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गुरु कही भी मिल सकता है , परंतु सद्गुरु जीवन मे सौभाग्य से मिलता हैं?.The master गुरु कही भी मिल सकता है , परंतु सद्गुरु जीवन मे सौभाग्य से मिलता हैं?

MTYV Sadhana Kendra -
Thursday 3rd of May 2018 12:30:53 AM


गुरु कही भी मिल सकता है , परंतु सद्गुरु जीवन मे सौभाग्य से मिलता हैं?

The master can get anything, but the master gets good luck in life

The master can get anything, but the master gets good luck in life?


गुरु कही भी मिल सकता है, यह आवश्यक नहीं है कि गुरु किसी विशेष वेशभूषा में ही होगा, वेशभूषा का प्रयोग निजी लाभ के लिए मूर्ख बनाने या दिशाहीन करने में भी किया जा सकता है सच्चे गुरु को वेशभूषा या दिखावे में कोई रुचि नहीं होती, ना ही वह अपनी प्रशंसा सुनने का इच्छुक होता है | साधू की वेशभूषा भगवा रंग की होती है इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवा पहनने वाले सारे लोग साधू विचारों के होते है इनमे स्वार्थी और कपटी लोग भी हो सकते है | साधू का भगवा रंग धारण करने के पीछे गूढ़ वैज्ञानिक कारण है जिसका स्वयं साधुओं को भी पता नहीं है | सूर्य का रंग भगवा है, प्रात:काल सूर्य उदय होने पर परिवार के सदस्य एक-दूसरे से दूर होने लगते है पति-पत्नी अपनी आजीविका के लिए और बच्चे शिक्षा इत्यादि के लिए बाहर जाते है | सूर्य अस्त के बाद परिवार फिर से घर में एकत्रित हो जाता है, इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि सूर्य पारिवारिक सुख से वंचित करता है साधू के भगवा पहनने का अर्थ यह है कि इस व्यक्ति ने पारिवारिक सुखों का त्याग करके भगवा धारण कर लिया है और अब पारिवारिक जीवन नहीं चाहता, बाकि का जीवन सांसारिक वस्तुओं और लोगो से दूर रहेगा | प्राय: लोग आशीर्वाद पाने के लिए साधू को आवश्यकता से अधिक सुविधा उपलब्ध करा कर उनका मन भटकाते है, सुख सुविधा को देखकर सच्चे साधू का मन भी संसार की और आकर्षित होने लगता है, ऐसा करके वह लोग अपने पाप कर्म की पूँजी जमा करते है क्योंकि सुविधाओं को भोगने पर साधू अपने लक्ष्य से भटक कर निराकार से दूर हो जाता है |

सच्चे गुरु की पहचान का पहला लक्षण यह है कि गुरु किसी वेशभूषा या ढोंग के अधीन नहीं है और उसके चेहरे पर सूर्य के सामान तेज दिखता है और उसकी छठी इंद्री पूर्णत: विकसित होती है जिसके द्वारा वह भूत, वर्तमान और भविष्य को देख पाता है | सच्चा गुरु ज्ञान देने में प्रसन्न होता है ज्ञान को छुपाने वाला या भ्रमित करने वाला सच्चा गुरु नहीं होता | यह बात भी सभी जानते है कि संसार में जीवित रहने के लिए धन की आवश्यकता है, अकारण आवश्यकता से अधिक धन का मांगना गुरु के लालची और स्वार्थी होने का चिन्ह है , गुरु को स्वार्थी होने का अधिकार नहीं है स्वार्थ संसार के लिए है अध्यात्म में स्वार्थ का त्याग होना अति आवश्यक है जिसका सही ज्ञान सच्चे गुरु द्वारा ही मिलता है |

किसी व्यक्ति में गुरु वाले गुण होने के लिए अच्छे कर्मों की पूँजी होना अति आवश्यक है और जब अच्छे कर्मों की पूँजी गुरु के खाते में है तो उसे धन और अन्य सांसारिक वस्तुओं के पीछे भागने की आवश्यकता नहीं होती बल्कि अच्छे कर्मों के प्रभाव से उसकी आवश्यकता के अनुसार वस्तुएँ गुरु तक अपने आप पहुँचती है | जब कर्मों की पूँजी होती है तो व्यक्ति में इतना संतोष और नम्रता आ जाती है कि धन की पूँजी के लिए मन विचलित नहीं होता | गुरु कहलाने के बाद गुरु का यह दायित्व है कि वह अपने शिष्यों और साधारण व्यक्तियों का सही मार्गदर्शन करे यदि गुरु ज्ञान का प्रयोग धन अर्जित करने या किसी निजी स्वार्थ के लिए करता है तो गुरु के लिए क्षमा नहीं होती और उसे साधारण व्यक्ति से सौ गुना अधिक दंड भोगना पड़ता है क्योंकि गुरु को पाप-पुण्य का ज्ञान होता है | साधारण व्यक्ति के गलती करने पर उसके लिए क्षमा का अवसर और विकल्प है परन्तु गुरु जिसे धर्म और आध्यात्म दोनों की समझ है उसके लिए साधारण व्यक्ति से कही अधिक दंड भुगतना पड़ता है क्योंकि उसके पास साधारण व्यक्ति से अधिक ज्ञान है |

गुरु अपने शिष्य को धर्म(सांसारिक नियम) और आध्यात्म(निराकार), दोनों का अंतर और निराकार को समझने का सरल मार्ग भी बताता है, अधिकतर लोग स्वयं को धार्मिक और आध्यात्मिक दोनों समझते है जबकि ऐसा नहीं है | धर्म नियम है जो स्वयं और संसार को व्यवस्थित करने में सहायक होता है, धर्म संसार के लिए है सभी संबंधों के लिए अलग अलग धर्म(नियम) है जैसे गुरुधर्म, शिष्यधर्म, पिताधर्म, माताधर्म, भाईधर्म, बहनधर्म, मित्रधर्म, राजधर्म, मंत्रीधर्म, नागरिकधर्म, इत्यादि इत्यादि | धर्म (नियम) बहुत सारे है इसलिए व्यक्ति आवश्यकता और विवशता के कारण अपनी सुविधा के अनुसार नियमों और अपनी मान्यताओं को समय समय पर बदलता रहता है जबकि आध्यात्म सभी संबंधों, नियमों से मुक्त होकर निराकार का ज्ञान होने की अवस्था है आध्यात्म का सम्बन्ध आत्मा से है इसलिए इसमें कोई नियम नहीं है, ना ही इसमें कही कोई असुविधा है कि इसको बदलने की आवश्यकता पड़े |

गुरु केवल देने(दूसरो) के लिए है गुरु द्वारा वचन और कर्म व्यक्ति के कल्याण में काम आते है, अपने लिए लेने वाला गुरु नहीं होता, गुरु जिसे सांसारिक वस्तुओं की चाह नहीं होती, गुरु का सम्बन्ध आत्मा से है शरीर से नहीं, जो धन और जाति के कारण भेदभाव नहीं करता | गुरु जो प्रत्येक शिष्य की प्रेम, विश्वास और लगन के अनुसार उसके अध्यात्मिक स्तर को बढाने में सही मार्गदर्शन करता है | गुरु शिष्य के लिए जो कुछ भी करता है उसे कभी भी जतलाता नहीं है, ना ही अपने शिष्य द्वारा प्राप्त किए धन, मन-सम्मान, अध्यात्मिक स्तर का श्रेय लेता है | गुरु अपने शिष्य से ऐसे कर्म करवाता है जो केवल शिष्य हित में होते है, गुरु काअपने शिष्य के कर्म निजी लाभ के लिए प्रयोग करना वर्जित है | गुरु की महिमा देवी देवताओं से अधिक है क्योंकि देवी देवता सीमित शक्ति/ कला के मालिक है, जिस व्यक्ति को जैसा चाहिए वह उस शक्ति/ वस्तु के मालिक देवी देवता की उपासना करके अर्जित कर लेता है जबकि गुरु सीधा निराकार से जुड़ा होने के कारण सभी कुछ ठीक प्राप्त करने में सहायक बनता है | साधारण व्यक्ति भी अपने अच्छे कर्मों और निस्वार्थ भावना से गुरु बन सकता है परन्तु यदि शिष्य का लक्ष्य गुरु बनना है तो वह अधूरा गुरु ही बन पता है वह पूरा गुरु नहीं बन सकता | पूरा गुरु का अर्थ है जो निस्वार्थ सब कुछ कर सकता है |

ईश्वर की कृपा और अपने कर्मो की पूँजी के अनुसार गुरु की शक्तियां अपने आप विकसित होने लगती है आध्यात्मिक स्तर बढ़ने के साथ साथ इन शक्तियों का विकास भी होता रहता है, सबसे पहले गुरु में वाकशक्ति/वाक्यशक्ति विकसित होती है वाक्यशक्ति विकसित होने पर गुरु द्वारा कही गयी सभी बाते पूरी होने लगती है | यहाँ तक की किसी व्यक्ति के भाग्य में ना होने वाली वस्तुएँ गुरु के वाक्य/वचन से मिलने लगती है, अनेकों लोगो की संतान होना या ऐसे कार्य होना जिसकी कल्पना भी ना की जा सकती हो, यह वाक्यशक्ति विकसित हो चुके होने का ही लक्षण है | वाक्यशक्ति के बाद गुरु में स्पर्श शक्ति विकसित होती है गुरु के आगे मस्तक झुकाने का एक कारण यह भी है कि गुरु अपने स्पर्श द्वारा मस्तक झुकाए व्यक्ति की सारी नकारात्मकता समाप्त कर देता है , गुरु के शरीर में जो सकारात्मकता संचार कर रही होती है वह व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाती है जिसके परिणाम से ग्रहों का प्रभाव, हानि, दुर्घटना, बुरे कर्मों का फल, शत्रु, इत्यादि से बचाव रहता है |

वाक्यशक्ति और स्पर्शशक्ति का प्रयोग संसार की इच्छाओं की पूर्ती के लिए होता है, लोगों का कल्याण करते करते गुरु में आत्मशक्ति विकसित हो जाती है | आत्मशक्ति संसार के लिए नहीं होती यह अलौकिक शक्ति होती है जो निराकार से जुड़े रहने के काम आती है | किसी चित्र/मूर्ती, नाम/मंत्र, स्थान, विधि इत्यादि पर अधीन ना होकर, खुली आँखों पर भी निराकार से जुड़े रहने की अवस्था को आत्मशक्ति विकसित होना कहते है | आत्मशक्ति का प्रयोग गुरु अपने शिष्यों की परलोक में सहायता करने में करता है | गुरु की मृत्यु के पश्चात, गुरु के स्थान में वह स्पर्शशक्ति और वाक्यशक्ति का प्रभाव रहता है , सच्चे गुरु की मृत्यु के पश्चात उसके स्थान को स्पर्श करने से मन को शांति और सुरक्षा का आभास होता है और वहां पर उच्चारण की जाने वाली सभी बाते पूरी हो जाती है |

वाक्यशक्ति, स्पर्शशक्ति और आत्मशक्ति तीनो होने पर गुरु में त्रिशक्ति होती है जिसके कारण कुछ भी सोचा या कहा गया पूरा होता है, यह त्रिशक्ति देवी देवताओं के पास नहीं होती क्योंकि देवी देवताओं के पास वाक्यशक्ति और स्पर्श्शक्ति को प्रयोग करने के लिए शरीर नहीं होता | देवी देवताओं के पास सीमित अधिकार/ शक्तियां होती है जैसे धन की देवी लक्ष्मी, विद्या देवी की सरस्वती, ज्ञान के देवता बृहस्पति, इत्यादि देवी देवताओं के पास अलग अलग अधिकार/शक्तियां है | जो कार्य देवी देवताओं की उपासना से भी नहीं हो सकते वह गुरु के एक वाक्य से हो जाते है | इसीलिए कहा जाता है कि गुरु के पास ऐसी चाबी होती है जो हर बंद ताले को खोल सकती है | गुरु की निस्वार्थ भावना के कारणदेवी देवता भी गुरु की कही बात हो नहीं टालते | जाने अनजाने बहुत से ऐसे कर्म हो जाते है जिसके कारण देवी- देवता, मृत्यु पश्चात भटक रहे पित्र(पूर्वज) और भूत-प्रेत क्रोदित हो जाते है, इन सभी के क्रोध का प्रभाव केवल गुरु के आशीर्वाद और सुदृष्टि से ही समाप्त होता है |

गुरु के पास इच्छा, आवश्यकता या विवशता के समय कर्मों की पूँजी को देने या लेने का अधिकार होता है । किसी व्यक्ति की भक्ति, प्यार, नम्रता, समर्पण इत्यादि से प्रसन्न हो कर भाग्य द्वारा ना मिलने वाली वस्तु को दे देना गुरु की इच्छा पर निर्भर है । सालों बाद किसी गुरु के आशीर्वाद से संतान हो जाना या बीमारी ठीक हो जाना गुरु द्वारा ऐसे कर्म दे देना होता है जो उस व्यक्ति के भाग्य में नहीं होता । किसी व्यक्ति द्वारा अपनी वाणी, भाव इत्यादि द्वारा अपने शुभ कर्मों का दुरूपयोग करने पर गुरु को उसके शुभ कर्मो को लेकर किसी और को देने का अधिकार होता है । सम्पूर्ण गुरु की कृपा या आशीर्वाद से सांसारिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार की इच्छाओं को पूर्ण किया जा सकता है । व्यक्ति को समय समय पर गुरु की आवश्यकता इसलिए भी होती है कि गुरु ऐसे गुर सिखाता और बताता है जो पुस्तकों में नहीं मिलते ।

कलयुग गुरुओ से भरा पड़ा है परन्तु सही मार्ग दिखने वाले गुरुओं की कमी है, ऐसे में साधारण व्यक्ति के लिए गुरु का चयन करना अति कठिन है | सच्चा गुरु अपना ज्ञान और शक्ति विकसित करने की युति सरलता से अपने शिष्य/ भक्त को नहीं देता, इसका मुख्य कारण यह होता है कि कहीं शिष्य उस ज्ञान का दुरूपयोग निजी स्वार्थ के लिए ना कर ले | गुरु ज्ञान तभी देता है जब उसे यह निश्चित होता है कि उसका शिष्य इस योग्य है कि ज्ञान का दुरूपयोग नहीं होगा और शिष्य को समझ है कि ज्ञान का सदुपयोग कब कितना और कैसे करना है | शिष्य के इस स्तर को बार बार परखने के बाद ही गुरु अपने शिष्य को ज्ञान देता है | शिष्य की परख करने के लिए गुरु कटु वचनों का प्रयोग भी करता है और शिष्य को कठिन और अस्विकारिय कार्य करने को कहता है, यदि शिष्य बिना प्रश्न और संदेह किए गुरु की कसौटी पर खरा उतरता है तो शिष्य को गुरु द्वारा आशीर्वाद और कृपा में ज्ञान मिलता है, गुरु ऐसा ज्ञान देता है जो पुस्तकों और कहानियों में नहीं होता | ज्ञान ऐसे शिष्य को मिलता है जिसमे ज्ञान अर्जित करने की इच्छा, लगन और योग्यता होती है जिन शिष्यों में योग्यता नहीं होती गुरु उन पर समय नष्ट नहीं करता | योग्यता कर्मों के आधार पर होती है, शिष्य में योग्यता होने पर गुरु उस की उन्नति करने का अवसर नहीं छोड़ता | गुरु द्वारा बताये मार्ग पर सभी शिष्य नहीं चलते, अधिकतर लोग अपनी आवश्यकता, सुविधा और परिस्थिति के अनुसार कार्य करते है , जो लोग गुरुमार्ग पर चलते है उन्हें लोक-परलोक में कोई कष्ट नहीं होता |

गुरु द्वारा शिष्य को दिए जाने वाले ज्ञान से ही गुरु के अपने अध्यात्मिक स्तर का पता चल जाता है कि गुरु स्वयं निराकार से कितना जुड़ा हुआ है और उसमे कितनी योग्यता है, सच्चा गुरु आधा-अधूरा ज्ञान नहीं देता वह अपने शिष्य को पूर्ण ज्ञान देता है | शिष्य की अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार उसकी अध्यात्मिक उन्नति करना और उसका सही मार्गदर्शन करना गुरु का मुख्य कार्य है | गुरु अपने शिष्य को मन और मस्तिष्क दोनों को काबू करने का गुर सिखाता है जिससे शिष्य सभी प्रकार की परिस्थितियों में भयभीत, भ्रमित या असहाय ना हो, शिष्य में धैर्य और नम्रता किसी विवशता के कारण नहीं हो अपितु यह उसके स्वभाव में हो, शिष्य में प्रशंसा करने और प्रशंसा सुनने की आदत नहीं हो, शिष्य अपने भाग्य पर निर्भर ना होकर अपने कर्म पर ध्यान दे और उसकी कर्मपूँजी इतनी हो की बिना मांगे ही आवश्यकता के अनुसार उसे सब कुछ अपने आप मिलता जाये, शिष्य संसार में रहते हुए भी किसी सांसारिक वस्तु या व्यक्ति से इतना ना जुड़े कि उसके मोक्ष का मार्ग कठिन हो जाए | सांसारिक ज्ञान तो सभी को होता है परन्तु गुरु सांसारिक विपत्तियों के साथ साथ अध्यात्मिक स्तर को विकसित करता है जिसके कारण शिष्य सदैव अपने गुरु का ऋणी रहता है, इस ऋण से मुक्त होने के लिए शिष्य अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देता है | गुरु द्वारा मिला ज्ञान अमूल्य होता है फिर भी शिष्य बड़ी श्रद्धा से गुरु को अपनी सामर्थ्य के अनुसार भेंट देता है, कई बार तो शिष्य अपना शेष जीवन ही गुरु की समर्पित करके स्वयं को धन्य समझते है, आज के समय में ऐसे गुरु और शिष्य दोनों की कमी है |

ज्ञान की प्राप्ति से केवल ज्ञानी बना जा सकता है जबकि गुरु के पास आध्यात्मिक ज्ञान होने के साथ साथ देवी देवताओं का साथ और निराकार की कृपा भी होती है सांसारिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान में बहुत बड़ा अंतर है, ज्ञानी को आध्यात्म का ज्ञान हो यह आवश्यक नहीं है और गुरु को सांसारिक ज्ञान हो यह भी आवश्यक नहीं है | सांसारिक उन्नति के लिए सांसारिक ज्ञान का होना आवश्यक है और आध्यात्मिक उन्नति के लिए अध्यात्मिक ज्ञान होना चाहिए | कभी कभी ज्ञानी केवल ज्ञान तक सीमित रह जाते है क्योंकि उनके पास वो कृपा नहीं होती जिससे वो निराकार के रहस्य को समझ सके | आवश्यकता से अधिक ज्ञान भ्रम का कार्य करता है जो व्यक्ति को निराकार और उसकी कृपा से वंचित रखता है | गुरु के पास कृपा नामक वो चाबी होती है जिससे कोई भी सांसारिक या अध्यात्मिक ताला खुल सकता है | यदि गुरु चाहे तो अपने शिष्य को वह दिव्य चाबी पाने के योग्य बनने का मार्ग बता सकता है | समस्या तब आती है जब व्यक्ति स्वयं ही वह चाबी खोजने या बनाने का प्रयत्न करता है क्योंकि निराकार का नियम है कि कृपा रूपी चाबी केवल गुरु के द्वारा ही मिलती है | आधा अधूरा ज्ञान अंधकार के सामान है जो व्यक्ति को और भ्रमित करता है, ऐसे में कृपा और आशीर्वाद प्रकाश का कार्य करते है | गुरु कितना भी ज्ञान दे वो कम समझना चाहिए क्योंकि जो इतना दे सकता है उसके स्वयं पर कितनी और अधिक ईश्वरीय कृपा होगी | कभी भी यह नहीं समझना चाहिए कि मुझे गुरु ने सारा ज्ञान दे दिया और मुझ पर भी गुरु जितनी ही कृपा हो गयी है |

गुरु द्वारा एक गुप्त ज्ञान यह भी दिया जाता है कि निराकार की कृपा कभी भी दो लोगो पर एक सामान नहीं होती, संसार में दिखने वाला सभी कुछ एक दुसरे से भिन्न है जैसे पहाड़, नदिया, पेड़ पौडे, जीव जंतु इत्यादि | निराकार के स्वभाव में नक़ल करना नहीं है, एक बार जो बन गया वह दोबारा नहीं बनता, मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो दूसरों को देख कर आकर्षित होता है और नक़ल करने को विवश हो जाता है |

गुरु और शिष्य का अटूट सम्बन्ध है जो एक बार स्थापित हो जाये तो फिर कई जन्मों तक चलता है, जिस शिष्य के कर्म बहुत अधिक बलवान हों और उन कर्मो का फल अपने आप मिलना हो तो ऐसे शिष्य को ज्ञान देने गुरु स्वयं शिष्य के पास जाते है, जबकि साधारण कर्मों वाले शिष्यों को गुरु की खोज करनी पड़ती है | शिष्य कई प्रकार के होते है इनमे भक्त शिष्य होते है जो गुरु से दूर रहे या पास रहे इनके मन में गुरु के लिए श्रद्धा और भक्ति होती है, ये गुरु के वचनों पर चलना और गुरु की सेवा करके अपना जीवन बिताने को ही सब कुछ मानते है और अपना तन, मन, धन गुरु के लिए लगा देते है, गुरु के साथ या पास रहकर इन्हें अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है | ऐसे शिष्यों से गुरु को आत्मिक प्रेम होता है |

कुछ शिष्य चतुर होते है, उन्हें गुरु की याद तभी आती है जब जीवन में कोई समस्या या दुःख हो, काम निकलने पर ऐसे शिष्य गुरु से दूर रहना ही पसंद करते है ऐसे शिष्य सांसारिक सुख सुविधाओं के लिए ही जीते है उन्हें मोक्ष या निराकार में कोई रुचि नहीं होती, ये समझते है कि गुरु थोड़ी सी सेवा करने में ही इनका कल्याण हो जायेगा क्योंकि गुरु ने अपने स्वार्थ के लिए नहीं इनके लिए जन्म लिया है | ऐसे शिष्यों को गुरु केवल सांसारिक वस्तुओं को पाने का मार्ग बताते है |

कुछ अन्य शिष्य ज्ञानी होते है हालाँकि इनकी गिनती बहुत कम होती है जो गुरु की इच्छा को समझते है, जिनको यह ज्ञान होता है कि गुरु के क्रोध या डांट, फटकार में भी उनका क्या लाभ है, ऐसे शिष्य यह जानते है कि गुरु अपने क्रोध या फटकार द्वारा उनके जाने अनजाने हो गए कुकर्मों का प्रभाव समाप्त करने में उनकी सहायता करके उनमे और अधिक अध्यात्मिक विकास होने की योग्यता बना रहे है । ऐसे शिष्यों के अध्यात्मिक विकास के लिए गुरु उन पर अधिक मेहनत करता है |

मोक्ष प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को निराकार का ज्ञान होना आवश्यक है और निराकार का ज्ञान होने के लिए व्यक्ति का अध्यात्मिक होना आवश्यक है, आध्यात्मिक होने के लिए पूर्ण गुरु का आशीर्वाद और कृपा होनी अति आवश्यक है |

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