भक्ति और ज्ञान, निराकार और साकार के झगड़ों में न पड़ो
भक्ति और ज्ञान के सम्बन्ध में परस्पर लोगों में बहुत सी बातें चला करती हैं।
किसी के मत से ज्ञान बहुत बड़ा है और किसी के मत से भक्ति बहुत बड़ी
है। जिनको न भक्ति का कुछ बोध है और न ज्ञान को ही कुछ समझते हैं, वे
लोग ही भक्ति और ज्ञान सम्बन्द्ध में भेद मानकर परस्पर झगड़ा मचाते हैं।
इस सम्बन्द्ध में यह बात कही जा चुकी है कि परमात्मा को जान लेने
का नाम ज्ञान है और जान कर सेवा करने का नाम भक्ति है।
जिसको जानोगे नहीं, उसकी सेवा क्या करोगे। इसलिये स्पष्ट है कि बिना ज्ञान के भक्ति नहीं हो सकती। जो ज्ञान का खण्डन और ज्ञान का समर्थन करते हैं,
वे दोनों ही नहीं समझते, दोनों अन्धे हैं। अन्धों की बात का क्या विश्वास करना - आँखों वाला कोई बात कहे तो मानी भी जाय। कई लोग साकार निराकार का भेद मान कर बड़ा विवाद उठाते हैं। परमात्मा को यदि सर्व शक्तिमान् मानते हो तो फिर कैसे कह सकते हो कि वह साकार नहीं होता या निराकार ही रहता है। परमात्मा को सर्व शक्तिमान् मानते हुए यह कहना कि वह निराकार हो है,
साकार नहीं होता, सर्वथा असंगत बात है। जब उसे सर्वतन्त्र स्वतन्त्र कहते हो तो फिर वह क्या नहीं हो सकता और क्या नहीं कर सकता भगवान के निर्गुण और सगुण रूप से समझने के लिये हम एक उदाहरण देते हैं -
अग्नि सर्वत्र परिपूर्ण है । जल में भी अग्नि है, थल में भी अग्नि है, काष्ठ में
भी अग्नि है, ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ अग्नि न हो । यह निर्विवाद
सिद्ध है कि अग्नि व्यापक है । अग्नि के समान ही परमात्मा सर्वत्र व्यापक है ।
लकड़ी के चैले में जो अग्नि है वह निराकार रूप से उसमें स्थित है। यदि
चैले को चूल्हे में डाल कर प्रार्थना करो कि अग्नि जल जाय, परन्तु प्रार्थना करने से अग्नि जलेगी नहीं। निराकार अग्नि से जब तक साकार अग्नि प्रकट नहीं होगी तब तक कुछ काम नहीं हो सकता। निर्गुण अग्नि रह जायेगी, परन्तु तुम्हारे काम नहीं आ सकती। इसी प्रकार अग्नि के समान ही निर्गुण, निराकर परब्रह्म परमात्मा सर्वत्र चराचर में पूर्णतया व्याप्त होते हुए भी वह तुम्हारे किसी काम का नहीं है। जब कुछ काम होगा तो साकार ब्रह्म से ही होगा।
यदि गुरु मिल जायें तो चैले को धर्षण करके उसी में से साकार अग्नि प्रकट कर
सकते हैं और मन - चाहा काम ले लेते हैं। जब तक निराकार से साकार रूप में
भगवान प्रकट नहीं हो जाते, जब तक जरूरत का कोई कार्य नहीं बनता।
इसी भाव को लेकर गीता में कहा है -
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यऽहम्॥
' आत्मानं सृजामि' अर्थात मैं निराकार रूप से साकार होता हूँ। कब?
जब धर्म घटता और अधर्म बढ़ता है तब। किस लिये भगवान को निराकार से साकार होना पड़ता है, यह बताते हुए कहते हैं -
परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥
साधुओं के कल्याण के लिए और दुष्कृतियों के संहार के लिए मैं प्रकट
होता हूँ और धर्म की स्थापना करता हूँ। साधु शब्द से गेरुआ तिलक छाप या
कंठी - माला वालों को न समझ लेना। साधु शब्द का अर्थ है - अच्छे साधु वृत्तीय पुरुष जो अच्छे स्वभाव वाले हैं, जो वेद शास्त्र की मर्यादा मानने वाले हैं, स्वधर्म - पालन में जिनकी निष्ठा है, उन्हीं के कल्याण के लिये भगवान् का अवतार होता है। यदि साकार रूप में भगवान् न आयें तो जगत् की व्यवस्था नहीं कर सकते। जो जैसी चीज होती है उसी रूप में उसकी व्यवस्था हो सकती है। जैसे हम यहाँ बैठे हैं, आप लोगों ने हमारे सामने लाउड - स्पीकर लाकर रख दिया तो यदि हम मौन बैठे रहें तो आपको क्या लाभ होगा। निराकार का ऐसा ही
स्वरूप है कि हम सर्वथा निश्चेष्ट मौन बैठे रहें। हमारे मौन बैठे रहने से आप
लोगों को क्या लाभ हो सकता है? .......निराकार भगवान् से कोई लाभ नहीं
होता, जब तक साकार रूप में न आयें। जो बात जैसी है, हम वैसी हो कहते हैं।
हमें आप लोगों को वेद - शास्त्र के सिद्धान्तों को ही बताना है,
अपनी तरफ से कोई बात नहीं कहनी है। हमको स्पष्ट रूप से सिद्धान्त का
विवेचन करते हैं। इसकी हमें परवाह नहीं कि इसको सुनकर कौन प्रसन्न होगा,
कौन नाराज होगा। हमें न किसी का रञ्जन करना है और न किसी को प्रसन्न करने के लिये कुछ कहना है। निराकारवादियों हम पूछते हैं - वैसे तो हम भी निराकार को मानते हैं परन्तु जो केवल निराकार को मानते हैं और साकार को नहीं मानते, ऐसे ही लोगों की निराकारवादी कहा जाता है, ऐसे ही लोगों से हम पूँछते हैं - कि क्या लकड़ी के चैले में जो निराकार अग्नि है उससे क्या कोई
लाभ उठाया जा सकता है? .....निराकार अग्नि से कोई रोटी बनाकर दिखाये। निराकार रूप तो केवल सत्ता मात्र है। निराकारवादी जो निराकार का
ध्यान करते हैं, उस सम्बन्ध में हम उनसे पूँछते हैं कि क्या निराकार का ध्यान किया जा चकता है? कोई ध्येय बनाया जायगा तभी उसमें वृत्ति टिकेगी। पर जो निराकार है उसको ध्येय कैसे बनाया जा सकता हैं? निराकार का ध्यान नहीं बन सकता। यदि कोई कहता है कि निराकार का ध्यान होता है तो उसका कथन
उसी प्रकार है जैसे कोई कहे कि बन्ध्या के पुत्र की बारात में जा रहे हैं। बन्ध्या के पुत्र ही नहीं होता तो उसकी बारात कैसी? निराकार की जब कोई रूप - रेखा ही नहीं तो उसका ध्येय कैसे बनेगा? वृत्ति को जमाने के लिये कुछ तो आधार
चाहिये। जिसका आधार लोगे वही साकार होगा। निराकार - तत्व, ध्याता, ध्यान ध्येय, और ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय आदि त्रिपुटी से परे है। निराकार का ध्यान विडम्बना मात्र है। निराकार तत्व को न समझने वाले लोग ही निराकार के ध्यान की बात कर सकते हैं। निराकार तत्व केवल मानने के लिए हैं ; सिद्धान्त रूप से वह स्वीकार किया जाता है ; केवल उसकी सत्ता मात्र है, उससे जगत् का
कुछ उपकार नहीं हो सकता। क्या कोई निराकार लड़के से लाभ उठा सकता है? निराकार स्कूल में जाकर, कोई पड़ सकता है? निराकार औषधि से कोई रोगी
अच्छा हो सकता है? निराकार भोजन से किसी की तृप्ति हो सकती है? निराकार बिलकुल बेकार चीज है, उससे कुछ भी काम नहीं हो सकता। इससे केवल निराकारवाद सर्वथा अमान्य है, सर्वथा बेकार है। निराकार चीज बीज के समान है, उसको उसी रूप में रखे रहो। बीज पेटी में बन्द पड़ा रहे, तो किस काम का? तक उसे बोओगे नहीं, खनन - सिंचन नहीं करोगे और जब तक वह पल्लवित पुष्पित नहीं होगा, तब तक उस बीज से क्या लाभ है?
निराकार परमात्मा ब्यापक रूप से है, सर्वत्र है। फर्नीचर कमरे में भरा है और
फर्नीचर के काष्ठ में निराकार अग्नि है, पर उस कमरे का अंधकार उस व्यापक निराकर अग्नि से नहीं हटता। यदि किसी फर्नीचर को रगड़ कर निराकार ग्नि को साकार रूप में प्रकट कर लिया जाय तो तुरन्त ही कमरे का अंधकार दूर हो सकता है। परन्तु जब तक अग्नि प्रकट नहीं होगी, वह निराकार रूप में साकार जगत् के व्यवहार में नहीं आ सकती। निराकार से जब वह साकार होगी तभी जगत् का कुछ उपकार उससे हो सकता है।
यदि परमात्मा साकार नहीं हो सकता तो क्या वह तुम्हारा पशु है कि जैसा चाहो उसको बनाओ - वह परम स्वतन्त्र है। वेद कहता है : -
' सोऽक्षरः परम स्वराट्'
अर्थात, वह अक्षर अविनाशी है। परमात्मा परम स्वतन्त्र है। इसलिए 'वह
निराकार ही है, साकार नहीं हो सकता या वह साकार ही है, निराकार नहीं है।' ऐसा मानने वाले परमात्मा - तत्व के सिद्धान्त को नहीं समझते, केवल एक पक्ष बनाकर झगड़ा मचाते हैं। साकार - निराकार के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिये। जो
साकार है वही निराकार होता है। निराकार केवल मानने के लिए है और साकार जगत् का कल्याण करने के लिये। निराकार परमात्मा जब साकार रूप में प्रकट होता है तभी उसके निराकार रूप की प्रत्यक्ष सिद्धि होती है। काष्ठ को धर्षण करने से जब व्यापक निराकार अग्नि साकार रूप होकर एक वेष में प्रकट हो जाती है तभी प्रत्यक्ष रूप से यह निश्चय होता है कि काष्ठ में अग्नि थी। उसी
प्रकार निर्गुण निराकार परमात्मा का संशय विपर्यय रहित बोध तभी होता है जब वह सगुण साकार रूप में प्रकट हो जाते हैं। जिसने काष्ठ को धर्षण करके
अग्नि प्रकट कर लिया है, वही दावे के साथ निर्भ्रान्त रूप के कह सकता है
कि काष्ठ में अग्नि रहती है। साकार रूप में अग्नि प्रकट हो जाने पर ही
निराकर अग्नि का काष्ठ में अस्तित्व सिद्ध होता है। यदि काष्ठ से साकार अग्नि प्रकट न हो तो उसमें निराकार अग्नि का अस्तित्व ही प्रत्यक्ष रूप से नहीं कहा जा सकेगा। जब साकार रूप में भगवान् प्रकट होते हैं, तभी यह निश्चय होता है कि निराकार रूप में भी बे हैं। साकार से ही निराकार की प्रत्यक्ष सिद्धि
होती है - नहीं तो निराकार को कौन कैसे जान सकता है। जैसे अग्नि निर्गुण से सगुण होती है उसी प्रकार परमात्मा भी निर्गुण से सगुण होता है। यह बात सर्वथा अमान्य है कि निर्गुण से सगुण नहीं होता। निर्गुणवादियों के द्वारा ही समाज में अधिक पाप फैलता है क्योंकि ये लोग साकार भगवान को तो मानते
नहीं और निराकार के लिये सोचते हैं कि वह तो कुछ देखता - सुनता नहीं,
मन - चाहा किया करते हैं ; उन्हें पाप - पुण्य से कोई मतलब नहीं।