?"एकोहि शास्त्रं निखिल मंत्र विज्ञानं"?
?।। ॐ निं निखिलेश्वराय नम:।।?
आरोग्यम्! आनन्दम्! ऐश्वर्यम्!
आज की प्रार्थना
लोकेशो हरिम्बिका स्मरहरो मातापिताऽभ्यागता,
आचार्य कुल देवतायतिवरो वृद्धस्तथा भिक्षुकः।
नैते यस्य तुलां व्रजन्ति कलया यस्य प्रसादं विनाः,
तं वन्दे निखिलेश्वरं निजगुरुं सर्वार्थ सिद्धिप्रदम।।
ब्रह्मा, विष्णु , महेश , जगदम्बा , माता - पिता , अभ्यागत (अतिथि), आचार्य , कुलदेवता , वृद्ध , यति तथा भिक्षुक जिन की कृपा के बिना ये सदगुरु की कलाओं की समानता नहीं प्राप्त कर सकते, ऐसे सर्वार्थ सिद्धि प्रदान करने वाले "सदगुरुदेव निखिल" को बारंबार मैं नमन करता हूं।
।। "अथ गुरु -गीता प्रारम्भयते "।।
गूढ विद्या जगन्माया देहे चाज्ञान सम्भवः।
उदयं स्व प्रकाशेन गुरु शब्देन कथ्यते।।
चाहे कितनी भी गूढ़ विद्यायें हों,चाहे कितनी भी कठिन साधनायें हों, और शिष्य चाहे कितना भी अज्ञानी क्यों न हो, परन्तु यदि वह पूर्ण श्रद्धा के साथ 'गुरु 'शब्द का उच्चारण करता है, तो मन में स्वतः आत्म-ज्योति प्रकाशित हो जाती है,जिस ज्योति के माध्यम से पूर्ण रुप से गूढ़ विद्यायें या साधनायें स्वतः ही सिद्ध है जाती है, और वे गूढ विद्यायें 'गुरु' के माध्यम से ही उदभासित होती आयी है, इसलिए जीवन में 'गुरु 'की उपादेयता सिद्ध है।।1।।
सर्व पाप विशुद्धात्मा श्री गुरोः पादसेवनात्।
देही ब्रह्मपदे तस्मात् तत् कृपार्थं वदामि ते।।
जीवन के समस्त समस्त प्रकार के पाप चाहे वर्तमान जीवन के हों, चाहे पूर्व जीवन के हों, केवल गुरु चरणों का ध्यान करने मात्र से ही वे समस्त पाप समाप्त हो जाते हैं,शिष्य की आत्मा पूर्णरुप से ब्रह्ममय हो जाती है,गुरु-कृपा प्राप्त होते ही वह स्वयं ब्रह्म स्वरुप बन जाता है,और उसका जीवन सार्थक ए्वं धन्य हो पाता है।देवता भी इस प्रकार की कृपा प्राप्ति के लिए लालायित रहते हैं।।2।।
गुरु पादाम्बुजं स्मृत्वा जलं शिरसि धारयेत्।
सर्वतीर्थ वगाहस्य संप्राप्नोति फलं नरः।।
जो शिष्य पूर्ण श्रद्धा के साथ गुरु चरणों के जल को अपने सिर पर छिड़कता है या चरणामृत के रुप में पान करता है,उसे संसार के समस्त तीर्थो में स्नान का पुण्य प्राप्त होता हे,और वह वर्तमान जीवन में ही धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष को प्राप्त करता हुआ पूर्ण सफल मानव जीवन यापन करने में सक्षम हो जाता है।गुरु चरणों में ही समस्त तीर्थ निहित है-इस रहस्य को समझकर साधक गण तीर्थो में भटकना छोड़ देते हैं।।3।।
शोषणं पाप पंकस्य जीवनं ज्ञान तेजसाम्।
गुरोः पादोदकं सम्यक् संसारार्णव तारकम्।।
गुरु चृणोदक,साधक के समस्त पाप रुपी कीचड़ को धोने के लिए, ज्ञान रुपी प्रकाश को प्रज्वलित करने के लिए, तथा संसार सागर से पार उतरने का साधन है।साधकों के जीवन के जितने भी पाप हैं, उन सभी का शमन करने के लिए ह्रदय के अन्दर ज्ञान का दीपक लगाना आवश्यक है, और ज्ञान का दीपक केवल गुरु चरणों का स्पर्श करने से,गुरु आज्ञा का पालन करने से और गुरु के कथनानुसार गतिशील होने से ही ज्योत्स्नित हो सकता है।।4।।
अज्ञानमूल हरणम् जन्म कर्म निवारणम्।
ज्ञान वैराग्य सिध्दयर्थं गुरोः पादोदकं पिबेत्।।
यदि गुरु-चरणों का जल, पान करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाए, तो जन्म-जन्म के पाप और बंधन समाप्त हो जाते हैं,समस्त प्रकार का अज्ञान दूर हो जाता है,और ह्रदय में स्वतः ही ज्ञान और वैराग्य की सिद्धि प्राप्त हो जाती है,उसके लिए अन्य किसी प्रकार के विधि-विधान, साधना और सिद्धि प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि शिष्य के लिए गुरु चरणामृत पावनतम अमृत बूंद है,जिसे पीकर उसके सभी प्रकार के ताप और संताप विलीन हो जाते हैं।।5।।
गुरोः पादोदकं पीत्वा गुरोरुच्छिष्ट भोजनम्।
गुरोर्मूर्तेः सदा ध्यानं गुरो र्मन्त्रं सदा जपेत।।
शिष्य का कर्तव्य यही है, उसके जीवन का पहला और अंतिम उद्देश्य यही है, कि वह अपने सम्पूर्ण जीवन में गुरु चरणामृत का पान करे, गुरु के भोजन के उपरांत उनके उच्छिष्ट भोजन को प्रसाद रुप में स्वीकार करे,निरन्तर गुरु मूर्ति का ध्यान करता रहे और हर क्षण गुरु मंत्र जप करता रहे, ऐसा शिष्य स्वयं देवता स्वरुप बन जाता है, जिसके भाग्य से देवता भी ईर्ष्या करने लगते हैं,क्योंकि पूर्णता तो शिष्यत्व धारण से ही संभव है।।6।।
काशी क्षेत्रं तन्निवासो जाह्नवी चरणोदकम्।
गुरुः विश्वेश्वरः साक्षात् तारकं ब्रह्म निश्चितम्।।
काशी में निवास करने से और भगवान शिव की पूजा करने से जो फल प्राप्त होता है,गंगा में स्नान करने से और गंगा का जल पीने से जो सिद्धि और सफलता प्राप्त होती है,ब्रह्मा,विष्णु और महेश की सेवा और साधना करने से जो फल प्राप्त होता है,वह सब कुछ केवल गुरु के चरणोदक का पान करने मात्र से ही प्राप्त हो जाता है।गुरु चरणामृत साधक के समस्त जन्म-जन्मान्तरीय दोषों का शमन कर उसे ब्रह्ममय बना देता है।।7।।
गुरोःपादोदकं युक्त्वा सोऽसौऽक्षय वटः।
तीर्थराज प्रयागश्च गुरोर्मूर्ति नमो नमः।।
गुरु के चरणों का जल निरन्तर अक्षय कल्पवृक्ष के समान फलदायक है,उस जल का यदि पान किया जाए,तो उतना ही पुण्य प्राप्त होता है,जितना कि तीर्थराज प्रयाग में स्नान करने से, उसके जल का पान करने से होता है।इसलिए संसार में श्रेष्ठतम विभूति को गुरु कहा गया है,और ऐसी ही गुरु-मूर्ति को प्रणाम करने से जीवन में सम्पूर्णता प्राप्त होती है।गुरु चरणों को स्पर्श करना विनम्रता का सूचक है,क्योंकि विनम्र ह्रदय में ही ज्ञान का संचार होता है।।8।।
गुरोर्मूर्तिं स्मरेन्नित्यं गुरोर्नाम सदा जपेत।
गुरोराज्ञा प्रकुर्वीत गुरोरन्यं न भावयेत्।।
निरन्तर शिष्य को गुरु-मूर्ति का ही चिन्तन करना चाहिए,उसे नित्य गुरु के द्वारा प्रदत्त गुरु मंत्र का ही जप करना चाहिए,उसके जीवन का लक्ष्य केवल गुरु-आज्ञा का पालन करना ही है।गुरु के अलावा उसके जीवन में अन्य किसी भी प्रकार का भाव या चिन्तन नहीं हो, इस बात का वह तत्क्षण और हर क्षण ध्यान रखे,ऐसा करने पर वह जीवन में सब कुछ प्राप्त करने में सक्षम और सफल हो पाता है,इन भावों का उदय शिष्य के सौभाग्य का प्रारम्भ है।।9।।
गुकारस् त्वन्धकारश्च रुकार स्तेज उच्यते।
अज्ञानं तारकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः।।
'गुरु' शब्द दो अक्षरों से मिलकर बना है। 'गु' का तात्पर्य है-"अंधकार" अर्थात समस्त प्रकार के शिष्य के बंधन,और 'रु' का तात्पर्य है-"तेज" अर्थात शिष्य के ह्रदय में ज्ञान का दीपक प्रज्जवलित करना।शिष्य के अज्ञान को समाप्त करने वाला यह गुरुत्व ब्रह्म से भिन्न नहीं है,यह शिष्य को जीवन की पूर्णता देने में सहायक है, इसीलिए 'गुरु' शब्द का उच्चारण करना ही जीवन की पूर्णता माना गया है।।10।।
साधकेन प्रदातव्यम् गुरोः संतोष कारकम्।
गुरोराराधनं कार्यं स्व जीवित्वं निवेदयेत्।।
साधक का पहला और अंतिम कर्तव्य यही है,कि वह वही काम करे,जिससे कि गुरु को संतोष की प्राप्ति हो सके,वह उसी प्रकार से सेवा करे,जैसी सेवा गुरु को आवश्यक हो, वह उसी प्रकार से चिन्तन करे,जिस प्रकार से गुरु आज्ञा दें।उसके जीवन में आराधना,पूजा,प्रार्थना,सेवा और साधना केवल गुरु की होनी चाहिए,ऐसा होने पर वह समस्त सिद्धियों का स्वामी हो जाता है,और उसके जीवन में किसी भी प्रकार की कोई न्यूनता नहीं रह पाती ।।11।।
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गुरु" शब्द अपने-आप में प्रबुद्ध और दिव्य शब्द है।इस शब्द को होठों से उच्चरित करने पर पवित्रता, ज्ञान एवं चेतना का बोध होता है, ऐसा लगता है, कि हमने मानसरोवर में डुबकी लगाई हो, ऐसा लगता है कि जैसे हमारे अन्दर देव-मूर्ति स्थापित हो गई हो, क्योंकि यह शब्द अपने-आप में प्रेम का पर्याय,दिव्य और ऊर्जावान है।
आज गुरु मंत्र जप करने के बाद गुरु गीता के ग्यारह श्लोकों का पाठ अवश्य करें।
गुरु मंत्र:-
।। ऊँ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः।।
श्रीमद भगवद गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि मेरी बनाई हुई यह माया बड़ी दुस्तर है। इससे बड़े- बड़े ज्ञानी भी मुक्त नहीं हो पाते। लेकिन जो मेरा निरन्तर भजन , सुमिरण करते हैं वो मेरी कृपा से इससे मुक्त हो जाते हैं।
ज्ञान मार्ग में और भक्ति मार्ग में यही अंतर है। ज्ञानी हर वस्तु को छोड़ कर मुक्त होता है। भक्त उस वस्तु को परमात्मा को अर्पित करके मुक्त होता है। माया को माया पति की और मोड़ दो तो माया प्रभाव ना डाल पायेगी। लक्ष्मी तब तक ही बांधती है जब तक वह अपनी देह के सुखों की पूर्ति में ही खर्च होती है।
लक्ष्मी को नारायण की सेवा में लगाना शुरू कर दो तो वह पवित्र तो होगी ही तुम्हें प्रभु के समीप और ले आएगी। याद रखना, माया को छोड़कर कोई मुक्त नहीं हुआ अपितु जिसने प्रभु की तरफ माया को मोड़ दिया वही मुक्त हुआ। इन्द्रियों को तोडना नहीं मोड़ना है। इन्द्रियों का साफल्लय विषयों में नहीं वासुदेव में है।