें .
"विवेकानंद जब रामकृष्ण के चरणों में झुके तो परमात्मा का पहला अनुभव उन्हें हुआ ।
फल पक गया था, एक इसारे की जरूरत थी बस, और घटना घट गई ।
यही है दीक्षा ।
यही दीक्षा मुश्किल है ।
यहां शिष्य को पहले तैयार होना पड़ता है, यह तैयारी जन्म जन्म से चलती है ।
सारी बात शिष्य की है, विवेक स्वयं तैयार थे ही ।
बस, गुरू का थोड़ा सा संस्पर्श मिल गया ।
तो, कहना यह होगा कि गुरू को खोजना ही मत, अपने को खोजने की हिम्मत करना ।
साधना करो, तैयार होओ, पात्र बनो ।
दीक्षा की फिक्र छोडो, शिष्यत्व की फिक्र लो ।
आज इतना ही कहूं तो ठीक ।
40- ज्ञान बुद्धि विवेक लालित्य कला वाणी और सौंदर्य की अधिष्ठात्री
देवी सरस्वती होती है इन रोज साधना से पहले ध्यान करे |
41-अपनी पूरी सामर्थ्य को जानने के लिये आप "कुंडलिनी साधना" का प्रयोग करें ।
थोडे ही दिनों में आप शक्ति को अपने भीतर बाढ की तरह बहती अनुभव करगें ।
आप सहसा अगाध शक्ति से परिचित होगें ।
आपके पास अब शक्ति का अतिरेक वेग होगा ।
तब आप परमात्मा की दिशा में यात्रा कर सकेगें ।
अभी आप जिस हालत में हैं वहां बहुत छोटी सी टिमटिमाती लौ है आपके पास शक्ति की जिससे आप सांसारिक काम भी ठीक से नहीं कर पाते ।
परमात्मा की दिशा में क्या खाक काम करेगें ।
शक्ति चाहिये अनंत परमात्मा की ओर जाने लिये ।
इसलिये योग ने कुंडलिनी जागरण अनिवार्य कर दिया है ।
तो, पहले शक्ति जगाओ फिर कुछ साधनाएं वगैरह हो सकेंगी ।
ध्यान रहे शक्ति भी अनंत है भीतर सोई हुई, उसे जगाओ!!
42- जैसे अर्थक्वैक होता है, भूकंप आता है तो सब कुछ डगमगा जाता है, पृथ्वी हिल जाती है ,भय का संचार होता है, आशंकायें उठती हैं और और यदि ज्यादा अर्थक्वैक हुआ तो उलट पलट हो जाता है ।
ऐसी ही है कुंडलिनी । जीवन में अर्थक्वैक होता है । बहुत कुछ बदलता है और यदि कुंडलिनी सडनली जाग गई तो उलट पलट हो जाता है ।
आदमी पागल जैसा भी हो जाता है ।
इसलिये जो विधि अपनाई जाती है वह सौम्य तरीके से कुंडलिनी जगाती है ।
क्रमबद्ध साधना की जाती है ।
43 - कुंडलिनी की बहुत छोटी से लहर आप में जगी है जिसके माध्यम से आप अपना दैनिक जीवन चला रहे हो ।
आप नहीं नहीं जानतें कि--
जो आपका मिनिमम है उसे आपने अपना मैग्जिमम मान लिया है ।
अपनी निष्क्रीय पडी शक्ति बहुत ज्यादा है ।